खुशफहमियों से दूर हटने की कवायद में
देखते ही देखते दुनिया कितनी सिमट गई है और ऐसा लगता है कि काफी आगे भी निकल गई । किन्तु हम तो जहाँ थे वहीं के वहीं खड़े रह गये । मानों हमारी जड़ें जम गई हो । किन्तु मानव तो जड़ विहिन प्राणी है यदि वह अपनी जड़ें जमाने लगा तो उसमें और जड़ जगत में अन्तर क्या रह जायेगा । एक मनुष्य ही तो हैं जिसमें संवेदनाओं का संचार कुलांचे मारता और नये समाज, नये मनुष्य और नई सामाजिकता के विकास में सतत लगा रहता है । इसी के चलते हम अपने आप पास विकास की बहती गंगा के दर्शन करते हैं किन्तु विकास की प्रक्रिया में जाने अनजाने उजड़ने लगता हमारी सभ्यता और संस्कृति का तालमेल । कड़े जीवन संघर्षों , संकटों से गुजरते हुए जब हम साहित्य के सत्ता केन्द्रों की ओर देखते हैं तो हमें पराधीनता के कई द्वीप दिखाई देते हैं । जो आपस में ही टकराकर खण्डित होने को अग्रसर नज़र आते हैं । खैर ! यह एक अलग बात है ।
हम खुशफहमियों और मुगालतों में नहीं जीते, अपितु जीवन के युटोपिया से लगातार सीखने की कवायद करते हुए यथार्थ के शेष होने तक बहुस्तर पर और बहुविध तरीकों से जूझते रहते हैं । तभी आपके सम्मुख उपस्थित हो पाने का साहस जुटा पाते है । आशा है आपका रचनात्मक सहयोग भी मिलेगा ।
इस माह में आपके लिए आकर्षण का केन्द्र हैं महेश दर्पण की डायरी ‘वे दिन भी क्या दिन थे’, जसवन्त सिंह विरदी की कहानी ‘सद्भावना के पुल’, मोहन सोनी की कविताएं, अजय चतुर्वेदी ‘कक्का’ का व्यंग्य ‘हज़ारों पुरखों के पुण्य का फल है प्राईमरी की मास्टरी’ मशहूर व्यंग्यकार शरज जोशी के संग्रह ‘राग भोपाली’ की समीक्षा और पुर्नपाठ के दौरान लिये गये नोट्स के अन्तर्गत अज्ञेय के कविता संग्रह ‘हरी घास पर क्षण भर’ पर आलेख ‘जीवन राग के लिये रूके ः हरी घास पर क्षण भर’ पत्रिका की समस्त रचनाएं आपको पसन्द आयेगी ऐसी आशा है । हम पुनः मिलेगे शीघ्र ही नये अंक साथ ।
रमेश खत्री
डायरी :महेश दर्पण :वे दिन भी क्या दिन थे
डायरी लिखना मेरे लिए हर रोज़ सभव नहीं । जब जैसा बन पड़ा, अनायास लिखा । जो जैसा लगा, जो जैसा हुआ, इन सतरों में आ विराजा । प्रस्तुत है । कुछ प्ष्ठ.....
10 अगस्त,1987 सूबह 8.30 बजे
मेरा अपराध ?
यह शाम का समय था । मैं घर से निकल कर रमाकांत जी के घर की ओर जा रहा था । रास्ते में ही धीरेन्द्र का घर भी है...पर मन यही कि उधर न जाऊं । कैसी विडंबना है कि यह वही धीरेन्द्र है । किसे पता था कि यह सादतपुर आकर महेश में तब्दील हो जाएगा । मामाजी के यहां से यहां आना क्या हुआ कि मैं महेश न रहा । धीरेन्द्र के यहां न जाने का मन न होने की भी कैसी अजीब वजह बनी है । मामाजी-मामीजी की दृष्टि में शायद मैं अपराधी हूं । पर मेरी दृष्टि में....वो लोग धीरेन्द्र के यहां आकर लौट सकते हैं.....पर हमारे घर आने में बड़प्पन कुछ घट जाता है ।
मैंने कई तरह से सोचा है । पर लगता यही है कि अकल एक ही दिशा मैं दौड़ रही है । अबर अपनी ओर से कहीं कुछ गलत है ही नहीं तो फिर हम क्यों किसी से आक्रांत हों । धीरेन्द्र तो बेचारा इस रूप में बीच का मोहरा बन गया कि वह यहां आकर मेरी वजह से ही मामाजी के करीब गया और अब मामाजी यह सोचें कि वे उसके ज्यादा करीब होकर मुझे कष्ट दे सकेंगे तो यह ग़लत थोड़े ही है ।
मैं धीरेन्द्र के घर से तेजी से आगे बड़ लेंता हूं और यह एक ऐसी स्थिति है जो कभी मुझे लज्जित करती है तो कभी दृढ़ता देती है । पर आज मन टूट रहा है । धीरेन्द्र की खिड़की से छनकर आती मामाजी की आवाज़ मुझे भीतर तक परेशान कर देती है । मैं पूरी कॉलोनी का चक्कर लगाकर लौट आया हूं । मन में यही घूम रहा है कि आखिर मेरा अपराध क्या है !
कहानी :जसवन्त सिंह विरदी :सद्भावना के पुल
‘मेरे लेखक भाई ! मुझे और मेरी अम्मी को आप का सुख संदेश मिल गया है, और हम आप के शुक्रगुजार हैं........
पत्र इस तरह शुरू हुआ था, ‘मगर भाई जी, पहले मैं आपको अपने बारे में बता दूं ।’
मैंने कहा, ‘हां बताईये ।’
‘मैं मिस्त्री मेहरदीन की बेटी मेहरां हूं । मेरा यह नाम मेरे अब्बाजी ने रखा था ।’
‘बहुत अच्छा नाम है, मेरी बहन !’ मैंने कहा, ‘तुम सचमुच में मेहरां हो’......
‘मैं पचास वर्ष की हो गई हूं ।’ मेहरां ने कहा ‘मेरा जन्म देश की आज़ादी के बाद 1955 में हुआ था.....’
मैंने कल्पना में ही मेहरां की शक्ल सूरत को देखा, उसके मासूम चेहरे को भी ।
‘मगर मैंने शादी नहीं की थी ।’ मेहरां ने फिर कहा, ‘मेरा अब्बा मेरे जन्म के छह वर्ष बाद फौत हो गया था और मैंने अपनी अम्मी के लिए शादी नहीं की । मेरा भाई मुझसे चार साल छोटा है ।’
पत्र का काग़ज खत्म हो गया था, इसलिए, अन्त में नीचे लिखा हुआ था, ‘भाई जी, बाकी फिर लिखूंगी ।’
मेहरां का पत्र खत्म हो गया, मगर मेरे लिए कितने ही सवाल छोड़ गया ।
पहली, संयोग की बात यह थी कि मेहरां का अब्बा 1961 में फ़ौत हुआ था जबकि मेरा पिता मिस्त्री मीहांसिंह हमारे मोहल्ला गाबिन्दगढ, जालंधर वाले घर में 1961 की मई को अपनी अन्तिम सांसे पूरी कर गया था । रेलवे पुलों के दोनों मिस्त्री एक ही वर्ष में किसी अगले जहान में चले गये थे । क्षणभर के लिए मेरा मन उदास हो गया । मेरे मन में दूसरा सवाल यह उभरा, ‘मेहरा का छोटा भाई अब कहां है ।’
मैं कितने ही दिनों तक इंतजार करता रहा । मगर कोई सुख संदेश न आया तो मन में घबराहट होने लगी, ‘अमन अमान हो ।’
कई बार सोचा था, ‘मेहरां मेरी क्या लगती है ?’
फिर मुझे स्मरण होने लगता, मेरा पिता मिस्त्री मीहांसिंह कहा करता था, ‘बेटा ! मैं और मेहरदीनदस्तार बदल कर भाई बने हुए थे !’
मैं पूछता, ‘क्या मिस्त्री मेहरदीन दस्तार बांधता था ?’
पिता ने बताया था, ‘पहले तो नहीं बांधता था, मगर जब मैंने उसे दस्तार भेंट में दी, तो उसने बांध ली और वह मेरे लिए भी एक दस्तार खरीद कर लाया था ।’
मैं पूछता, ‘आपकी बहुत महोब्बत थी ?’
पिता कहता, ‘लोग हैरान होते थे ये तो सगे भाई दिखते हैं....’
जिस वक्त बंटवारा हुआ, मेरा पिता और मिस्त्री मेहरदीन दर्रा खैबर के क्षेत्र में लंडी कोतल के मुकाम पर एक रेल पुल बनवा रहे थे । एक तरफ का काम मेरे पिता के पास था और दूसरी तरफ से मिस्त्री मेहरदीन काम करवा रहा था । और बंटवारा हो गया ।
‘सारे लेबर मुसलमान थे ।’ मेरा पिता कहता, ‘मगर मिस्त्री मेहरदीन ने लेबर से कहा, ‘मेरे भाई मिस्त्री मीहासिंह को उसके घर जालंधर तक पहुंचाना, अल्लाह पाक की तरफ से हमारा ईमान है ।’
मैं हैरानी से बात सुनता । कभी पूछता, ‘और वो लोग आपको जालंधर तक छोड़ने आये थे ?’
‘हां ऽऽ’ पिता ने कहा तो फिर मैंने हैरानी से पछा, ‘कैसे ?’
‘सौ संकटों से गुजर कर ।’ पिता ने जैसे गौरव से बताया , ‘उनके लिए मेरी जान बहुत कीमती थी ।’
‘आप कुछ बतायें !’
‘कभी फिर....।’
उस समय मेरा बाप आंखें मूंद कर पश्चिमी पंजाब की उन सभी जगहों पर पहुंच जाता, जहां कहीं उसने रेलवे पुलों की उसारी की थी ।
कभी रोड़ी सखर ।
कभी अटक ।
कविता : मोहन सोनी
पनघट की मजबूरी
सािरता को तट की बाहों में बहना बहुत जरूरी है,
अंतर को शीतल करन, पनघट की मजबूरी हैं ।
शीतल शान्त असीमित जल में कर के कंकर आते हैं
तभी लहर के सजल काफिले, सीमा से टकराते हैं
सीमा से अकराकर लहरें ऐसे वापस जाती हैं
जैसे नया अनुभव लेकर, दुलहिन मैसे आती है
गीत कलश भरना भावों के जमघट की मजबूरी है
अंतर को शीतल करना, पनघट की मजबूरी है ।
शब्दों की नौका पर, भावों की जमात का हेरा है
स्ूरज हे उन्वान, जहां फूटे वहीं सवेरा है
प्रथम चरण सी किरण, ओस से अपनी प्यास बुझाती है
श्लेष नयन में पनिहारिन, नीत नूतन गीत रचाती है
चिन्तन को आकर्षित करना, आहट की मजबूरी है
अंतर को शीतल करना, पनघट की मजबूरी है
तीन छंद का गीत दिवस, दूसरे चरण सी दोपहरी
यूं लगता है थकी कल्पना, चलूं चलूं करती ठहरी
दिये गये अंतिम संपुट का, छन्द तीसरा शाम सा
दिन भर मेहनत करने वाले को उत्तम परिणाम सा
साहस के सन्मुख झुक जाना संकट की जमबूरी है
अंतर को शीतल करना, पनघट की मजबूरी है ।
सुबह शाम के संपुट में दोपहरी ऐसी लगती है
जैसे विरह मिलन की सीमा रेखा स्वयं दहकती है
रात कि जैसे प्रणय गीत के मधुर छंद की गहराई
कमल पांखुरी सी दुलहिन, देख चांद को सकुचाई
हृदय समप्रित कर देना, सकुचाहट की मजबूरी है
अंतर को शीतल करना पनघट की मजबूरी है ।
पुनर्पाठ के दौरान लिए गए नोट्स :रमेश खत्री :जीवन राग के लिए रूके : हरी घास पर क्षण भर
बेशक यह मानने का कोई कारण नहीं है कि काव्यरचना जैसा महीन और विशिष्ट कर्म अपने एकान्त और लगभग स्वायत्त रचनालोक में अपने समय की ऐतिहासिक प्रवृतियों और रूझानों का यथार्थपरक या और भी सघन उद्घाटन कर सकता है । इस दृष्टि से यदि सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय के कविता संग्रह ‘हरी घास पर क्षण भर’ की विवेचना करते हैं तो पाते हैं कि अज्ञेय की कविता यहां आते आते क्षण भर के लिए रूक सी गयी है । जैसे शबनम की बूंद गुलाब की पंखुड़ियों पर ठहर जाती है । किन्तु ये कविताऐ तो उससे भी आगे जाती है । इनकी लहरों से निकलता प्रकाश चहुं और फैल जाता है और जीवन के अनुभवों का प्रत्यवलोकन करने लगता है ।
दरअस्ल, ‘हरी घास पर क्षण भर’ अज्ञेय का प्रयोगवादी कविताओं का ऐसा संकलन है जो समय को फलांगता आज भी हमारे सम्मुख ‘शरणार्थी की भांति’ खड़ा दिखाई देता है । अतीत का शरणाथी जो हमें याद दिलाता है बीत समय के कंगुरों की । जीवनानुभवों की और आत्ममंथन करने को विवश करता है कि क्यों रूके हम हरी घास पर क्षण भर ही । क्यों न और अधिक समय के लिए ठहर कर रह जाये । किन्तु इसमें संग्रहित कविताओं से झरते जीवन स्रोत बहुदिशाओं की ओर इशारा करते हैं और हम उन मार्गों की तलाश में निकल पड़ते हैं । इस संग्रह की सबसे सुंदर और लंबी कविता इसी शीर्षक से है और दूसरी उतनी ही सशक्त ‘नदी के द्वीप’ शीर्षक से । इन कविताओं में अज्ञेय अपनी व्यक्तिवादी सोच के दायरों को विस्तार देते नज़र आते हैं । और नई व्यन्जनाओं की विनीर्ति करते दिखाई देते है ।
वास्तव में देखा जाये तो इस संग्रह का ध्येय शहर की बाजारू संस्कृति से उबे हुए मानव की मनःदशा को चित्रित करना भी है, जो बनावटीपन और घिसी घिसायी जीवन शैली की हदों में सिमटकर रह गया है । जीवन अलंकारों की नियोजना नहीं है अपितु आदमी के सुख का आधार उसके मन के अंह में सामाजीकता ग्रहण कर चुका है । इसी के चलते मौन की कहानी नये आयाम रच नहीं है । यहीं आकर ठिठक जाती ‘क्षण भर’ की कहानी । जिससे दो चार होते हुए इस शब्द युग्म पर विचार करने की आवश्यकता आन पड़ी है । इस बिन्दू पर विचार करने करने पर विवरणात्मकता कविता की शक्ति लगने लगती है और खास तौर पर विवरण के बिखरे हुए सूत्रों को पूष्ट करती संस्कृति और संस्कृति का इतिहास आलोचना को भेदते हैं ।
वास्तव में देखा जाये तो प्रयोगवाद और नयी कविता दो बिन्दू नहीं है अपितु एक ही सिक्के के दो पहलू हैं जो कार्य कारण श्रृंखला के रूप में उपस्थित होते हैं । प्रयोगवाद को लेकर जितनी भी बहस हुई, अज्ञेय ने ही उसे हवा दी । दरअस्ल, वे ही कविता में नवीनता, आधुनिकता और व्यक्तित्व की तटस्थता लाना चाहते थे जिससे कतिवा छायावाद की भावातिरेकता, लयबद्धता और वेयक्तिता की छाया से बाहर निकल सके । अज्ञेय के कविता में प्रयोग का आशय उसके लिए नई ज़मीन की तलाश करना था । इसीलिये उनकी रचनाएं अपने स्वरूप में विलक्षण नज़र आती है । हालांकि इस संदर्भ में कई अन्र्तविरोध भी हैं । जिनको लेकर उहा पोह की स्थिति बनी हुई है ।
व्यंग्य :अजय चतुर्वेदी ‘कक्का’:हजारों पुरखों के पुण्य का फल है प्राइमरी की मास्टरी
आज के दौर में सौ पुरखों के पुण्य जमा होने पर नौकरी और हजारों पुरखों के पुण्य जमा होते हैं तो प्राईमरी की मास्टरी मिलती है । प्राईमरी की मास्टरी यानी इन्द्र का सिंहासन । आप चाहे जो करें । स्कूल जायें न जायें, पढ़ाये न पढ़ाये । हर महीनें सरकार की छाती पर चढ़कर चार अंक में कड़ी कड़ी नोट गिनने से कोई नहीं रोक सकता । इतना ही नहीं स्कूल की कुर्सी, मेज, दरी, लालटेन सब कुछ घर उठा ले जाइए । छात्रवृति खुद चबा जाइए । बच्चों का पोषाहार गऊओं को खिलाइये । आपको कौन रोकेगा । अक्षर ब्रम्हा है और ब्रम्हा से प्रथम तादात्मय कराने वाले आप ब्रम्ह रूप ही नहीं अपितु त्रिदेवों में भी श्रेष्ठ हैं । जब ब्रम्हा की ही निन्दा एंव उसके कार्यों में हस्तक्षेप का निषेध है तो अपकी निंदा कौन करेगा । निन्दा करने वालों को छोड़िए निन्दा सुनने वाला भी नर्क का भागी बनेगा । अपनी संस्कृति में आस्था रखने वाला हर शख्स इसका ख्याल रखता है । मैं भी रखता हूं । किसी के मुंह गुरू अथवा ईश्वर की निन्दा सुनता तो तुरन्त लड़ बैठता हूं । कहीं लिखित रूप में पढ़ लिया तो लिखित रूप में ही लिखने वाले की निन्दा कर गंगा नहा लेता हूं ।
हाल ही में एक प्रतिष्ठित अखबार में पढ़ा कि आजमगढ़ जनपद के एक गांव में उपजिलाधिकारी महोदय गेहूं क्राफ्ट कटिंग के तहत गेहूं का सैम्पल लेने गये । दुर्भाग्य से सैम्पल लिए और गांव के ही एक प्राइमरी पाठशाला में पहुंच गये । विद्यालय के तीन अध्यापकों में मात्र एक को उपस्थित पाया । इस छोटी सी घटना को गुरू की मार्यादा को खूंटी पर टांग मीडिया वालों ने खबर बना हाठ लाईट कर दिया । यदि समाचारों का इतना अकाल थ तो बिना पूर्व सूचना के निरीक्षण करने गये उक्त अधिकारी की गलती को उजागर कर चटपटी खबर बना लेना चाहिए था । इतने बड़े अधिकारी को इतना तो पता होना ही चाहिए कि बड़े लोग पूर्व सूचना के साधारण ही गोपनीय कार्य भी नहीं करने जाते । तभी तो मौक पर सब कुछ टंच और टोकरी भर सम्मान पाते है । काश ये भी महाशय एक घन्टा पूर्व भी सूचनाएं दिये होते तो सारे अध्यापक उपस्थित होते । गैया भैंस चराने वाले स्कूल में बिठा लिये गये होते । बगल के जुनियर हाई स्कूल से तेज तर्रार प्राइमरी में खपने लायक दो चार बच्चे बुला लिये गये होते जो आपके प्रश्नों को जवाब दे देते साथ ही आप ढेर सारा सम्मान पाकर खुशी खुशी वापस आये होते । लेकिन आदमी को अपनी प्रतिष्ठा का खुद ही खयाल न हो तो दूसरा कर ही क्या सकता ।
पुस्तक समीक्षा :रमेश खत्री :सुनो तो :नदी कुछ कहती है
हिन्दी के प्रख्यात कवि गोविन्द माथुर का पिछले दिनों रचना प्रकाशन जयपुर से कहानी संग्रह ‘नदी कुछ कहती है’ प्रकाशित हुआ, इसमें गोविन्द माथुर की ताजातरीन कहानियां संग्रहित है जो संख्या में पन्द्रह हैं । इन कहानियों में कथाकार का एक अलग रूप में पाठकों के सम्मुख शब्दों के माध्यम से खुलता चला जाता है हम इन कहानियों के कथ्य को पकड़कर कहानिकार के मन में चल रहे भावों की थाह पा सकते हैं । कथाकार कहानियों में जीवन का सत उलीचता चलता है और उस सत के सहारे हम मानव जीवन की पड़ताल करने निकल सकते हैं और उध्र्व की ओर उन्मुख होते जाते हैं ।
समीक्ष्य संग्रह की कहानियों में हम भाषा के रूप में एक कहानीकार की अपेक्षा कवि को ही पाते हैं । जो जीवन के सहजतम फार्मूलों को चुनती है और सहजता की तलाश करते हुए काफी आगे निकल जाती है । इनसे तादात्म करते हुए हम अपनी स्मृतियों को धुंआ धुआ पाते हैं और उनमें कुछ गुनने का, बुनने का प्रयास करते हैं । इसी के चलते हमारे हाथ लगते हैं कुछ मनके जो दूर तक और देर तक हमारे साथ रहते हैं । जिसके आलोक में जीवन के सत को रेजा रेजा कर देखा जा सकता है । इन कहानियों को गढ़ते हुए गोविन्द माथुर कोई विशेष प्रयास करते हुए नजर नहीं आते अपितु कहानियां स्वतः ही अपना मार्ग चुनती चली जाती है । और अति संवेदनशील कथाकार उनकी ऊँगली थामे चुपचाप आगे बढ़ता चला जाता है, कहीं किसी तरह का शैलीगत पेच नहीं भावना की रौ में बहते हुए लिखी गई कहानियां हमारे सम्मुख खुलती जाती है ।
जब हम संग्रह की पहली ही कहानी ‘दो सांड़’ से दो चार होते हैं, तो उसमें यथार्थ की ठोस जमीन को पकड़े हुए पात्र हमारे सम्मुख उपस्थित होते हैं, इस कहानी में दंगाग्रस्त इलाके में रहने वाले विमल जी के मानसिक ग्राफ को उकेरने का कहानीकार ने प्रयास किया है और संदेह का सहारा लेते हुए वह इसकी पराकाष्ठा पर पहुंच जाता है, ‘वहीद सुनो । कल से तुम बच्चों को लेने मत आना, इन्हं मैं ही स्कूटर पर छोड़ आऊंगा व ले आऊंगा ।’ तो वहीं दूसरी ओर सीधेपन और भोलेमन का वहीद है जो विमल जी को स्तब्ध आंखों से देखता रह जाता है । यह कहानी हमें यथार्थ कठोर जमीन हमें सहजता में खींच ले जाती है और सोचने विवश करती है कि विश्वास कैसे दरका ।
मित्रता को नये आयाम देते हुए, मित्र की जुदाई को जीवन के टूटन से जोड़ने की सायास कोशिश करती कहानी ‘टुटता कुछ’ से जब हमारा साबका होता है तो हम पाते हैं कोमल विचारों की अनवरत श्रृंखला जिसमें हम पाते हैं किस तरह से पढ़ाई के दौरान की कोमल मानसिकता पर उकरे चित्र लम्बे समय तक मानस में अंकित हो जाते हैं और फिर उनकी टीस जीवन भर सालती रहती है । इस संग्रह की एक और कहानी है ‘दो पत्र’ इसमें स्त्री मन के भावनात्मक स्तर पर जुड़ाव का संुदर चित्र उकेरने का कहानीकार ने प्रयास किया है और एक ऐसी मृगमरीचिका की ओर संकेत किया है , जिसका कहीं कोई अंत नहीं है । यह कहानी स्मृतियों के ऐसे सफर की कहानी है जो सुख दुख की विरल भावनाओं को अपने पल्लु में समेटे हुए है और हमें आल्हादित करती है एकान्त के कोने अन्तरों की गीली मिट्टी में पात्रों को नये आकार में ढालती है, हालांकि ये पात्र हमारे आस पास नहीं हो सकते किन्तु फिर भी इनके बारे पढ़कर अच्छा लगता है ।
Saturday, October 2, 2010
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