Sunday, December 12, 2010

साहित्यदर्शन डोट कॉम का माह अक्टूबर 10 का अंक

अपनी बात : भागती ज़िन्दगी का हाथ थामे

संचार क्रांति के फलीभूत आज समय हवा होता जा रहा है, इसीके चलते साहित्य में भी आशातीत गति आई और हमारे सम्मुख साहित्य पत्रिकाओं की बाढ़ सी आ गई, उनमें छपने वाले साहित्य ने इस क्षेत्र की दशा दिशा में आधारभूत परिवर्तन कर दिया । वर्तमान के बाज़ारवाद के फलीभूत होने स्वप्न ने अपने समय के संकटों को ढोते हुए जिस शिद्दत से रचनाओं में अपनी पैठ जमाई वह काबिले तारिफ है किन्तु फिर भी वह पूरी ईमानदारी से व्यक्त नहीं हो पाया, समय की पीठ पर पड़ने वाले चाबुक की कराह को साहित्य में भली भांति पकड़ना आज भी उड़ती चिड़िया के पंख गिनने से कमतर नहीं है । जितनी चीख पुकार वर्तमान समय के खून शजर ने हमारे सम्मूख उलीची है उतनी संवेदनशीलता नहीं तभी तो हमारे आस पास बहुराष्ट्रीय का मायाजाल मंडराता नज़र आ रहा है । और हम विवश उसी के भुलावे में डूबते उतराते चले जा रहे हैं । समय रहते हमें इस तिलिस्म को तोड़ना होगा, समय से साक्षात्कार करते हुए संवेदनशीलता की तरलता को बरकरार रखते हुए वर्तमान समय की धड़कन को शब्दों की परिधि में उकेरना होगा तभी हम अपने आस पास घटते वितानों को समझ पायेंगे ।
माना विज्ञान और तकनीक ने आम जीवन रफ्तार में आमूल परिवर्तन किया विचारों के आदान प्रदान की प्रक्रिया इतनी त्वरित हो गई कि कल्पना से परे है । हमें लगता है साहित्य को भी इतनी ही गति पकड़नी होगी तब हम समय के साथ चल पायेंगे । साहित्य और केवल साहित्य ही है जो मानवता के विरोधियों को मुंहतोड़ जवाब दे सकता है और मनुष्यता का संवरक्षक और पोषक बन सकता है वह बेहतर मनुष्य बनाने की संकल्पना को प्रेरित करता है । साहित्य ही वर्तमान समय में पसरे बाज़ार रूपी दैत्य से छुटकारा दिलाने की कुंजी साबित हो सकता है ।
इन सबके बीच अक्टूबर 2010 के अंक में मनके के रूप में संजोये है विष्णु चन्द्र शर्मा की डायरी ‘त्रिलोचन और मैं’, चन्द्रकांत देवताले की कविताओं पर आपके सेवक का एक आलेख ‘बसंत देखती आंखों का सपना’,डा. वंदना जैन और डा.प्रकाश कुमार जैन का आलेख ‘बुंदेली लोकगीतों में संस्कार’साथ ही हरीप्रकाश राठी का आलेख लूट के सौदागर फैज़ल नवाज चैधरी की कहानी ‘टाइलेट पेपर’ अनवर सुहैल की कहानी डाली और पुस्तक समीक्षा में संतोष श्रीवास्तव के उपन्यास टेम्स की सरगम पर डा. प्रमीला वर्मा की समीक्षा अद्भूत प्रेम में गुंथी टेम्स की सरगम और अजय अनुरागी का व्यंग्य फटे में टांग सम्मिलीत हैं । आशा है आपको पसंद आयेगे और आप अपने महत्वपूर्ण सुझावों से अवश्य अवगत ही नहीं करायेंगे अपितु इस पत्रिका का हिस्सा भी बनेंगे । हम अपने नये अंक के साथ शीघ्र ही आपके सम्मुख उपस्थि होंगे ।

रमेश खत्री
http://www.sahityadarshan.com/Sahitya.aspx
डायरी: विष्णुचन्द्र शर्मा : त्रिलोचन एवं मैं
11.12.94

कभी कवि को अतिमानव, कभी कविता को अतिक्रांति बत्ति या शुद्ध कवितावयी बताया जाता है । युद्ध के पहले कुंभकर्ण अतिमानव लगता है और एक के बाद लगातार हारी हुई रावण की सेना की शक्ति में रावण की दूसरी पत्नी धान्यमालिनी का पवुत्र अतिकाय कविता की भूमिका सा एक अतिभ्रम या अतिरंजना है । केदारनाथ सिंह से मैं समर्थ कवि हूं- पर मैं अति मानव नहीं हूं-केदार पत्रकारिता, पुरूस्कार और पूंजीवादी विश्व के अतिमानव कवि है । मैं त्रिलोचन सा साधारण इंसान हूं, न चालाक, न मूढ़ ।

12.12.94

मेरी कविता मेरे जीवन का ही एक सांगरूपक है । वह साधारण इंसानों का उपजीव है कास, बहेड़े, लाल रंग, सुक्ता । यह अग्निवेदी है जीवन । मैं हूं अग्नि । इंद्रजीत के सामनें लक्ष्य था युद्ध । मैंने त्रिलोचन के बाद की कविता को युद्धयात्रा कहा है । पिता के उत्तराधिकार से एक युद्ध में विडंबना उपन्यास के अलाव सा लड़ रहा हूं । यही आजाद में , मेरे कवि की भूमिका है । दूसरी मां की करूणा भरे घर की कविता या नदी है । तीसरा मेरा कार्यक्षेत्र रहा है सम्पादन, राजनीतिक मोर्चा और कविता की पृथ्वी । उस समय शास्त्र ही अग्निवेदी के चारों ओर बिछाने के लिए कुश या कास के पत्ते थे । बहेड़े की लकड़ी से ही समिधा का काम लिया गया था । लाल रंग के वस्त्र उपयोग में लाये गये और उस अभिचरिक यक्ष में जो स्तुवा था, वह लोहे का बना हुआ था ।’
आदि कवि का यह सांगरूपक मेरी यात्रा का रूपक रहा है । त्रिलोचन की कतिवा मेरे लिए एक अभिचारिक यज्ञ है । स्तुवा उसकी सांस है । मेरी या शमशेर की हड्डी ही लोहे की बनी कहारी आस्था थी । जैसे नागार्जुन का गंवई रूपक था दूअ ।
आदि कवि के समय की लोकगाथा थी राम रावण युद्ध । तुलसीदास के समय का वही राम रावण युद्ध धर्मयुद्ध की फैंटेसी बन जाता है । रामराज्य के बाद वशिष्ठ राम से स्वीकार करते हैं : पौरोहित्य कर्म अति मंदा । क्योंकि रामराज्य के तत्काल बादत पौरोहित्य कर्म में मंदी आती है । क्योंकि वर्ण व्यवस्थ और अगुनहि सगुनहि का भेद मिट चला था । कचि तुलसीदास सही अपनी पहचान नये सिरे से करते हैं-कागभुसंड की कथा के रूपक में । त्रिलोचन के समय आजाद भारत का एक युद्ध था । यह प्रत्यक्ष युद्ध था । युद्ध स्थल में तीन पीढ़ियां थी ।


आलेख:रमेश खत्री:बसंत देखती आँखों का सपना
वर्तमान दौर में जब कविता के अस्तित्व पर सवाल दागे जा रहे हैं , उसे लगातार कठघरे में खड़ा किया जा रहा है और कविता को ही सवाल बनाकर जब हमारे सम्मुख टांग दिया गया हो । तब हमें कवि और उसके कविताकर्म की पड़ताल करने की आवश्यकता जान पड़ती है किन्तु जब हम इक्कीसवी सदीं की हिन्दी कविता को ठीक से समझने की कोशीश करते हैं तो हमें वर्ड्सवर्थ के इस विचार, ‘वास्तविक कवि केवल कवियों के लिये नही लिखता है, बल्कि वह मनुष्यों के लिये लिखता है ।’ को ध्यान में रखकर कवि की पड़ताल करनी होगी तभी हम कवि के कविता कर्म को बखुबी समझ सकते हैं । आदमी होने की पहचान उसके अन्दर व्याप्त प्रेम, भ्रातत्व और सहयोग जैसी भावनाओं से होती है कवि इन संवेदनाओं को भाषाई कलेवर के साथ उनके वास्तवविक रूप में कविताओं में हमारे सम्मुख उलीचता है किन्तु प्रत्येक युग की कविता का अपना स्वत्वबोध है उसके माध्यम से समय की पड़ताल कविताओं में दस्तक देती है और समय वहीं ठहर कर रह जाता है । इन्सान को इन्सान बनाने की सर्वश्रेष्ठ भावना प्रेम है किन्तु कवि के लिए यह भावना सभ्यता और संस्कृति का मूल्यांकन करने का एक आधार है इसी आधार के सहारे कवि अपनी जीवन यात्रा आरंभ करता है और एक नई सभ्यता, एक नई संस्कृति को रचने का लगातार प्रयास करता है जिसके आईने में वर्तमान सदी अपना रूप संवार सके।
पानी का दरख्त नदी में और नदी समुद्र में मिल जाती है फिर भी पूरी नहीं होती प्रेम की परिक्रमा.... क्षितिजों के पार कुछ ढूंढती ही रहती है कवियों की आँखें.....(इतनी पत्थर रोशनी)
समकालीन हिन्दी कविता के परिदृश्य में चंद्रकांत देवताले की सर्जनात्मक सक्रियता और महत्वपूर्ण उपस्थिति से हम सभी परिचित हैं अपनी लगभग पाँच दशकों की लम्बी रचनात्मक कालावधि में उन्होंने अपनी असंदिग्ध प्रामाणिकता और काव्य ऊर्जा के द्वारा कविता के ‘सत्’ को खोजने तथा पाने की ईमानदार कोशिश की और अपने समय और मनुष्य के प्रति कविता की मौलिक प्रतिबद्धता और उसके बुनियादी सरोकारों को लेकर सवाल पैदा किये । इसी के परिणाम स्वरूप देवताले की कविताओं में रचना की तेजस्विता के लक्षण हमेशा से विद्यमान रहे और आलोचना की धार को बोथरा करते रहे । वें समकालीन हिन्दी कविता के परिदृश्य में सर्जनात्मकता के बीज रौपते रहे और अपनी रचनाशीलता से हर समय में अपनी उपस्थिति लगातार दर्ज करवाते रहे । लगभग पाँच दशक से भी लम्बा उनका रचनाकाल एक ईमानदार कोशिश के रूप में उभरकर हमारे सम्मुख आता है और लगातार काव्य उर्जा को अद्र्ध देता है ।
देवताले, अपनी कविताओं में मौलिक प्रतिबद्धता और बुनियादी सरोकारों से जुझते हुए नज़़र आते हैं और एक सजग, विचारशील और विवेकपूर्ण चित्र हमारे सम्मुख उभरता जाता है जिसके सहारे हम पाँच दशक की लम्बी यात्रा करते हुए इस कालखण्ड में हुए उतार चढ़ाव को आसानी से देख सकते हैं । उनकी कविताएँ इस बात की गवाह है कि समय को उनमें किस तरह से नाथा गया है और वें उसका किस तरह से गवाह बनती है । यह अलग बात है कि कुछ लोग दुनिया में सिर्फ बहस करते हैं और कुछ लोग चुपचाप अपना काम करते रहते हैं । इस दृष्टि से देखे तो चन्द्रकान्त देवताले अपनी रचना धर्मिता को चुप चाप निभाहते रहे और समय के भाल पर कविता के हस्ताक्षर करते रहे हैं । आज वे ही कविताएँ गवाह है जो उनके पक्ष में खड़ी है ।


कहानी :फैजल नवाज़ चौधरी:टायलेट पेपर
ये अजीब संयोग है कि आज शुक्रवार और तेरह तारीख है । केलेंडर में इस तरह के मिलाप को यूरोप में घटनाओं से जाड़ा जाता है । लेकिन आज से दस साल पहले जब मैंने रेगब्यूएन में काम शुरू किया था, तब ये मिलाप मेरे लिए खुशियां लाया था । मगर इतना अर्सा गुजरने के बाद मुझे यूरोप की आबो हवा ने मानेवैज्ञानिक तौर पर इसके ज्ञर की जकड़ में ले लिया है ।
टाज हमारी सेक्रेटरी लिजे ने मुझे फोन पर बताया कि तुम्हें काम से अलग कर दिया गया है, तो मुझे केलेंडर के इस मिलाप की मनहूसियत पर यकीन आ गया ।
‘शाकिर तुम दफ्तर जरूर आना जलोहान तुम से मिलकर जरूरी बात करना चाहता है ।’
आज मैं तेजी से दफ्तर की सीढ़ियां चढ़ रहा हूं और मुझे गुस्से से खौफ आ रहा है कि कहीं आज मुझ से कोई गलती न हो जाए । इस बिल्डिंग की सीढ़ियां मैं रोज़ाना कितनी बार चढ़ता था ! लेकिन आज इन सीढ़ियों का रास्ता इतनी जल्दी तय नहीं हो रहा और मेरा जिस्म गुस्से से कांप रहा है । मैंने ज्योही दफ्तर का दरवाज़ा खोला मेरा बॉस एकदम कुर्सी से उठ खड़ा हुआ जैसे वो मेरे ही इंतिजार में था ।
लिजे ने रहस्यमय मुस्कुराहट से मेरी तरफ देखा जैसे वो मुझसे कोई बदला लेना चाहती हो । मुझे महसूस हुआ कि जैसे वो कह रही हो- सुनाओ शाकिर ! तुमने मेरी तज्वीज ठुकरा दी थी और आज तुम्हें कितनी आसानी से बाहर फेंक दिया गया ।
मैं लिजे को नज़रअंदाज करते हुए सीधा जोहान की तरफ बड़ा । मुझे गुस्से में अपनी तरफ आता देख कर ‘हाय काशिर ’ कहते हुए उसने अपना हाथ बढ़ाया, लेकिन मैंने गुस्से की वजह से उसके साथ हाथ मिलाना मुनासिब न समझा ।
जोहान कहने लगा, ‘टेक इज इजी शाकिर.....कूल डाउन ! मैं कुछ जस्री कातें करना चाहता हूं । तुम मुझे अच्छी तरह जानते हो कि तुम मेरे लिये क्या अहमियत रखते हो !’



कहानी :अनवर सुहैल:डॉली

रात ग्यारह बजे दरवाजे़ की घण्टी घनघनाई।
रहमान साहब बारह बजे के आस-पास सो पाते हैं।
उस समय रात पाली के इंचार्ज को आवष्यक निर्दष दे रहे थे। द्वितीय पाली की समाप्ति पर बॉस का फोन आता ही है। इस बीच हुए बे्रक-डाउन की जानकारी उन्हें होना चाहिए ताकि बॉस को फोन पर संतुश्ट कर सकें कि रात पाली वालों को खदान चलाने में दिक्कत न आए।
बॉस से बात हो जाने के बाद वह रात पाली के फोरमेन से एक बार फिर बात करते हैं और फिर घड़ी में पांच तीस का अलार्म आन करके सोने की कोषिष करते हैं।
रहमान साहब को आसानी से नींद नहीं आती। अपनी इस आदत से वह बड़े परेषान रहते हैं। वह बिस्तर पर लेट कर हस्बेमामूल दरूद “शरीफ पढ़ते हैं। चाहते हैं कि कम से कम सौ बार दरूद “श रीफ पढ़ लें लेकिन सौ की संख्या पूरी होते-होते कब उन्हें नींद अपनी आगोष में ले लेती वह जान नहीं पाते।
ब्लड-प्रेषर और “शुगर के कारण मिसेज रहमान की एड़ी में इधर दर्द बढ़ गया है, इसलिए वह पेन-किलर खाकर सो गई हैं। वैसे भी उनके सोने का समय फिक्स है। वह ज्यादा देर जाग नहीं पाती हैं। किसी दिन यदि उन्हें देर रात जागना पड़ जाए तो पक्का है कि अगली सुबह उन्हें कोई न कोई रोग आ घेरता है। इसीलिए रहमान साहब आर्टी-पार्टी में भी टोक दिया करते हैं कि वह जल्द जाकर सो जाएं।
मच्छरदानी से निकलकर रहमान साहब ने बरामदे की लाईट जलाई तो देखा कि सामने सूरज खड़ा है।
उन्होंने गेट खोला।
दुबले-पतले सूरज के चेहरे पर डर और चिन्ता की रेखाएं गहरे तक पैठी हुई थीं।
कल से ही सूरज ने उन्हें टेंशन में डाल रक्खा है।
रहमान साहब उसे जानते हैं। उनके बंगले के सामने ही तो खदान के पर्सनल मैनेजर वर्मा साहब का बंगला है। वर्मा साहब छुट्टियां बिताने सपरिवार बिहार गए हुए हैं।
देष में बेरोजगारी बढ़ी और कॉलोनी में चोरियां।
चोरी से बचने के लिए अधिकारीगण छुट्टी जाने पर अपने बंगले की देख-भाल के लिए चैकीदार रखते हैं।
सूरज वैसा एक युवक है।
रहमान साहब ने सवालिया निगाह के तीर छोड़े।
सूरज सकपकाया हुआ था-‘‘साहेब!’’
‘‘हां, बोल...’’
‘‘साहेब, इसमें मेरा कोई कुसूर नहीं साहेब!’’
रहमान साहब उसे घूरते रहे।
‘‘साहेब, वो कुतिया मर गई साहेब!’’
रहमान साहब सकते में आ गए-‘‘क्या बोल रहा बे, कब मर गई डॉली?’’
रहमान साहब की आंखों के आगे एक ऐसी कुतिया की तस्वीर उभरी जिसकी खाल पर से सारे बाल उड़ गए हों। ज्यादा उम्र के कारण जो काफी कमज़ोर हो गई हो। वाकई डॉली अपने ज़माने में होगी बड़ी सुंदर, लेकिन इधर उसे जाने कैसा रोग लगा था कि उसकी चमड़ी दिखाई देने लगी थी। छोटे क़द की कुतिया डॉली के पूंछ के नीचे एक फोड़ा भी हो गया था। उस फोड़े से बदबूदार पीप निकलती तो एक अजीब सी गंध वर्मा साहब के घर में छाई रहती।




आलेख : डा.वंदना जैन एवं डा.प्रकाश कुमार जैन:बुंदेली लोकगीतों में संस्कार
लोक गीत लोक जीवन से फूटे बहे अमृत के स्वर्ण निर्झर है, जिसमें पृथ्वी के प्राणों की रसगंध और आकाश की सौन्दर्य श्री का सतत गतिशील चित्र प्रतिबिम्बित है । लोकगीत जीवन में इस तरह समा गया है कि मनुष्य के जीवन को लोकगीतों से अलग कर देखना और परखना किसी भी तरह से संभव नहीं है । इन लोकगीतों की सर्वकालिक एवं सार्वभौमिक सत्ता है, अतः हम कह सकते हैं कि लोकगीतों का जन्मदाता जनमानस है ।
‘राल्फविलियम के अनुसार लोकगीत न तो पुराना होता है न नया, वह तो जंगल के एक वृक्ष के जैसा है जिसकी जड़े यूं तो दूर जमीन में धसी हुई है, परन्तु जिसतें निंरतर नई नई डालियां पल्लवित पुष्पित होती रहती है ।’
लेकगीत मानव का सहजन्मा है । अतः प्राचीनकाल से इनकी परंपरा देखने को मिलती है । वैदिक युग में भी प्रत्येक उत्सव, पर्व, त्यौंहार के अवसर पर सामाजिक गीत गाकर मनोविनोद करने की प्रथा मानव समाज की दिन चर्या के एक आवश्यक अंग के रूप में विद्यमान थी । पुत्र जन्म, यज्ञोपतिव, विवाह, द्विरागमन ‘गौना’ आदि हमारे समस्त उत्सवों के अवसर पर स्त्रीयां मधुर ध्वनि में लोकगीत गाकर अपना तथा उपस्थित अतिथियों का पर्याप्त मनोरंजन किया करती थी ।
वैदिक युग में भी इन पर्वों के अवसरों पर गीत गाये जाते थे । बाल्मीकी रामायण में राम जन्म के समय तथा श्रीमद् भागवत ‘दशमस्कंध’ में श्रीकृष्ण जन्म के अवसर पर महिलाओं द्वारा मनोरंजन गीतों के गाने का स्पष्ट वर्णन मिलता है । इतना ही नहीं मेहनत मजदूरी करने के (चक्की पीसना, धान कूटना, खेती करना, नींदना आदि) समय जिस प्रकार स्त्रियां झुंुड बांधकर गीत गाकर अपनी थकावट हल्की किया करती है, प्राचीन काल में भी ठीक इसी प्रकार होता था । लोकगीतों में भावना की सरल एवं अकृत्रिम अभिव्यक्ति के साथ ही गीत रचना विधान किया जाता है । लोकगीतों की भारतीस परंपरा के समान ही पाश्चात्य जगत में भी लोकगीतों का व्यापक प्रभाव दिखाई देता है ।
लोक गीत लोक जीवन से फूटे बहे अमृत के स्वर्ण निर्झर है, जिसमें पृथ्वी के प्राणों की रसगंध और आकाश की सौन्दर्य श्री का सतत गतिशील चित्र प्रतिबिम्बित है । लोकगीत जीवन में इस तरह समा गया है कि मनुष्य के जीवन को लोकगीतों से अलग कर देखना और परखना किसी भी तरह से संभव नहीं है । इन लोकगीतों की सर्वकालिक एवं सार्वभौमिक सत्ता है, अतः हम कह सकते हैं कि लोकगीतों का जन्मदाता जनमानस है ।
‘राल्फविलियम के अनुसार लोकगीत न तो पुराना होता है न नया, वह तो जंगल के एक वृक्ष के जैसा है जिसकी जड़े यूं तो दूर जमीन में धसी हुई है, परन्तु जिसतें निंरतर नई नई डालियां पल्लवित पुष्पित होती रहती है ।’
लेकगीत मानव का सहजन्मा है । अतः प्राचीनकाल से इनकी परंपरा देखने को मिलती है । वैदिक युग में भी प्रत्येक उत्सव, पर्व, त्यौंहार के अवसर पर सामाजिक गीत गाकर मनोविनोद करने की प्रथा मानव समाज की दिन चर्या के एक आवश्यक अंग के रूप में विद्यमान थी । पुत्र जन्म, यज्ञोपतिव, विवाह, द्विरागमन ‘गौना’ आदि हमारे समस्त उत्सवों के अवसर पर स्त्रीयां मधुर ध्वनि में लोकगीत गाकर अपना तथा उपस्थित अतिथियों का पर्याप्त मनोरंजन किया करती थी ।
वैदिक युग में भी इन पर्वों के अवसरों पर गीत गाये जाते थे । बाल्मीकी रामायण में राम जन्म के समय तथा श्रीमद् भागवत ‘दशमस्कंध’ में श्रीकृष्ण जन्म के अवसर पर महिलाओं द्वारा मनोरंजन गीतों के गाने का स्पष्ट वर्णन मिलता है । इतना ही नहीं मेहनत मजदूरी करने के (चक्की पीसना, धान कूटना, खेती करना, नींदना आदि) समय जिस प्रकार स्त्रियां झुंुड बांधकर गीत गाकर अपनी थकावट हल्की किया करती है, प्राचीन काल में भी ठीक इसी प्रकार होता था । लोकगीतों में भावना की सरल एवं अकृत्रिम अभिव्यक्ति के साथ ही गीत रचना विधान किया जाता है । लोकगीतों की भारतीस परंपरा के समान ही पाश्चात्य जगत में भी लोकगीतों का व्यापक प्रभाव दिखाई देता है ।



पुस्तक समीक्षा:डा.प्रमीला वर्मा:अद्भूत प्रेम से गुंथी -टेम्स की सरगम

‘टेम्स की सरगम’ साहित्यकर्मी संतोष श्रीवास्तव का नवीनतम उपन्यास है जिसमें लेखिका ने पूरी शिद्दत के साथ प्रेम के अनूठे रूप को प्रस्तुत किया है । यह उपन्यास प्रेम के अद्भूत स्वरूप को कुछ इस तरह रचता है कि कब दो भिन्न जातियों, संस्कृतियों, धर्मों और भाषाओं के हृदय मिलकर अलौकिक प्रेम की ऊँचाईयां छूने लगे पता ही नहीं चलता जबकि हर स्तर और हर रूप में प्रेम अपनी पूरी उदात्तता के साथ कथा में रचा बसा है । जहां एक ओर विभिन्न पत्रिकाएं प्रेम से जुड़े मुद्दों पर विशेषांक निकाल रही है वहां ‘आॅनर आॅफ किलिंग’ भी पैर पसारता जा रहा है, ऐसे में यह उपन्यास राहत का पैगाम लेकर आता है । प्रेम को पूरी तरह से परिभाषित करना कोई आसामन काम नहीं है । प्रेम गूढ़ रहस्यों से भरा है । प्रेम की अनुभूति, प्रतिति और पीउ़ा तलवार की धार पर द मसाधकर चवलने की क्रिया है । जरा सा चूके और अन्त । लेखिका ने इसे चुनौती मान पे्रम के विविध रूपों, विविध घटनाओं और विविध रंगो को विस्तृत कैनवास में फैलाकर एक बेहतरीन रूप दिया है ।
उपन्यास की कथा तीन पीढ़ियों को बुनती है जबकि समय है अंग्रेजों के शासनकाल का अंतिम चरण । जब देश में क्रान्ति की लपटें सुलग उठी थीं । एक ओर आज़ादी के इस हवन कुंड में अपनी आहुति देते शहीद थे वहीं नवजागरण भी उठान पर था और चित्रकला, संगीत, नाट्यकला के जोश से भरी युवा पीढ़ी पूरे देश को अपनी अपनी कलाओं से गुलामी की नींद से जगाने की मुहिम में जुटी थी । उन्हीं अन्तिम दशकों में ईस्ट इण्डिया कम्पनी के पदाधिकारी टॉम ब्लेयर का अपनी पत्नी डायना के साथ भारत आगमन होता है । डायना स्वभावन से कोमल और भावुक है और उसके ये दोनों गुण उसके अत्यंत खूबसूरत व्यक्तित्व को और भी अधिक आकर्षक बनाते हैं । इसके बिल्कुल विपरीत टॉम ब्लेयर हैं जो क्रूर अंग्रेज प्रशासक हैं । भारत के प्रति हेय भावना रखता है और यह मानता हे कि भारतीयों पर केवल राज किया जा सकता है जबकि डायना ऊँचे संस्कारों और विचारों वाली संभ्रांन्त घराने की एकमात्र संतान है जिसके पिता लंडन मेंं करोड़पति व्यापारी हैं । डायना भारत की धरती पर कदम रखने से पहले भारत के विषय में तमाम जानकारियां इकट्ठी कर लेती है और यही वहजह है कि भारत की संगीत और नाट्य कलाओं को वह सीखना चाहती है । भारतीय साहित्य को पढ़ने की इच्छा उसे हिन्दी, संस्कृत और बंगाली भाषाओं में पारंगत कर देती है । चूंकि टॉम का स्वभाव क्रूर है, वह दुराचारी और स्त्रीगामी है अतः डायना का प्रेम के लिए तरसता, घायल मन यदि अपने संगीत अध्यापक चंडीदास को प्यार कर बैठता है तो यह कोई अनहोनी जैसा नहीं लगता बल्कि डायना को लेकर पाठकों के मन में जो पीड़ा उपतजी है उसका निदान ही लगता है । टॉम के स्त्री विषयक विचार एक पितृसत्तात्मक समाज के है जहां नारी मात्र भोग्या है और पुरूष की कमान तमाम जीवन के पहलुओं के कसे हुए हैं । स्त्री विमर्श की अछूती पृष्ठभूमि को लेखिका ने सहजता और कथा गति में उठाया है जो सहज लगता है ।
http://www.sahityadarshan.com/View_Books.aspx?id=31

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