जनवरी 2010
हाशिये की खदबदाहट से आतंकित समय
अपनीबात अभी ही हम इस दशक के अन्तिम सौपान पर पहुंचे है, अभी तक हमारे पैर इस लम्बी यात्रा की थकावट से कराह ही रहे है, इस बीतते दशक में बहुत कुछ घटा है और न जाने कितना दबा रह गया जो चाहकर भी उजाले में नहीं आ पाया । किन्तु दशक के अन्तिम समय में कुछ ऐसी खदबदाहट की आहटें हाशिये में सुनाई दी कि मुख्यधारा में बहने वाले हंसते मुस्कुराते चहेरे जर्द पतों से दिखाई देने लगे । समय ने उनको अर्श से उतार उनके नियत स्थान पर पहुंचा दिया । और अब वें हाशिये के कोनों में अपना मुंह छुपाए बैठे है ।इस बीते वर्ष में ही साहित्यिक जगत के सागर में कई उथल पुथल भरी लहरों ने कोहराम मच गया, नतीजतन कईं पत्रिकाएं करवट बदलते हुए आंखें मिचमिचाती उठ खड़ी हुई । उन्होंने साहित्य के आकाश में नवाकुंरित सितारों की फोज खड़ी कर दी । तो वहीं दूसरी ओर कई पुरोधा हमारे बीच से चले गये और वह खाली स्थान हमारे सम्मुख मौन का गहन पैथास उत्पन्न कर रहा है । इस सबके बीच कुछ ने तो प्रेम को परिभाषित करते कई अंकों का नया बाजार पैदा किया । कई विवादों ने जन्म लिया और कई तो अजन्में ही कालकवलित हो गये किन्तु समय ने संयम की सीमा में रहकर इस तरह किलेबन्दी की कि धुरधुराती रेत सा समय हाथ से फिसलता रहा और हमें पता ही नहीं चला ।और आज हम फिर उसी स्थान पर खड़े हैं जहां से शुरूआत की जाती है.....
रमेश खत्री
डायरी : चेकोस्लोवाकिया में आठ दिन : विष्णु प्रभाकर
चेकोस्लोवाकिया ! पूर्वी यूरोप का यह छोटा सा देश आज और भी छोटे छोटे दो देशों में बदल चुका है: चेक गणराज्य और स्लोवाक गणतन्त्र । लेकिन अप्रेल 1989 में जब मुझे वहां जाने का अवसर मिला, त बवह एक देश था और `साहित्य अकादमी´ की ओर से पांच भाषाओं के पांच साहित्यकारों का एक दल वहां घूमने जा रहा था ।वहां जाने से पूर्व ही मैं उस देश से परिचति हो चुका था । एक चेक विद्वान डा। पोरिजका, जो संस्कृत और हिन्दी के पण्डित थे, वहां के लिए एक पाठ्य पुस्तक तैयार कर रहे थे । यह चेक और हिन्दी दोनों भाषाओं में थी, उसके लिए वे भारत के दो भाषाविदों डा. सुनीत कुमार चटर्जी और डा. जगदीशचन्द्र जैन के अलावा मुझसे भी सहायता लिया करते थे । मैं विद्वान तो नहीं हूं लेकिन मेरा जन्म ठेठ उसी अंचल में हुआ है जहां खड़ी बोली हिन्दी बोली जाती है ।
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पुर्नपाठ के समय लिए गये नोट्स : मैला आंचल: जीवन राग की कहानी: रमेश खत्री
मैला आंचल´ का रचना समय भारत की आजादी के मुख्य वर्ष 1947 के आस पास का देड़ दो साल का समय ही है और कथा क्षैत्र उत्तरी बिहार के पुरनिया जिले का एक पिछड़ा गांव हैं । देश में घटित कुछ घटनाओं के अंश ही एक गांव की गगरी में समा पाते हैं, फणीश्वर नाथ रेणु ने उसी को समेटकर कथा का वितान ताना । 1942 के आन्दोलन से यह गांव अछूता था किन्तु आजादी के देशव्यापी उत्सव की तरंगों में यह गांव भी लहलहाने लगता है । परन्तु जमीन की भूख आधुनिक भारतीय ग्रामीण जीवन की एक प्रमुश समस्या ने उग्र रूप धारण कर पूरे गांव को इस भंवर में फसा लिया और फिर बापू की हत्या से उद्भूत करूण कृदन भी इस गांव में अनूठे ढंग से रंग जाता है ।`मैला आंचल´ की अद्भूत विशेषता यही है कि इसमें मिथिला के निरन्तर बदलते हुए आज के एक गांव की
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आलेख : नजीर अकबराबादी के काव्य में चित्रित भारतीय पर्व : डा।अब्दुल अलीम
लोक कवि नजीर अकबराबादी हिन्दुस्तानी गंगा जमुनी संस्कृति के प्रतीक हैं । उनका कार्यकाल अठारहवीं सदी के मध्य से उन्नीसवीं सदी के मध्य का है । नजीर अकबराबादी के रूप में हिन्दी और उर्दू साहित्य में एक विशेष परम्परा का सूत्रपात हुआ । जो तत्कालिन भारत के सांस्कृतिक रंगों से ओत प्रोत थी । लम्बे समय तक नजीर अकबराबादी लोक कवि की परम्परा रे रहकर साहित्य की दीघाZ से बाहर खड़े रहे । धीरे धीरे उनकी अपनी विशिष्ट दृष्टि के कारण उन्हें हिन्दी और उर्दू साहित्य में महत्वपूर्ण स्थान मिला । नजीर की सांस्कृतिक दृष्टि के निर्माण में उनके काल में प्रवाहित सांस्कृतिक धारा और विशेषकर आगरा और उसके आसपास की संस्कृति की विशेष भूमिका रही है । आगरा मुगल सम्राट अकबर की राजधानी रह चुका था । जिससे वहां की मुस्लिम संस्कृति का वातावरण और ताजमहल के रूप में उदारतावादी संस्कृति के प्रतीक मौजूद थे । ताजमहल उस ‘शाश्वत प्रेम का प्रतीक बना खड़ा था जो भारतीय संस्कृति का प्राणतत्व है । आगरा के निकट मथुरा वृन्दावन में राधा कृष्ण के प्रेम और भक्ति के गीत गूंज रहे थे । इन गीतों के साथ मेलों पर्वों और परम्परा भी ब्रज के साथ जुड़ी रही । इस मिली जुली संस्कृति ने नजीर की सांस्कृतिक दृष्टि को नये आयाम दिये । जिनकी अभिव्यक्ति सामासिक संस्कृति के रूप में उनके काव्य में हुई ।
ह्त्त्प//व्व्व।साहित्यादर्शन।कॉम/वीएव_लेख।अस्प्क्स?ईद=२०
कविता : मायामृग : सपनों का शस्त्रीकरणएक था सपना ।
सपनों का शस्त्रीकरणएक था सपना ।दूसरा था सपना ।दोनों लड़ रहे थे ।मैदान चुप था/क्योंकिसमझा रहा थासपनों को ‘शान्ति का अर्थ ।एक सपने के हाथ मेंतलवार थी ।तलवार का लोहाबहुत चमकीला था/औरधार धारदार थी ।लेहा पहले बहुत काला थामिट्टी सना भी थापर सपने ने दोनों हाथों सेपत्थर पर रगड़ रगड़बहुत चमका लिया था ।दूसरे सपने के हाथ मेंएक तलवार थीपर उसनेत्लवार से पहलेढाल बनाई थीजे अब तक बहुत काली थी ।क्लापन रात से आया थाक्योंकि धरती घूम गई थीसूरज पिछवाड़े गिर पड़ा था औरकछुए की पीठपहले थेड़ी लम्बी चपटी थीपर धीर धीरे गोल हो गईकछुआ अपने पैरों कोपीठ की खाल नीचेसिंकोड़ना जानता था ।मैदान पर दोनों सपने लड़ रहे थे ।सपनों में शब्द नहीं थे,सपनों में अर्थ नहीं थे,सपनों के पास हथियार थे ।देर तक युद्ध चलादोनों लहू लुहान हो गिर पड़ेमैदान के बीचों बीच ।मैदान के पास कच्ची मिट्टी थीउसने कोई तलवार नहीं बनाई ।सपने मर गयेमैदान हार गया ।सपनों का मरनातुमने भी देखा और तुमने भीतुम चुप रहेतुम चुप रहे ।मैदान का हारना मैंने देखामैं चीखूंगामैं चीखूंगा !
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कहानी : डा। पूरण सिंह : कायर नहीं था मैं
कहानी `हैलो........´`हैलो........´`आज मैं नहीं आ पाऊंगी, `शेखर ।´ मोबाइल पर आवाज सुनते ही शेखर बौखला गया था और चिल्लाया था, `क्यों नहीं आ पाओगी ?आज रक्षा बंधन है, पगले इतना भी नहीं जानते । तुम कहां जान पाओगे ? तुम्हारी कोई बहन होती तब न..... हां नही न्तो ।´ शैलजा ने फोन पर ही डांटते हुए शेखर से कथा था तो‘शेखर को लगा जैसे बादल फट गया हो, प्रलय आ गया हो और अचानक शान्त होते हुए बोला था, `कोई बात नहीं ।´दरअसल, शेखर और शैलजा एक दूसरे को प्यार करते थे । ऐसा शायद ही कोई दिन रहा हो जब वे आपस न मिले हों । शेखर इस शहर का माना हुआ गुण्डा था जो गांव से भागकर शहर में आ गया था ।`क्या हुआ शेखर तुम नाराज हो गये र्षोर्षो´ शैलजा का प्यार छलछला उठा था ।`नहीं शैलजा, सॉरी, मुझे माफ कर देना ।´ शेखर फोन पर ही बिलबिलाने लगा था और माबााइल स्विच ऑफ कर दिया था । न जाने क्यों आंखें भर आयी थी उसकी और आंखों से टपकते हर आंसू में उसे आराधना का मासूम सा चेहरा दिखाई देने लगा था । हां, हां, यही नाम तो था उसकी बहन का । बहुत प्यार करता था अपनी आराधना को वह । अम्मा और बाबू की मृत्यु के पश्चात् बहुत लाड़ प्यार से पाला था उसने आराधना को । कई बार तो सोते सोते ही आराधना आराधना करने लगता था वह, `उस दिन भी रक्षा बंधन ही था......´ सोचने लगा था शेखर । उसे देखकर ऐसा लग रहा था मानो कोई इतिहास से पन्ने चुरा रहा हो, ´.......उसकी आराधना थाली में मोतियों से सजी राखी लिये खड़ी थी । थाली में रोली और चन्दन रखे हुए थे और वह पागल सा निहारे चला जा रहा था अपनी आराधना को तभी तो वही बोली थी, `क्या भइया ऐसे ही देखते रहोगे या राखी भी बंधवाओगे ।´ देख लेने दे मुझे । तुझे देखकर ऐसा लग रहा है मानो परी उतर आयी हो आसमान से ।´ प्यार और स्नेह के साथ साथ ममता का समुन्दर हिलोरे मार रहा था उसके हृदय में कि तभी आराधना बोल पड़ी थी, `भइया, आप नज़र लगायेंगे मुझे ।´
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कहानी : शिब्बू : सूरज प्रकाश
कहानीहमने उस वक्त तक दौड़ में मिल्खा सिंह का ही नाम सुना था। हमें तब तक पता नहीं था कि बड़ी रेसों में दौड़ने के लिए खास तरह के जूतों की और तकनीक की ज़रूरत होती है। हमें यह भी पता नहीं था तब तक कि किसी भी दौड़ में अव्वल आने के लिए समय की गणना के लिए सेकेंड के हिस्से भी मायने रखते हैं और हम ये भी नहीं जानते थे कि ऐसी दौड़ों में दो चार सेंटीमीटर से भी पिछड़ जाने का क्या मतलब होता है। ये सारी बातें हमें बहुत देर बाद पता चली थीं। लेकिन उस सारे अरसे के दौरान हम एक बात अच्छी तरह से जानते थे कि हमारे स्कूल में और हमारे ही साथ, हमारी ही कक्षा में पढ़ने वाला शिव प्रसाद पंत किसी भी मिल्खा सिहं से कम नहीं है। बेशक उसके पास जूते, कपड़े और दूसरे तामझाम नहीं थे फिर भी उसमें बला की चुस्ती, फुर्ती और गति थी। वह जब दौड़ता था तो हमें चीते से भी तेज़ दौड़ता नज़र आता था और उसके साथ दौड़ने वाले उससे कोसों पीछे छूट जाते थे। वह हमेशा अव्वल था और हमारे लिए वही मिल्खा था। छोटे कद और गठीले बदन वाला हमारा शिव प्रसाद पंत हमारा हीरो था। हमें उस पर नाज़ था। वह हमारा अपना धावक था और उसका साथ हमें गर्व से भर देता था।
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व्यंग्य : धुंए की लत : अजय अनुरागी
व्यंग्य सार्वजनिक स्थलों पर धूम्रपान की भारत में लम्बी परम्परा रही है । इस परम्परा को नष्ट करके संस्कृति पर कुठाराघात किया गया है । सार्वजनिक स्थानों को पहचाननते में धूम्रपान बहुत मदद किया करता था । जहां लोगनिश्चिन्त होकर चैन की सांस लेते हुए धुआं उड़ाते रहा करते थे, वह सार्वजनिक स्थान माना जाता था । जहां जितनी ज्यादा धूम्र लौ उठा करती थीं वह स्थान उतना ही बड़ा और महत्वपूर्ण होता था ।सार्वजनिक स्थल धुंए के सुरक्षित स्थान हुआ करते थे । इन स्थलों पर बैठकर एक फायदा यह भी होता था कि जो धूम्रपान नहीं करते थे वे भी बीड़ी, सिगरेट, चिलम, हुक्का आदि के धुंए का स्वाद पहचान जाते थे ।एक आदमी भागता हॉपता बस स्टेण्ड आता है । टिकिट लेने कतार में लगता है फिर सामान लेकर दौड़ते हुए बस में चढता है । बस की सीटें भरी हुई हैं । सामान सीट के नीचे लगाकर एक खाली सीट पर झपट कर बैठता है । बैठते ही चैन की सांस लेता है । जैसे ही चैन की सांस आती है वैसे ही जेब से बीड़ी का बण्डल निकाल लेता है । दूसरी जेब में माचिस ढूंढता है । फिर एक बीड़ी को मुंह में लगाकर जलाता है । पहला लम्बा कश खींचकर पास बैठे लोगों पर छोड़ता है । इस समय उसे बहुत बड़ा सुख मिल रहा है । इस सुखरूपी यज्ञ में धुंआ रूपी प्रसाद का लुत्फ दूसरे भी उठा रहे हैं । कभी वह धुंए की हवाई धारा बांए की तरफ बहाता है तो कभी दाएं हिस्से में । इस तरह बस चलने से पहले धुंआ धुंआ हो जाता है ।
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पुस्तक समीक्षा : एक उड़ान की शुरूआत: शहर की आखिरी चिड़िया : रमेश खत्री
`शहर की आखिरी चिड़िया´ कथाकार, उपन्यासकार डा। प्रकाश कान्त का पहला कहानी संंग्रह है । इसमें कुल जमा पन्द्रह कहानियांं संग्रहित है जो अपने लघु आकार के कारण पढ़ने की चुनोती देती है । मध्यप्रदेश के पिश्चमी निमाण में जन्में वरिष्ठ कथाकार डा. प्रकाश कान्त के इस कहानी संग्रह से पहले तीन उपन्यास `अब और नहीं´, `मक्तल´ और `अधूरे सूर्यो के सत्य´ प्रकाशित हो चुकें हैं। यह दिगर बात है कि प्रकाश कान्त पहले कहानीकार हैं बाद में उन्होंने उपन्यास लिखना आरम्भ किया । किन्तु कहानी संग्रह उनका बाद में आया और वह भी अन्तिका प्रकाशन के अस्तित्व में आने के साथ ।
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Sunday, February 21, 2010
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