Sunday, December 12, 2010

साहित्यदर्शन डोट कॉम का माह अक्टूबर 10 का अंक

अपनी बात : भागती ज़िन्दगी का हाथ थामे

संचार क्रांति के फलीभूत आज समय हवा होता जा रहा है, इसीके चलते साहित्य में भी आशातीत गति आई और हमारे सम्मुख साहित्य पत्रिकाओं की बाढ़ सी आ गई, उनमें छपने वाले साहित्य ने इस क्षेत्र की दशा दिशा में आधारभूत परिवर्तन कर दिया । वर्तमान के बाज़ारवाद के फलीभूत होने स्वप्न ने अपने समय के संकटों को ढोते हुए जिस शिद्दत से रचनाओं में अपनी पैठ जमाई वह काबिले तारिफ है किन्तु फिर भी वह पूरी ईमानदारी से व्यक्त नहीं हो पाया, समय की पीठ पर पड़ने वाले चाबुक की कराह को साहित्य में भली भांति पकड़ना आज भी उड़ती चिड़िया के पंख गिनने से कमतर नहीं है । जितनी चीख पुकार वर्तमान समय के खून शजर ने हमारे सम्मूख उलीची है उतनी संवेदनशीलता नहीं तभी तो हमारे आस पास बहुराष्ट्रीय का मायाजाल मंडराता नज़र आ रहा है । और हम विवश उसी के भुलावे में डूबते उतराते चले जा रहे हैं । समय रहते हमें इस तिलिस्म को तोड़ना होगा, समय से साक्षात्कार करते हुए संवेदनशीलता की तरलता को बरकरार रखते हुए वर्तमान समय की धड़कन को शब्दों की परिधि में उकेरना होगा तभी हम अपने आस पास घटते वितानों को समझ पायेंगे ।
माना विज्ञान और तकनीक ने आम जीवन रफ्तार में आमूल परिवर्तन किया विचारों के आदान प्रदान की प्रक्रिया इतनी त्वरित हो गई कि कल्पना से परे है । हमें लगता है साहित्य को भी इतनी ही गति पकड़नी होगी तब हम समय के साथ चल पायेंगे । साहित्य और केवल साहित्य ही है जो मानवता के विरोधियों को मुंहतोड़ जवाब दे सकता है और मनुष्यता का संवरक्षक और पोषक बन सकता है वह बेहतर मनुष्य बनाने की संकल्पना को प्रेरित करता है । साहित्य ही वर्तमान समय में पसरे बाज़ार रूपी दैत्य से छुटकारा दिलाने की कुंजी साबित हो सकता है ।
इन सबके बीच अक्टूबर 2010 के अंक में मनके के रूप में संजोये है विष्णु चन्द्र शर्मा की डायरी ‘त्रिलोचन और मैं’, चन्द्रकांत देवताले की कविताओं पर आपके सेवक का एक आलेख ‘बसंत देखती आंखों का सपना’,डा. वंदना जैन और डा.प्रकाश कुमार जैन का आलेख ‘बुंदेली लोकगीतों में संस्कार’साथ ही हरीप्रकाश राठी का आलेख लूट के सौदागर फैज़ल नवाज चैधरी की कहानी ‘टाइलेट पेपर’ अनवर सुहैल की कहानी डाली और पुस्तक समीक्षा में संतोष श्रीवास्तव के उपन्यास टेम्स की सरगम पर डा. प्रमीला वर्मा की समीक्षा अद्भूत प्रेम में गुंथी टेम्स की सरगम और अजय अनुरागी का व्यंग्य फटे में टांग सम्मिलीत हैं । आशा है आपको पसंद आयेगे और आप अपने महत्वपूर्ण सुझावों से अवश्य अवगत ही नहीं करायेंगे अपितु इस पत्रिका का हिस्सा भी बनेंगे । हम अपने नये अंक के साथ शीघ्र ही आपके सम्मुख उपस्थि होंगे ।

रमेश खत्री
http://www.sahityadarshan.com/Sahitya.aspx
डायरी: विष्णुचन्द्र शर्मा : त्रिलोचन एवं मैं
11.12.94

कभी कवि को अतिमानव, कभी कविता को अतिक्रांति बत्ति या शुद्ध कवितावयी बताया जाता है । युद्ध के पहले कुंभकर्ण अतिमानव लगता है और एक के बाद लगातार हारी हुई रावण की सेना की शक्ति में रावण की दूसरी पत्नी धान्यमालिनी का पवुत्र अतिकाय कविता की भूमिका सा एक अतिभ्रम या अतिरंजना है । केदारनाथ सिंह से मैं समर्थ कवि हूं- पर मैं अति मानव नहीं हूं-केदार पत्रकारिता, पुरूस्कार और पूंजीवादी विश्व के अतिमानव कवि है । मैं त्रिलोचन सा साधारण इंसान हूं, न चालाक, न मूढ़ ।

12.12.94

मेरी कविता मेरे जीवन का ही एक सांगरूपक है । वह साधारण इंसानों का उपजीव है कास, बहेड़े, लाल रंग, सुक्ता । यह अग्निवेदी है जीवन । मैं हूं अग्नि । इंद्रजीत के सामनें लक्ष्य था युद्ध । मैंने त्रिलोचन के बाद की कविता को युद्धयात्रा कहा है । पिता के उत्तराधिकार से एक युद्ध में विडंबना उपन्यास के अलाव सा लड़ रहा हूं । यही आजाद में , मेरे कवि की भूमिका है । दूसरी मां की करूणा भरे घर की कविता या नदी है । तीसरा मेरा कार्यक्षेत्र रहा है सम्पादन, राजनीतिक मोर्चा और कविता की पृथ्वी । उस समय शास्त्र ही अग्निवेदी के चारों ओर बिछाने के लिए कुश या कास के पत्ते थे । बहेड़े की लकड़ी से ही समिधा का काम लिया गया था । लाल रंग के वस्त्र उपयोग में लाये गये और उस अभिचरिक यक्ष में जो स्तुवा था, वह लोहे का बना हुआ था ।’
आदि कवि का यह सांगरूपक मेरी यात्रा का रूपक रहा है । त्रिलोचन की कतिवा मेरे लिए एक अभिचारिक यज्ञ है । स्तुवा उसकी सांस है । मेरी या शमशेर की हड्डी ही लोहे की बनी कहारी आस्था थी । जैसे नागार्जुन का गंवई रूपक था दूअ ।
आदि कवि के समय की लोकगाथा थी राम रावण युद्ध । तुलसीदास के समय का वही राम रावण युद्ध धर्मयुद्ध की फैंटेसी बन जाता है । रामराज्य के बाद वशिष्ठ राम से स्वीकार करते हैं : पौरोहित्य कर्म अति मंदा । क्योंकि रामराज्य के तत्काल बादत पौरोहित्य कर्म में मंदी आती है । क्योंकि वर्ण व्यवस्थ और अगुनहि सगुनहि का भेद मिट चला था । कचि तुलसीदास सही अपनी पहचान नये सिरे से करते हैं-कागभुसंड की कथा के रूपक में । त्रिलोचन के समय आजाद भारत का एक युद्ध था । यह प्रत्यक्ष युद्ध था । युद्ध स्थल में तीन पीढ़ियां थी ।


आलेख:रमेश खत्री:बसंत देखती आँखों का सपना
वर्तमान दौर में जब कविता के अस्तित्व पर सवाल दागे जा रहे हैं , उसे लगातार कठघरे में खड़ा किया जा रहा है और कविता को ही सवाल बनाकर जब हमारे सम्मुख टांग दिया गया हो । तब हमें कवि और उसके कविताकर्म की पड़ताल करने की आवश्यकता जान पड़ती है किन्तु जब हम इक्कीसवी सदीं की हिन्दी कविता को ठीक से समझने की कोशीश करते हैं तो हमें वर्ड्सवर्थ के इस विचार, ‘वास्तविक कवि केवल कवियों के लिये नही लिखता है, बल्कि वह मनुष्यों के लिये लिखता है ।’ को ध्यान में रखकर कवि की पड़ताल करनी होगी तभी हम कवि के कविता कर्म को बखुबी समझ सकते हैं । आदमी होने की पहचान उसके अन्दर व्याप्त प्रेम, भ्रातत्व और सहयोग जैसी भावनाओं से होती है कवि इन संवेदनाओं को भाषाई कलेवर के साथ उनके वास्तवविक रूप में कविताओं में हमारे सम्मुख उलीचता है किन्तु प्रत्येक युग की कविता का अपना स्वत्वबोध है उसके माध्यम से समय की पड़ताल कविताओं में दस्तक देती है और समय वहीं ठहर कर रह जाता है । इन्सान को इन्सान बनाने की सर्वश्रेष्ठ भावना प्रेम है किन्तु कवि के लिए यह भावना सभ्यता और संस्कृति का मूल्यांकन करने का एक आधार है इसी आधार के सहारे कवि अपनी जीवन यात्रा आरंभ करता है और एक नई सभ्यता, एक नई संस्कृति को रचने का लगातार प्रयास करता है जिसके आईने में वर्तमान सदी अपना रूप संवार सके।
पानी का दरख्त नदी में और नदी समुद्र में मिल जाती है फिर भी पूरी नहीं होती प्रेम की परिक्रमा.... क्षितिजों के पार कुछ ढूंढती ही रहती है कवियों की आँखें.....(इतनी पत्थर रोशनी)
समकालीन हिन्दी कविता के परिदृश्य में चंद्रकांत देवताले की सर्जनात्मक सक्रियता और महत्वपूर्ण उपस्थिति से हम सभी परिचित हैं अपनी लगभग पाँच दशकों की लम्बी रचनात्मक कालावधि में उन्होंने अपनी असंदिग्ध प्रामाणिकता और काव्य ऊर्जा के द्वारा कविता के ‘सत्’ को खोजने तथा पाने की ईमानदार कोशिश की और अपने समय और मनुष्य के प्रति कविता की मौलिक प्रतिबद्धता और उसके बुनियादी सरोकारों को लेकर सवाल पैदा किये । इसी के परिणाम स्वरूप देवताले की कविताओं में रचना की तेजस्विता के लक्षण हमेशा से विद्यमान रहे और आलोचना की धार को बोथरा करते रहे । वें समकालीन हिन्दी कविता के परिदृश्य में सर्जनात्मकता के बीज रौपते रहे और अपनी रचनाशीलता से हर समय में अपनी उपस्थिति लगातार दर्ज करवाते रहे । लगभग पाँच दशक से भी लम्बा उनका रचनाकाल एक ईमानदार कोशिश के रूप में उभरकर हमारे सम्मुख आता है और लगातार काव्य उर्जा को अद्र्ध देता है ।
देवताले, अपनी कविताओं में मौलिक प्रतिबद्धता और बुनियादी सरोकारों से जुझते हुए नज़़र आते हैं और एक सजग, विचारशील और विवेकपूर्ण चित्र हमारे सम्मुख उभरता जाता है जिसके सहारे हम पाँच दशक की लम्बी यात्रा करते हुए इस कालखण्ड में हुए उतार चढ़ाव को आसानी से देख सकते हैं । उनकी कविताएँ इस बात की गवाह है कि समय को उनमें किस तरह से नाथा गया है और वें उसका किस तरह से गवाह बनती है । यह अलग बात है कि कुछ लोग दुनिया में सिर्फ बहस करते हैं और कुछ लोग चुपचाप अपना काम करते रहते हैं । इस दृष्टि से देखे तो चन्द्रकान्त देवताले अपनी रचना धर्मिता को चुप चाप निभाहते रहे और समय के भाल पर कविता के हस्ताक्षर करते रहे हैं । आज वे ही कविताएँ गवाह है जो उनके पक्ष में खड़ी है ।


कहानी :फैजल नवाज़ चौधरी:टायलेट पेपर
ये अजीब संयोग है कि आज शुक्रवार और तेरह तारीख है । केलेंडर में इस तरह के मिलाप को यूरोप में घटनाओं से जाड़ा जाता है । लेकिन आज से दस साल पहले जब मैंने रेगब्यूएन में काम शुरू किया था, तब ये मिलाप मेरे लिए खुशियां लाया था । मगर इतना अर्सा गुजरने के बाद मुझे यूरोप की आबो हवा ने मानेवैज्ञानिक तौर पर इसके ज्ञर की जकड़ में ले लिया है ।
टाज हमारी सेक्रेटरी लिजे ने मुझे फोन पर बताया कि तुम्हें काम से अलग कर दिया गया है, तो मुझे केलेंडर के इस मिलाप की मनहूसियत पर यकीन आ गया ।
‘शाकिर तुम दफ्तर जरूर आना जलोहान तुम से मिलकर जरूरी बात करना चाहता है ।’
आज मैं तेजी से दफ्तर की सीढ़ियां चढ़ रहा हूं और मुझे गुस्से से खौफ आ रहा है कि कहीं आज मुझ से कोई गलती न हो जाए । इस बिल्डिंग की सीढ़ियां मैं रोज़ाना कितनी बार चढ़ता था ! लेकिन आज इन सीढ़ियों का रास्ता इतनी जल्दी तय नहीं हो रहा और मेरा जिस्म गुस्से से कांप रहा है । मैंने ज्योही दफ्तर का दरवाज़ा खोला मेरा बॉस एकदम कुर्सी से उठ खड़ा हुआ जैसे वो मेरे ही इंतिजार में था ।
लिजे ने रहस्यमय मुस्कुराहट से मेरी तरफ देखा जैसे वो मुझसे कोई बदला लेना चाहती हो । मुझे महसूस हुआ कि जैसे वो कह रही हो- सुनाओ शाकिर ! तुमने मेरी तज्वीज ठुकरा दी थी और आज तुम्हें कितनी आसानी से बाहर फेंक दिया गया ।
मैं लिजे को नज़रअंदाज करते हुए सीधा जोहान की तरफ बड़ा । मुझे गुस्से में अपनी तरफ आता देख कर ‘हाय काशिर ’ कहते हुए उसने अपना हाथ बढ़ाया, लेकिन मैंने गुस्से की वजह से उसके साथ हाथ मिलाना मुनासिब न समझा ।
जोहान कहने लगा, ‘टेक इज इजी शाकिर.....कूल डाउन ! मैं कुछ जस्री कातें करना चाहता हूं । तुम मुझे अच्छी तरह जानते हो कि तुम मेरे लिये क्या अहमियत रखते हो !’



कहानी :अनवर सुहैल:डॉली

रात ग्यारह बजे दरवाजे़ की घण्टी घनघनाई।
रहमान साहब बारह बजे के आस-पास सो पाते हैं।
उस समय रात पाली के इंचार्ज को आवष्यक निर्दष दे रहे थे। द्वितीय पाली की समाप्ति पर बॉस का फोन आता ही है। इस बीच हुए बे्रक-डाउन की जानकारी उन्हें होना चाहिए ताकि बॉस को फोन पर संतुश्ट कर सकें कि रात पाली वालों को खदान चलाने में दिक्कत न आए।
बॉस से बात हो जाने के बाद वह रात पाली के फोरमेन से एक बार फिर बात करते हैं और फिर घड़ी में पांच तीस का अलार्म आन करके सोने की कोषिष करते हैं।
रहमान साहब को आसानी से नींद नहीं आती। अपनी इस आदत से वह बड़े परेषान रहते हैं। वह बिस्तर पर लेट कर हस्बेमामूल दरूद “शरीफ पढ़ते हैं। चाहते हैं कि कम से कम सौ बार दरूद “श रीफ पढ़ लें लेकिन सौ की संख्या पूरी होते-होते कब उन्हें नींद अपनी आगोष में ले लेती वह जान नहीं पाते।
ब्लड-प्रेषर और “शुगर के कारण मिसेज रहमान की एड़ी में इधर दर्द बढ़ गया है, इसलिए वह पेन-किलर खाकर सो गई हैं। वैसे भी उनके सोने का समय फिक्स है। वह ज्यादा देर जाग नहीं पाती हैं। किसी दिन यदि उन्हें देर रात जागना पड़ जाए तो पक्का है कि अगली सुबह उन्हें कोई न कोई रोग आ घेरता है। इसीलिए रहमान साहब आर्टी-पार्टी में भी टोक दिया करते हैं कि वह जल्द जाकर सो जाएं।
मच्छरदानी से निकलकर रहमान साहब ने बरामदे की लाईट जलाई तो देखा कि सामने सूरज खड़ा है।
उन्होंने गेट खोला।
दुबले-पतले सूरज के चेहरे पर डर और चिन्ता की रेखाएं गहरे तक पैठी हुई थीं।
कल से ही सूरज ने उन्हें टेंशन में डाल रक्खा है।
रहमान साहब उसे जानते हैं। उनके बंगले के सामने ही तो खदान के पर्सनल मैनेजर वर्मा साहब का बंगला है। वर्मा साहब छुट्टियां बिताने सपरिवार बिहार गए हुए हैं।
देष में बेरोजगारी बढ़ी और कॉलोनी में चोरियां।
चोरी से बचने के लिए अधिकारीगण छुट्टी जाने पर अपने बंगले की देख-भाल के लिए चैकीदार रखते हैं।
सूरज वैसा एक युवक है।
रहमान साहब ने सवालिया निगाह के तीर छोड़े।
सूरज सकपकाया हुआ था-‘‘साहेब!’’
‘‘हां, बोल...’’
‘‘साहेब, इसमें मेरा कोई कुसूर नहीं साहेब!’’
रहमान साहब उसे घूरते रहे।
‘‘साहेब, वो कुतिया मर गई साहेब!’’
रहमान साहब सकते में आ गए-‘‘क्या बोल रहा बे, कब मर गई डॉली?’’
रहमान साहब की आंखों के आगे एक ऐसी कुतिया की तस्वीर उभरी जिसकी खाल पर से सारे बाल उड़ गए हों। ज्यादा उम्र के कारण जो काफी कमज़ोर हो गई हो। वाकई डॉली अपने ज़माने में होगी बड़ी सुंदर, लेकिन इधर उसे जाने कैसा रोग लगा था कि उसकी चमड़ी दिखाई देने लगी थी। छोटे क़द की कुतिया डॉली के पूंछ के नीचे एक फोड़ा भी हो गया था। उस फोड़े से बदबूदार पीप निकलती तो एक अजीब सी गंध वर्मा साहब के घर में छाई रहती।




आलेख : डा.वंदना जैन एवं डा.प्रकाश कुमार जैन:बुंदेली लोकगीतों में संस्कार
लोक गीत लोक जीवन से फूटे बहे अमृत के स्वर्ण निर्झर है, जिसमें पृथ्वी के प्राणों की रसगंध और आकाश की सौन्दर्य श्री का सतत गतिशील चित्र प्रतिबिम्बित है । लोकगीत जीवन में इस तरह समा गया है कि मनुष्य के जीवन को लोकगीतों से अलग कर देखना और परखना किसी भी तरह से संभव नहीं है । इन लोकगीतों की सर्वकालिक एवं सार्वभौमिक सत्ता है, अतः हम कह सकते हैं कि लोकगीतों का जन्मदाता जनमानस है ।
‘राल्फविलियम के अनुसार लोकगीत न तो पुराना होता है न नया, वह तो जंगल के एक वृक्ष के जैसा है जिसकी जड़े यूं तो दूर जमीन में धसी हुई है, परन्तु जिसतें निंरतर नई नई डालियां पल्लवित पुष्पित होती रहती है ।’
लेकगीत मानव का सहजन्मा है । अतः प्राचीनकाल से इनकी परंपरा देखने को मिलती है । वैदिक युग में भी प्रत्येक उत्सव, पर्व, त्यौंहार के अवसर पर सामाजिक गीत गाकर मनोविनोद करने की प्रथा मानव समाज की दिन चर्या के एक आवश्यक अंग के रूप में विद्यमान थी । पुत्र जन्म, यज्ञोपतिव, विवाह, द्विरागमन ‘गौना’ आदि हमारे समस्त उत्सवों के अवसर पर स्त्रीयां मधुर ध्वनि में लोकगीत गाकर अपना तथा उपस्थित अतिथियों का पर्याप्त मनोरंजन किया करती थी ।
वैदिक युग में भी इन पर्वों के अवसरों पर गीत गाये जाते थे । बाल्मीकी रामायण में राम जन्म के समय तथा श्रीमद् भागवत ‘दशमस्कंध’ में श्रीकृष्ण जन्म के अवसर पर महिलाओं द्वारा मनोरंजन गीतों के गाने का स्पष्ट वर्णन मिलता है । इतना ही नहीं मेहनत मजदूरी करने के (चक्की पीसना, धान कूटना, खेती करना, नींदना आदि) समय जिस प्रकार स्त्रियां झुंुड बांधकर गीत गाकर अपनी थकावट हल्की किया करती है, प्राचीन काल में भी ठीक इसी प्रकार होता था । लोकगीतों में भावना की सरल एवं अकृत्रिम अभिव्यक्ति के साथ ही गीत रचना विधान किया जाता है । लोकगीतों की भारतीस परंपरा के समान ही पाश्चात्य जगत में भी लोकगीतों का व्यापक प्रभाव दिखाई देता है ।
लोक गीत लोक जीवन से फूटे बहे अमृत के स्वर्ण निर्झर है, जिसमें पृथ्वी के प्राणों की रसगंध और आकाश की सौन्दर्य श्री का सतत गतिशील चित्र प्रतिबिम्बित है । लोकगीत जीवन में इस तरह समा गया है कि मनुष्य के जीवन को लोकगीतों से अलग कर देखना और परखना किसी भी तरह से संभव नहीं है । इन लोकगीतों की सर्वकालिक एवं सार्वभौमिक सत्ता है, अतः हम कह सकते हैं कि लोकगीतों का जन्मदाता जनमानस है ।
‘राल्फविलियम के अनुसार लोकगीत न तो पुराना होता है न नया, वह तो जंगल के एक वृक्ष के जैसा है जिसकी जड़े यूं तो दूर जमीन में धसी हुई है, परन्तु जिसतें निंरतर नई नई डालियां पल्लवित पुष्पित होती रहती है ।’
लेकगीत मानव का सहजन्मा है । अतः प्राचीनकाल से इनकी परंपरा देखने को मिलती है । वैदिक युग में भी प्रत्येक उत्सव, पर्व, त्यौंहार के अवसर पर सामाजिक गीत गाकर मनोविनोद करने की प्रथा मानव समाज की दिन चर्या के एक आवश्यक अंग के रूप में विद्यमान थी । पुत्र जन्म, यज्ञोपतिव, विवाह, द्विरागमन ‘गौना’ आदि हमारे समस्त उत्सवों के अवसर पर स्त्रीयां मधुर ध्वनि में लोकगीत गाकर अपना तथा उपस्थित अतिथियों का पर्याप्त मनोरंजन किया करती थी ।
वैदिक युग में भी इन पर्वों के अवसरों पर गीत गाये जाते थे । बाल्मीकी रामायण में राम जन्म के समय तथा श्रीमद् भागवत ‘दशमस्कंध’ में श्रीकृष्ण जन्म के अवसर पर महिलाओं द्वारा मनोरंजन गीतों के गाने का स्पष्ट वर्णन मिलता है । इतना ही नहीं मेहनत मजदूरी करने के (चक्की पीसना, धान कूटना, खेती करना, नींदना आदि) समय जिस प्रकार स्त्रियां झुंुड बांधकर गीत गाकर अपनी थकावट हल्की किया करती है, प्राचीन काल में भी ठीक इसी प्रकार होता था । लोकगीतों में भावना की सरल एवं अकृत्रिम अभिव्यक्ति के साथ ही गीत रचना विधान किया जाता है । लोकगीतों की भारतीस परंपरा के समान ही पाश्चात्य जगत में भी लोकगीतों का व्यापक प्रभाव दिखाई देता है ।



पुस्तक समीक्षा:डा.प्रमीला वर्मा:अद्भूत प्रेम से गुंथी -टेम्स की सरगम

‘टेम्स की सरगम’ साहित्यकर्मी संतोष श्रीवास्तव का नवीनतम उपन्यास है जिसमें लेखिका ने पूरी शिद्दत के साथ प्रेम के अनूठे रूप को प्रस्तुत किया है । यह उपन्यास प्रेम के अद्भूत स्वरूप को कुछ इस तरह रचता है कि कब दो भिन्न जातियों, संस्कृतियों, धर्मों और भाषाओं के हृदय मिलकर अलौकिक प्रेम की ऊँचाईयां छूने लगे पता ही नहीं चलता जबकि हर स्तर और हर रूप में प्रेम अपनी पूरी उदात्तता के साथ कथा में रचा बसा है । जहां एक ओर विभिन्न पत्रिकाएं प्रेम से जुड़े मुद्दों पर विशेषांक निकाल रही है वहां ‘आॅनर आॅफ किलिंग’ भी पैर पसारता जा रहा है, ऐसे में यह उपन्यास राहत का पैगाम लेकर आता है । प्रेम को पूरी तरह से परिभाषित करना कोई आसामन काम नहीं है । प्रेम गूढ़ रहस्यों से भरा है । प्रेम की अनुभूति, प्रतिति और पीउ़ा तलवार की धार पर द मसाधकर चवलने की क्रिया है । जरा सा चूके और अन्त । लेखिका ने इसे चुनौती मान पे्रम के विविध रूपों, विविध घटनाओं और विविध रंगो को विस्तृत कैनवास में फैलाकर एक बेहतरीन रूप दिया है ।
उपन्यास की कथा तीन पीढ़ियों को बुनती है जबकि समय है अंग्रेजों के शासनकाल का अंतिम चरण । जब देश में क्रान्ति की लपटें सुलग उठी थीं । एक ओर आज़ादी के इस हवन कुंड में अपनी आहुति देते शहीद थे वहीं नवजागरण भी उठान पर था और चित्रकला, संगीत, नाट्यकला के जोश से भरी युवा पीढ़ी पूरे देश को अपनी अपनी कलाओं से गुलामी की नींद से जगाने की मुहिम में जुटी थी । उन्हीं अन्तिम दशकों में ईस्ट इण्डिया कम्पनी के पदाधिकारी टॉम ब्लेयर का अपनी पत्नी डायना के साथ भारत आगमन होता है । डायना स्वभावन से कोमल और भावुक है और उसके ये दोनों गुण उसके अत्यंत खूबसूरत व्यक्तित्व को और भी अधिक आकर्षक बनाते हैं । इसके बिल्कुल विपरीत टॉम ब्लेयर हैं जो क्रूर अंग्रेज प्रशासक हैं । भारत के प्रति हेय भावना रखता है और यह मानता हे कि भारतीयों पर केवल राज किया जा सकता है जबकि डायना ऊँचे संस्कारों और विचारों वाली संभ्रांन्त घराने की एकमात्र संतान है जिसके पिता लंडन मेंं करोड़पति व्यापारी हैं । डायना भारत की धरती पर कदम रखने से पहले भारत के विषय में तमाम जानकारियां इकट्ठी कर लेती है और यही वहजह है कि भारत की संगीत और नाट्य कलाओं को वह सीखना चाहती है । भारतीय साहित्य को पढ़ने की इच्छा उसे हिन्दी, संस्कृत और बंगाली भाषाओं में पारंगत कर देती है । चूंकि टॉम का स्वभाव क्रूर है, वह दुराचारी और स्त्रीगामी है अतः डायना का प्रेम के लिए तरसता, घायल मन यदि अपने संगीत अध्यापक चंडीदास को प्यार कर बैठता है तो यह कोई अनहोनी जैसा नहीं लगता बल्कि डायना को लेकर पाठकों के मन में जो पीड़ा उपतजी है उसका निदान ही लगता है । टॉम के स्त्री विषयक विचार एक पितृसत्तात्मक समाज के है जहां नारी मात्र भोग्या है और पुरूष की कमान तमाम जीवन के पहलुओं के कसे हुए हैं । स्त्री विमर्श की अछूती पृष्ठभूमि को लेखिका ने सहजता और कथा गति में उठाया है जो सहज लगता है ।
http://www.sahityadarshan.com/View_Books.aspx?id=31

Saturday, October 2, 2010

खुशफहमियों से दूर हटने की कवायद में


देखते ही देखते दुनिया कितनी सिमट गई है और ऐसा लगता है कि काफी आगे भी निकल गई । किन्तु हम तो जहाँ थे वहीं के वहीं खड़े रह गये । मानों हमारी जड़ें जम गई हो । किन्तु मानव तो जड़ विहिन प्राणी है यदि वह अपनी जड़ें जमाने लगा तो उसमें और जड़ जगत में अन्तर क्या रह जायेगा । एक मनुष्य ही तो हैं जिसमें संवेदनाओं का संचार कुलांचे मारता और नये समाज, नये मनुष्य और नई सामाजिकता के विकास में सतत लगा रहता है । इसी के चलते हम अपने आप पास विकास की बहती गंगा के दर्शन करते हैं किन्तु विकास की प्रक्रिया में जाने अनजाने उजड़ने लगता हमारी सभ्यता और संस्कृति का तालमेल । कड़े जीवन संघर्षों , संकटों से गुजरते हुए जब हम साहित्य के सत्ता केन्द्रों की ओर देखते हैं तो हमें पराधीनता के कई द्वीप दिखाई देते हैं । जो आपस में ही टकराकर खण्डित होने को अग्रसर नज़र आते हैं । खैर ! यह एक अलग बात है ।
हम खुशफहमियों और मुगालतों में नहीं जीते, अपितु जीवन के युटोपिया से लगातार सीखने की कवायद करते हुए यथार्थ के शेष होने तक बहुस्तर पर और बहुविध तरीकों से जूझते रहते हैं । तभी आपके सम्मुख उपस्थित हो पाने का साहस जुटा पाते है । आशा है आपका रचनात्मक सहयोग भी मिलेगा ।
इस माह में आपके लिए आकर्षण का केन्द्र हैं महेश दर्पण की डायरी ‘वे दिन भी क्या दिन थे’, जसवन्त सिंह विरदी की कहानी ‘सद्भावना के पुल’, मोहन सोनी की कविताएं, अजय चतुर्वेदी ‘कक्का’ का व्यंग्य ‘हज़ारों पुरखों के पुण्य का फल है प्राईमरी की मास्टरी’ मशहूर व्यंग्यकार शरज जोशी के संग्रह ‘राग भोपाली’ की समीक्षा और पुर्नपाठ के दौरान लिये गये नोट्स के अन्तर्गत अज्ञेय के कविता संग्रह ‘हरी घास पर क्षण भर’ पर आलेख ‘जीवन राग के लिये रूके ः हरी घास पर क्षण भर’ पत्रिका की समस्त रचनाएं आपको पसन्द आयेगी ऐसी आशा है । हम पुनः मिलेगे शीघ्र ही नये अंक साथ ।


रमेश खत्री



डायरी :महेश दर्पण :वे दिन भी क्या दिन थे

डायरी लिखना मेरे लिए हर रोज़ सभव नहीं । जब जैसा बन पड़ा, अनायास लिखा । जो जैसा लगा, जो जैसा हुआ, इन सतरों में आ विराजा । प्रस्तुत है । कुछ प्ष्ठ.....


10 अगस्त,1987 सूबह 8.30 बजे
मेरा अपराध ?

यह शाम का समय था । मैं घर से निकल कर रमाकांत जी के घर की ओर जा रहा था । रास्ते में ही धीरेन्द्र का घर भी है...पर मन यही कि उधर न जाऊं । कैसी विडंबना है कि यह वही धीरेन्द्र है । किसे पता था कि यह सादतपुर आकर महेश में तब्दील हो जाएगा । मामाजी के यहां से यहां आना क्या हुआ कि मैं महेश न रहा । धीरेन्द्र के यहां न जाने का मन न होने की भी कैसी अजीब वजह बनी है । मामाजी-मामीजी की दृष्टि में शायद मैं अपराधी हूं । पर मेरी दृष्टि में....वो लोग धीरेन्द्र के यहां आकर लौट सकते हैं.....पर हमारे घर आने में बड़प्पन कुछ घट जाता है ।
मैंने कई तरह से सोचा है । पर लगता यही है कि अकल एक ही दिशा मैं दौड़ रही है । अबर अपनी ओर से कहीं कुछ गलत है ही नहीं तो फिर हम क्यों किसी से आक्रांत हों । धीरेन्द्र तो बेचारा इस रूप में बीच का मोहरा बन गया कि वह यहां आकर मेरी वजह से ही मामाजी के करीब गया और अब मामाजी यह सोचें कि वे उसके ज्यादा करीब होकर मुझे कष्ट दे सकेंगे तो यह ग़लत थोड़े ही है ।
मैं धीरेन्द्र के घर से तेजी से आगे बड़ लेंता हूं और यह एक ऐसी स्थिति है जो कभी मुझे लज्जित करती है तो कभी दृढ़ता देती है । पर आज मन टूट रहा है । धीरेन्द्र की खिड़की से छनकर आती मामाजी की आवाज़ मुझे भीतर तक परेशान कर देती है । मैं पूरी कॉलोनी का चक्कर लगाकर लौट आया हूं । मन में यही घूम रहा है कि आखिर मेरा अपराध क्या है !



कहानी :जसवन्त सिंह विरदी :सद्भावना के पुल

‘मेरे लेखक भाई ! मुझे और मेरी अम्मी को आप का सुख संदेश मिल गया है, और हम आप के शुक्रगुजार हैं........
पत्र इस तरह शुरू हुआ था, ‘मगर भाई जी, पहले मैं आपको अपने बारे में बता दूं ।’
मैंने कहा, ‘हां बताईये ।’
‘मैं मिस्त्री मेहरदीन की बेटी मेहरां हूं । मेरा यह नाम मेरे अब्बाजी ने रखा था ।’
‘बहुत अच्छा नाम है, मेरी बहन !’ मैंने कहा, ‘तुम सचमुच में मेहरां हो’......
‘मैं पचास वर्ष की हो गई हूं ।’ मेहरां ने कहा ‘मेरा जन्म देश की आज़ादी के बाद 1955 में हुआ था.....’
मैंने कल्पना में ही मेहरां की शक्ल सूरत को देखा, उसके मासूम चेहरे को भी ।
‘मगर मैंने शादी नहीं की थी ।’ मेहरां ने फिर कहा, ‘मेरा अब्बा मेरे जन्म के छह वर्ष बाद फौत हो गया था और मैंने अपनी अम्मी के लिए शादी नहीं की । मेरा भाई मुझसे चार साल छोटा है ।’
पत्र का काग़ज खत्म हो गया था, इसलिए, अन्त में नीचे लिखा हुआ था, ‘भाई जी, बाकी फिर लिखूंगी ।’
मेहरां का पत्र खत्म हो गया, मगर मेरे लिए कितने ही सवाल छोड़ गया ।
पहली, संयोग की बात यह थी कि मेहरां का अब्बा 1961 में फ़ौत हुआ था जबकि मेरा पिता मिस्त्री मीहांसिंह हमारे मोहल्ला गाबिन्दगढ, जालंधर वाले घर में 1961 की मई को अपनी अन्तिम सांसे पूरी कर गया था । रेलवे पुलों के दोनों मिस्त्री एक ही वर्ष में किसी अगले जहान में चले गये थे । क्षणभर के लिए मेरा मन उदास हो गया । मेरे मन में दूसरा सवाल यह उभरा, ‘मेहरा का छोटा भाई अब कहां है ।’
मैं कितने ही दिनों तक इंतजार करता रहा । मगर कोई सुख संदेश न आया तो मन में घबराहट होने लगी, ‘अमन अमान हो ।’
कई बार सोचा था, ‘मेहरां मेरी क्या लगती है ?’
फिर मुझे स्मरण होने लगता, मेरा पिता मिस्त्री मीहांसिंह कहा करता था, ‘बेटा ! मैं और मेहरदीनदस्तार बदल कर भाई बने हुए थे !’
मैं पूछता, ‘क्या मिस्त्री मेहरदीन दस्तार बांधता था ?’
पिता ने बताया था, ‘पहले तो नहीं बांधता था, मगर जब मैंने उसे दस्तार भेंट में दी, तो उसने बांध ली और वह मेरे लिए भी एक दस्तार खरीद कर लाया था ।’
मैं पूछता, ‘आपकी बहुत महोब्बत थी ?’
पिता कहता, ‘लोग हैरान होते थे ये तो सगे भाई दिखते हैं....’
जिस वक्त बंटवारा हुआ, मेरा पिता और मिस्त्री मेहरदीन दर्रा खैबर के क्षेत्र में लंडी कोतल के मुकाम पर एक रेल पुल बनवा रहे थे । एक तरफ का काम मेरे पिता के पास था और दूसरी तरफ से मिस्त्री मेहरदीन काम करवा रहा था । और बंटवारा हो गया ।
‘सारे लेबर मुसलमान थे ।’ मेरा पिता कहता, ‘मगर मिस्त्री मेहरदीन ने लेबर से कहा, ‘मेरे भाई मिस्त्री मीहासिंह को उसके घर जालंधर तक पहुंचाना, अल्लाह पाक की तरफ से हमारा ईमान है ।’
मैं हैरानी से बात सुनता । कभी पूछता, ‘और वो लोग आपको जालंधर तक छोड़ने आये थे ?’
‘हां ऽऽ’ पिता ने कहा तो फिर मैंने हैरानी से पछा, ‘कैसे ?’
‘सौ संकटों से गुजर कर ।’ पिता ने जैसे गौरव से बताया , ‘उनके लिए मेरी जान बहुत कीमती थी ।’
‘आप कुछ बतायें !’
‘कभी फिर....।’
उस समय मेरा बाप आंखें मूंद कर पश्चिमी पंजाब की उन सभी जगहों पर पहुंच जाता, जहां कहीं उसने रेलवे पुलों की उसारी की थी ।
कभी रोड़ी सखर ।
कभी अटक ।



कविता : मोहन सोनी


पनघट की मजबूरी


सािरता को तट की बाहों में बहना बहुत जरूरी है,
अंतर को शीतल करन, पनघट की मजबूरी हैं ।

शीतल शान्त असीमित जल में कर के कंकर आते हैं
तभी लहर के सजल काफिले, सीमा से टकराते हैं
सीमा से अकराकर लहरें ऐसे वापस जाती हैं
जैसे नया अनुभव लेकर, दुलहिन मैसे आती है
गीत कलश भरना भावों के जमघट की मजबूरी है
अंतर को शीतल करना, पनघट की मजबूरी है ।

शब्दों की नौका पर, भावों की जमात का हेरा है
स्ूरज हे उन्वान, जहां फूटे वहीं सवेरा है
प्रथम चरण सी किरण, ओस से अपनी प्यास बुझाती है
श्लेष नयन में पनिहारिन, नीत नूतन गीत रचाती है
चिन्तन को आकर्षित करना, आहट की मजबूरी है
अंतर को शीतल करना, पनघट की मजबूरी है

तीन छंद का गीत दिवस, दूसरे चरण सी दोपहरी
यूं लगता है थकी कल्पना, चलूं चलूं करती ठहरी
दिये गये अंतिम संपुट का, छन्द तीसरा शाम सा
दिन भर मेहनत करने वाले को उत्तम परिणाम सा
साहस के सन्मुख झुक जाना संकट की जमबूरी है
अंतर को शीतल करना, पनघट की मजबूरी है ।

सुबह शाम के संपुट में दोपहरी ऐसी लगती है
जैसे विरह मिलन की सीमा रेखा स्वयं दहकती है
रात कि जैसे प्रणय गीत के मधुर छंद की गहराई
कमल पांखुरी सी दुलहिन, देख चांद को सकुचाई
हृदय समप्रित कर देना, सकुचाहट की मजबूरी है
अंतर को शीतल करना पनघट की मजबूरी है ।



पुनर्पाठ के दौरान लिए गए नोट्स :रमेश खत्री :जीवन राग के लिए रूके : हरी घास पर क्षण भर



बेशक यह मानने का कोई कारण नहीं है कि काव्यरचना जैसा महीन और विशिष्ट कर्म अपने एकान्त और लगभग स्वायत्त रचनालोक में अपने समय की ऐतिहासिक प्रवृतियों और रूझानों का यथार्थपरक या और भी सघन उद्घाटन कर सकता है । इस दृष्टि से यदि सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय के कविता संग्रह ‘हरी घास पर क्षण भर’ की विवेचना करते हैं तो पाते हैं कि अज्ञेय की कविता यहां आते आते क्षण भर के लिए रूक सी गयी है । जैसे शबनम की बूंद गुलाब की पंखुड़ियों पर ठहर जाती है । किन्तु ये कविताऐ तो उससे भी आगे जाती है । इनकी लहरों से निकलता प्रकाश चहुं और फैल जाता है और जीवन के अनुभवों का प्रत्यवलोकन करने लगता है ।
दरअस्ल, ‘हरी घास पर क्षण भर’ अज्ञेय का प्रयोगवादी कविताओं का ऐसा संकलन है जो समय को फलांगता आज भी हमारे सम्मुख ‘शरणार्थी की भांति’ खड़ा दिखाई देता है । अतीत का शरणाथी जो हमें याद दिलाता है बीत समय के कंगुरों की । जीवनानुभवों की और आत्ममंथन करने को विवश करता है कि क्यों रूके हम हरी घास पर क्षण भर ही । क्यों न और अधिक समय के लिए ठहर कर रह जाये । किन्तु इसमें संग्रहित कविताओं से झरते जीवन स्रोत बहुदिशाओं की ओर इशारा करते हैं और हम उन मार्गों की तलाश में निकल पड़ते हैं । इस संग्रह की सबसे सुंदर और लंबी कविता इसी शीर्षक से है और दूसरी उतनी ही सशक्त ‘नदी के द्वीप’ शीर्षक से । इन कविताओं में अज्ञेय अपनी व्यक्तिवादी सोच के दायरों को विस्तार देते नज़र आते हैं । और नई व्यन्जनाओं की विनीर्ति करते दिखाई देते है ।
वास्तव में देखा जाये तो इस संग्रह का ध्येय शहर की बाजारू संस्कृति से उबे हुए मानव की मनःदशा को चित्रित करना भी है, जो बनावटीपन और घिसी घिसायी जीवन शैली की हदों में सिमटकर रह गया है । जीवन अलंकारों की नियोजना नहीं है अपितु आदमी के सुख का आधार उसके मन के अंह में सामाजीकता ग्रहण कर चुका है । इसी के चलते मौन की कहानी नये आयाम रच नहीं है । यहीं आकर ठिठक जाती ‘क्षण भर’ की कहानी । जिससे दो चार होते हुए इस शब्द युग्म पर विचार करने की आवश्यकता आन पड़ी है । इस बिन्दू पर विचार करने करने पर विवरणात्मकता कविता की शक्ति लगने लगती है और खास तौर पर विवरण के बिखरे हुए सूत्रों को पूष्ट करती संस्कृति और संस्कृति का इतिहास आलोचना को भेदते हैं ।
वास्तव में देखा जाये तो प्रयोगवाद और नयी कविता दो बिन्दू नहीं है अपितु एक ही सिक्के के दो पहलू हैं जो कार्य कारण श्रृंखला के रूप में उपस्थित होते हैं । प्रयोगवाद को लेकर जितनी भी बहस हुई, अज्ञेय ने ही उसे हवा दी । दरअस्ल, वे ही कविता में नवीनता, आधुनिकता और व्यक्तित्व की तटस्थता लाना चाहते थे जिससे कतिवा छायावाद की भावातिरेकता, लयबद्धता और वेयक्तिता की छाया से बाहर निकल सके । अज्ञेय के कविता में प्रयोग का आशय उसके लिए नई ज़मीन की तलाश करना था । इसीलिये उनकी रचनाएं अपने स्वरूप में विलक्षण नज़र आती है । हालांकि इस संदर्भ में कई अन्र्तविरोध भी हैं । जिनको लेकर उहा पोह की स्थिति बनी हुई है ।



व्यंग्य :अजय चतुर्वेदी ‘कक्का’:हजारों पुरखों के पुण्य का फल है प्राइमरी की मास्टरी


आज के दौर में सौ पुरखों के पुण्य जमा होने पर नौकरी और हजारों पुरखों के पुण्य जमा होते हैं तो प्राईमरी की मास्टरी मिलती है । प्राईमरी की मास्टरी यानी इन्द्र का सिंहासन । आप चाहे जो करें । स्कूल जायें न जायें, पढ़ाये न पढ़ाये । हर महीनें सरकार की छाती पर चढ़कर चार अंक में कड़ी कड़ी नोट गिनने से कोई नहीं रोक सकता । इतना ही नहीं स्कूल की कुर्सी, मेज, दरी, लालटेन सब कुछ घर उठा ले जाइए । छात्रवृति खुद चबा जाइए । बच्चों का पोषाहार गऊओं को खिलाइये । आपको कौन रोकेगा । अक्षर ब्रम्हा है और ब्रम्हा से प्रथम तादात्मय कराने वाले आप ब्रम्ह रूप ही नहीं अपितु त्रिदेवों में भी श्रेष्ठ हैं । जब ब्रम्हा की ही निन्दा एंव उसके कार्यों में हस्तक्षेप का निषेध है तो अपकी निंदा कौन करेगा । निन्दा करने वालों को छोड़िए निन्दा सुनने वाला भी नर्क का भागी बनेगा । अपनी संस्कृति में आस्था रखने वाला हर शख्स इसका ख्याल रखता है । मैं भी रखता हूं । किसी के मुंह गुरू अथवा ईश्वर की निन्दा सुनता तो तुरन्त लड़ बैठता हूं । कहीं लिखित रूप में पढ़ लिया तो लिखित रूप में ही लिखने वाले की निन्दा कर गंगा नहा लेता हूं ।
हाल ही में एक प्रतिष्ठित अखबार में पढ़ा कि आजमगढ़ जनपद के एक गांव में उपजिलाधिकारी महोदय गेहूं क्राफ्ट कटिंग के तहत गेहूं का सैम्पल लेने गये । दुर्भाग्य से सैम्पल लिए और गांव के ही एक प्राइमरी पाठशाला में पहुंच गये । विद्यालय के तीन अध्यापकों में मात्र एक को उपस्थित पाया । इस छोटी सी घटना को गुरू की मार्यादा को खूंटी पर टांग मीडिया वालों ने खबर बना हाठ लाईट कर दिया । यदि समाचारों का इतना अकाल थ तो बिना पूर्व सूचना के निरीक्षण करने गये उक्त अधिकारी की गलती को उजागर कर चटपटी खबर बना लेना चाहिए था । इतने बड़े अधिकारी को इतना तो पता होना ही चाहिए कि बड़े लोग पूर्व सूचना के साधारण ही गोपनीय कार्य भी नहीं करने जाते । तभी तो मौक पर सब कुछ टंच और टोकरी भर सम्मान पाते है । काश ये भी महाशय एक घन्टा पूर्व भी सूचनाएं दिये होते तो सारे अध्यापक उपस्थित होते । गैया भैंस चराने वाले स्कूल में बिठा लिये गये होते । बगल के जुनियर हाई स्कूल से तेज तर्रार प्राइमरी में खपने लायक दो चार बच्चे बुला लिये गये होते जो आपके प्रश्नों को जवाब दे देते साथ ही आप ढेर सारा सम्मान पाकर खुशी खुशी वापस आये होते । लेकिन आदमी को अपनी प्रतिष्ठा का खुद ही खयाल न हो तो दूसरा कर ही क्या सकता ।


पुस्तक समीक्षा :रमेश खत्री :सुनो तो :नदी कुछ कहती है


हिन्दी के प्रख्यात कवि गोविन्द माथुर का पिछले दिनों रचना प्रकाशन जयपुर से कहानी संग्रह ‘नदी कुछ कहती है’ प्रकाशित हुआ, इसमें गोविन्द माथुर की ताजातरीन कहानियां संग्रहित है जो संख्या में पन्द्रह हैं । इन कहानियों में कथाकार का एक अलग रूप में पाठकों के सम्मुख शब्दों के माध्यम से खुलता चला जाता है हम इन कहानियों के कथ्य को पकड़कर कहानिकार के मन में चल रहे भावों की थाह पा सकते हैं । कथाकार कहानियों में जीवन का सत उलीचता चलता है और उस सत के सहारे हम मानव जीवन की पड़ताल करने निकल सकते हैं और उध्र्व की ओर उन्मुख होते जाते हैं ।
समीक्ष्य संग्रह की कहानियों में हम भाषा के रूप में एक कहानीकार की अपेक्षा कवि को ही पाते हैं । जो जीवन के सहजतम फार्मूलों को चुनती है और सहजता की तलाश करते हुए काफी आगे निकल जाती है । इनसे तादात्म करते हुए हम अपनी स्मृतियों को धुंआ धुआ पाते हैं और उनमें कुछ गुनने का, बुनने का प्रयास करते हैं । इसी के चलते हमारे हाथ लगते हैं कुछ मनके जो दूर तक और देर तक हमारे साथ रहते हैं । जिसके आलोक में जीवन के सत को रेजा रेजा कर देखा जा सकता है । इन कहानियों को गढ़ते हुए गोविन्द माथुर कोई विशेष प्रयास करते हुए नजर नहीं आते अपितु कहानियां स्वतः ही अपना मार्ग चुनती चली जाती है । और अति संवेदनशील कथाकार उनकी ऊँगली थामे चुपचाप आगे बढ़ता चला जाता है, कहीं किसी तरह का शैलीगत पेच नहीं भावना की रौ में बहते हुए लिखी गई कहानियां हमारे सम्मुख खुलती जाती है ।
जब हम संग्रह की पहली ही कहानी ‘दो सांड़’ से दो चार होते हैं, तो उसमें यथार्थ की ठोस जमीन को पकड़े हुए पात्र हमारे सम्मुख उपस्थित होते हैं, इस कहानी में दंगाग्रस्त इलाके में रहने वाले विमल जी के मानसिक ग्राफ को उकेरने का कहानीकार ने प्रयास किया है और संदेह का सहारा लेते हुए वह इसकी पराकाष्ठा पर पहुंच जाता है, ‘वहीद सुनो । कल से तुम बच्चों को लेने मत आना, इन्हं मैं ही स्कूटर पर छोड़ आऊंगा व ले आऊंगा ।’ तो वहीं दूसरी ओर सीधेपन और भोलेमन का वहीद है जो विमल जी को स्तब्ध आंखों से देखता रह जाता है । यह कहानी हमें यथार्थ कठोर जमीन हमें सहजता में खींच ले जाती है और सोचने विवश करती है कि विश्वास कैसे दरका ।
मित्रता को नये आयाम देते हुए, मित्र की जुदाई को जीवन के टूटन से जोड़ने की सायास कोशिश करती कहानी ‘टुटता कुछ’ से जब हमारा साबका होता है तो हम पाते हैं कोमल विचारों की अनवरत श्रृंखला जिसमें हम पाते हैं किस तरह से पढ़ाई के दौरान की कोमल मानसिकता पर उकरे चित्र लम्बे समय तक मानस में अंकित हो जाते हैं और फिर उनकी टीस जीवन भर सालती रहती है । इस संग्रह की एक और कहानी है ‘दो पत्र’ इसमें स्त्री मन के भावनात्मक स्तर पर जुड़ाव का संुदर चित्र उकेरने का कहानीकार ने प्रयास किया है और एक ऐसी मृगमरीचिका की ओर संकेत किया है , जिसका कहीं कोई अंत नहीं है । यह कहानी स्मृतियों के ऐसे सफर की कहानी है जो सुख दुख की विरल भावनाओं को अपने पल्लु में समेटे हुए है और हमें आल्हादित करती है एकान्त के कोने अन्तरों की गीली मिट्टी में पात्रों को नये आकार में ढालती है, हालांकि ये पात्र हमारे आस पास नहीं हो सकते किन्तु फिर भी इनके बारे पढ़कर अच्छा लगता है ।

Monday, September 20, 2010

अपनी बात:जीवन चटक रंगों का केनवास


मनुष्य की स्मृति वह सागर है जिसमें बून्द बून्द जीवन रस संचयित होता रहता है और वहां बन जाती है मीठे पानी की झील, जिससे हमारा सामाजिक व्यवहार, रिश्त-नाते और तर्क वितर्क के असंख्य विन्यास पैदा होते हैं, अतीत हमारे चिंतन को संवारता है तो तर्कसंगतता और तथ्यपरकज्ञान चिंतन और विचारों को धार देती है और हम सत्य असत्य, न्याय अन्याय तथा अच्छे बूरे के दृष्टिकोण को विकसित करते है । आदमी अपने संस्कारगत आचरण के वशीभूत ही अपने दृष्टिकोण को विकसीत करता है, यह दिगर बात है कि संवेदना और सौंदर्यबोध उसे आम इन्सान से विशिष्टा की ओर ले जाने में सहायता करते हैं । आदमी के विवेक सम्मत ज्ञान को संवेदना भेदती है और महत्वकांक्षा उसमें गुणात्मक वृद्धि करती है, जब दायरों को तोड़ने की बारी आती है तो स्मृति का यही जखीरा जीवन की उलझी हुई पहेलियों को सुलझाने में मदद करता है और तब यथास्थिति के किले को भेदने की कवायद शुरू हो जाती है ।
निस्सदेह मानव मस्तिष्क अपनी संवेदनशीलता, चिंतनपरकता, कल्पनाशीलता तथा तार्किकता के तालमेल से अनुभूतियों का ऐसा वितान खींचता है जो सामाजिक धरातल पर नव आकृति का निर्माण कर सके । जिसमें चटक रंग हो मानवता के, प्रेम के और आपसी सद्भाव के । इन्हीं रंगों के तालमेल से निर्मित होती नवसंस्कृति निर्मात्री है हमारे कल की ।
बहरहाल, जुलाई 10 का अंक आपके सम्मुख है इसमें समाहित है, कथाकार लवलीन की डायरी ‘ज़िन्दगी के बरअक्स’, जीवन सिंह ठाकुर की कहानी ‘बदलते परिदृश्य’, नोबल पुरूस्कार प्राप्त पोलिश कवि चेस्लाव मिलोष की कविताएं , श्रीकांन्त चैधरी का व्यंग्य ‘धर्म का फंडा’ और एक आलोचनात्म आलेश ‘शमशेर के काव्य की मूल संवेदना’ पुस्तक समीक्षा ‘शहर की अंतरंग यात्रा का दस्तावेज : राग भोपाली ’ आशा है अंक आपके लिए पठनीय होगा, आपकी प्रतिक्रियाएं तो हमेशा की तरह मिलेगी ही ।
अगले अंक के साथ आपसे जल्दी ही भेंट होगी ।

रमेश खत्री



डायरी:लवलीन:ज़िन्दगी डायरी के बरक्स


3.4.1989

देर रात तक उपन्यास पढ़ती रही । करीब दो बज गए । अनायास ही भूख लग आई । तेजी से पेट में खालीपन महसून होने लगा । खुद पर ही हंसी आई कि इतनी रात गए कुछ बना पकाकर खाने की तव्रतर इच्छा हो रही है । बिस्किट, ब्रेड, नमकीन से ही काम चलाया जा सकता था । लेकिन कुछ पकाने की इच्छा प्रबल हो उठी । तय कि बेजीटेबल नूडल्स बनाए जाएं । गैस के ऐ बर्नर पर नूडल्स उबालने रखे । सब्जियां काटने तक मुस्कुराती रही ं सिर्फ अपने लिए इतनी मेहनत । मुझे लोगों को व्यंजन बनाकर खिलाना अच्छा लगता है । लेकिन रूटीन में सुबह शाम नियमित स्प से नाश्ता खाना बनाना अप्रिय रहा है । रूटीन से कोफ्त होती है । मित्रों सखियों रिश्तेदारों के चेहरे पर तृप्ति भरी मुस्कुराहट देखकर लगता है रसोई में की गई मेहनत का पुरस्कार मिल गया । नूडल्स अच्छे बने थे । सब्जियों और मसालों का अनुपात एकमद सही सटीक ।
खाते खाते ख़याल आया कि ज़िन्दगी भी सब्जियों और मसालों को पकाने की कला होती तो मेरी ज़िन्दगी भी ताजी खुशगवार और सुस्वादु होती । पकी हुई और डिलिशियस ! लेकिन अफसोस की ज़िन्दगी को बनाने पकाने सिझाने की कला पर मनुष्य का अख्तियार ही नहीं है । आप नियामन नहीं हो सकते । बहुत से फैक्टर काम करते हैं जिस पर आपका वश नहीं चलता । आप धनिया और टमाटर हरी मिर्च अदरक की तरह उत्प्रेरक नहीं चुन सकते । उन्हें सिझाने पकाने की आग की मियाद नहीं तय कर सकते । ज़िन्दगी तो अप्रत्याशि संयोगों, घटनाओं, दुर्घटनाओं पर निर्भर है । सब कुछ इतना निर्मम, दुर्गम, अपरिभाषेय, अमूर्त और अगम्य है । आप बस बेलगाम धारा में बह ही सकते हैं ।



आलेख:रमेश खत्री:शमशेर के काव्य की मूल संवेदना




आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने चिंतामणि में कहा है, ‘जिस प्रकार आत्मा की मुक्तावस्था ज्ञानदशा कहलाती है, उसी प्रकार हृदय की मुक्तावस्था रसदशा कहलाती है । हृदय की इसी मुक्ति साधना के लिए मनुष्य की वाणी जो शब्द विधान करती आई है, उसे ही कविता कहते हैं ।’
किन्तु शमशेर बहादुर सिंह की कविताओं के बारे में बात करने से पहले हमें अपने मस्तिष्क में यह अच्छी तरह से बैठा लेना होगा कि ‘उनकी कविताओं में दुरूहता का प्रश्न आरंभ से उठाया जाता रहा है ।’ उनकी कविताओं पर चर्चा करने वाले का यह भी अहम कर्तव्य बन जाता है कि वह उन कविताओं की दुरूहता की व्याख्या करे । और उनके शिल्प और प्रयोगों के बारे में विभिन्न कोणों से विवेचना की जाये । और इसके बरअक्स जो मिलाजुला चित्र तैयार हो वह ‘नई कविता’ और उसके नयेपन के सवालों से जूझता हो । यह निर्विवाद है, ‘शमशेर ने कविता के छनद, लय, शब्दावली सबमें बहुत से नये प्रयोग किये हैं । उन्होंने ऐसे नये प्रतीकों और बिम्बों का सृजन किया है जो कविता के अभ्यस्त पाठकों को चुनौति की तरह लग सकता है ।’ (विवेक के रंगः 68)
अक्सर यह देखा जाता है कवि की निजी अनुभूतियों का प्रभाव उसके काव्य पर पड़ता है और यह भी सही है काव्य में संवेदनाएं जितनी अधिक आन्तरिक जुड़ाव से क्रमबद्धता लिये हुए होंगी वह उतना ही जनसामान्य की अनुभतियों का वाहक बन सकेगा । कवि की रचना प्रक्रिया मेंे अपने आस पास के घटनाक्र का महŸाी योगदान होता है । समय और व्यक्ति की सोच, परिस्थितियां और उनसे जुड़ाव आदि का भी रचना पर प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रभाव पड़ता है । स्वअनुभूत घटनाएं रचना की संवेदना को गहन और विशाल बनाती है, ‘ओ मेरे घर@ ओ है मेरी पृथ्वी@सांस के एवज में तूने क्या दिया मुझे@ ओ मेरी माँ ।’ (इतने पास अपने)
शमशेर की कविताओं में संवेदानाओं के असख्य स्त्रोत उनके जीवन में घटित त्रासदियों के कारण संभव हो पाया । सर्वप्रथम उनकी जननी जन्मदायिनी मां का इस लोक से चले जाना और फिर सेवा शुश्रूषा के बाद भी पत्नी का साथ छोड़कर इस लोक से विदा हो जाना शमशेर को पूरी उम्र सालता रहा । और वे पृथ्वी में मां को लताशते रहे । उनकी खोज ता उम्र जारी रही । और वे प्रकृति के कतरे कतरे में उन्हें तलाशते रहे । यह अलग बात है कि जब वे प्रकृति से दो चार होते हैं तो उनकी कल्पना को पंख लग जाते है और प्रकृति उनकी कविताओं में नाचने लगती है, ‘धूप कोठरी के आईने में खड़ी हंस रही है@पारदर्शी धूप के पर्दे मुस्कुराते@मौन आंगन में मोम सा पीला बहुत कोमल नभ@एक मधुमक्खी हिलाकर फूल को उड़ गई. ’ (कुछ और कविताएं )


कविताएं:चेस्लाव मिलोश


(1980 में साहित्य के लिए नोबल पुरूस्कार प्राप्त पोलिश कवि, निबंधकार, अनुवादक चेस्लाव मिलेश पोलैंड की अन्तरात्मा के कवि माने जाते हैं आपकी कविता पोलैंड के राष्ट्यि जीवन में घट रही यातनापूर्ण स्थितियों और उसके प्रति संघर्ष को अभीव्यक्ति प्रदान करने वाली कविता है जो जीवन के बहुआयामी पक्ष को समाहित किये हुए है : इन कविताओं के अनुवाद है श्री हरिमोहन शर्मा संपादक )

तैयारी

अभी एक साल है तैयारी के लिए
जल्द ही काम करना शुरू करूंगा अपनी एक महत्वपूर्ण पुस्तक पर
जिसमें हमारी शताब्दि उजागर होगी-जैसा कि वह थी
सूरज अच्छे और बुरे आदमी पर उगेगा
बस’न्त और पतझड़ बिना चूके आएंगे
दलदली झुरमुट में चिड़ियां बनाएंगी घोंसला मिट्टी से
और लोमड़ियां सीखेंगी अपना कपटी स्वभाव

यह होगी विषय वस्तु और परिशिष्ट- इसी तरह सेनाएं
बर्फीले मैदानों के आर पार दौड़ेंगी, शाप देती चिल्लाती
तरह तरह की आवाजों वाले कोरस में ; टैंक की तोप सड़क किनारे बढ़ती
झुटपुटे में चलती, चजी जाती निगरानी बुर्ज और
न्ुकीली तारों वाले सैनिक कैम्प में ।

नहीं यह कल नहीं होगा- पांच या दस सालों में !
टब मांओं के बारे में ज्यादा सोचता हूं मैं
और पूछता हूं औरत से पैदा होनेवाला आदमी क्या है ?
वह संकुचित होता खुद बचाता अपना सिर
जब उसे भरी भरकम जूतों से मारी जाती है ठोकर
गोली के निशाने पर रखा जाता है, दौड़ाया जाता है
वह जलता है चमकती लौ में
एक बुलडोज़र उसे फेंक देता है खाई में
डसका बच्चा अपना टैडी बीयर लिपटाए हर्षोंल्लास में मग्न
मैंने अभी तक नहीं सीखा है कि कैसे बोलना चाहिए मुझे शान्ति से


विश्व के अंत का गीत

जिस दिन खत्म होती है दुनिया
मधुमक्खी मंडराती है तिपतिया फूल पर
मछुआरा बांधता है चमकते जाल को
समुद्र में उछलती हैं खुश खुश डॉल्फिनें
गौरेया फदकतीं रिमझिम फुहार में
और सांप की दिखती केंचुल सुनहरी

जिस दिन खत्म होती है दुनिया
औरतें गुजरती हैं खेतों के बीच से
छाते उठाए हुए
पियक्कड़ निंदासा चरागाह के किनारे
कुंजड़े लगाते हैं आवाज़ गलियों में
और पीले पाल वाली एक नाव आती है टापू के पास
हवा में लरजती है वायलिन की धुन
और गूंजती जाती तारों भरी रात में

और जिन्हें था इन्तजार
बिजली के गरजने तरजने का
वे हो जाते हैं निराश !
और जिन्हें था इन्तजार
शकुनों का या देवदूतों की तुरही का
उन्हें नहीं आता विश्वास
कि यह हो रहा है अभी, बिल्कुल अभी ।

जब तक निकलते रहते चांद और सूरज
जब तक मंडराता है भौंरा गुलाब पर
जब तक पैदा होते रहते गुलाबी शिशु
कोई नहीं करता विश्वास- कि यह हो रहा है अभी ।

सिर्फ सफेद बालों वाला एक बूढ़ा
जो शायद हुआ होता पैगम्बर
किन्तु है नहीं वह पैगम्बर क्योंकि
उसे दूसरे ढेर से काम हैं
कहता है टमाटर बटोरताः
कोई और अन्त नहीं होगा इस विश्व का
कोई और अन्त नहीं होगा इस विश्व का ।


कहानी: बदलते दृश्य: जीवन सिंह ठाकुर




कमरे की सीलन आघा फीट और ऊपर चढ गई थी । नीलिमा की खांसी और उसका दम फूलना बढ़ गया था । दिनेश अदंर ही अंदर बुरी तरह परेशान रहात कि डाक्टरों की दवाएं पता नहीं क्यों असर नही कर रही है । बार बार डाक्टरों का यह परामर्श कि ‘आप किसी बड़े विशेषज्ञ को दिखाइये ।’ दिनेश, नीलिमा से कहता, ‘वैसे कुछ खास नहीं है लेकिन बड़े डाक्टर को बता लेते हैं ।’ नीलिमा जानती थी कि बड़े डाक्टरन को दिखाने का मतलब है महिने के पन्द्रह दिन अभावों को बुलाना है । कभी वो ही टालती कि ‘रहने दो दवा तो धीरे धीरे ही असर करती है । बड़ा डाक्टर क्या कर लेगा ? दवा तो वो भी देगा । दवाओं में फर्क क्या है......?’ दिनेश जवाब देने को होता िकवह कुछ सोच के कुछ परेशान होकर चुप रह जाता.....फिर नीलिमा हरा टाविल दिनेश के हाथ में देते हुंए कहती, ‘चलो छोड़ो, जाओ हाथ मुंह धो आाओ । मैं तब तक चाय बनाती हूं ।’ दिनेश को पांच जगहों से फटे उस टॉवेल के निकलते रेशे खसकते जान पड़ते । मुंह पोछते वक्त कुछ छेद बड़े हो जाते.....टॉवेल दिखाते हुए दिनेश कहता, ‘यार नीलिमा तुम्हारा भी जवाब नहीं.....सात महिने से वह खरीदा हुआ टॉवेल पेटी में पटक रखा है, निकाल लो न ! आखिर कब तक धरे रहोगी ? क्या नये क्वार्टर में जाए बिना उसका मुहुर्त नहीं आएगा ?’ नीलिमा प्याला आगे बढ़ाते हुए कहती, ’देखो न कोई ठीक ठाक चीज़ घर में है । फिर क्वार्टर मिलेगा तो आपपड़ौसय के लाग भी बड़े लोग होगें । वहीं नया टॉवेल निकालेगें तो ठीक रहेगा ना ! क्वार्टर कभी तो मिलेगा ही । पड़ौस की भाभी बता नहीं थी.....कुछ नए मकान बन रहे हैं, कुछ खाली होने वाले हैं ।’ दिनेश खीज पड़ता, ‘बस....बस....हो रहे हैं खाली.....अपने लिए ही दुनिया के लाग लाइन लगा के खड़े हैं न !’ नीलिमा सकपका जाती फिर कुछ नहीं बोलती.....कुछ काम में लग जाती ।
चाय पीते हुए दिनेश शासकीय आवास के बारे में सोचता रहता । पिछले दिनों जब क्वार्टर खाली हुआ था तब उसे पता चला जब तक किसी खाद्य अधिकारी के परिचित को एलॉट हो गया था । उस दिन बड़ी खीझ के साथ वह कलेक्टर से मिला था । उसने हमेशा की तरह अप्लिकेशन देते हुए कहा था....‘सर क्वार्टर खाली हुआ था और आपने कहा था कि प्रायरटी....मुझे दी जाएगी ।’ कलेक्टर साहब ने आग्नेय नेत्रों से देखा तो वह सर से पांव तक सिहर गया था । लेकिन कलेक्टर ने अपनी सदाशय के पोस्टर लगा दिये......ठीक है.....मैं खुद इस केस को दूखूंगा, अबकी बार जब भी खाली होगा या नये क्वार्टर बनेगें.....आई विल बी त्रेइ टू अलॉट.....’ दिनेश ने तमाम तरह की हिम्मत जुटा कर कहा था, ‘सर ! आप तो जानते ही हैं कि मैंरे जैसे लोगों का परित्यक्ता से विवाह करके घर बार भी छूट जाता है । बहुत सी दिक्कतें हैं । हम दोनों के घर छूट गये....वहां भी घर क्या था । बस रिश्ते थे । मकान नहीं था । बस शुरूआत ही करनी थी.....शुरूआत है सर......हमारे पास कुछ भी नहीं है......फिर मुख्यमंत्री जी का बयान भी आया था कि.....वह अपना वाक्य पूरा भी नहीं कर पाया था कि बीच ही में कलेक्टर ने टोंकते हुए कहा था....‘देखो वे क्या कहते हैं, क्या करेगें इसे मुझे मत बताइये.....इस आशय के कोई आर्र्डर्स नहीं है । तुम्हें यहां कुछ कहने की आवश्यकता नहीं है । जाइसे हम देखेगें ....।’ साहब ने उसकी अर्जी पर कुछ लिखा था और कागजों के ढेर के हवाले कर दिया था । वह नमस्ते करके बाहर आयाा था । जहां काफी लोग अपनी बारी का इंतजार कर रहे थे......चाय का प्याला उसने ज़मीन पर रखकर उसने नीलिमा से पूछा, ‘शाम की टेबलेट ले ली ?’ नीलिमा ने कचवाई हुई निगाहों से देखा....दिनेश समझ गया.....। नाराजी भरे स्वर में बोला, ‘क्या यार तुम नीलिमा तुम भी....गोली तो टाइम से लिया करो वर्ना ठीक कैसे होगी ?’ नीलिमा ने बडे ही ठण्डे लहजे में कहा, ‘लेलूंगी बाबा..... कहां टाईम चला गया....गोली.....गोली....गोली ही तो खाना है खा लूगीं.....।’ दिनेश ने घुसैल निगाहों से नीलिमा को देखा लेकिन उसके चेहरे की बेचारगी के सामने सारा बलिष्ठ घुस्सा चित्त हो गया...वह मुस्कुरा पड़ा था....उस दिन दिनेश को दोपहर के वक्त युसूफ ने आकर बताया, ‘यार सिविल लाइन के दो क्वार्टर खाली हुए हैं और पांच नये क्वार्टर ज़िला प्रशासन को मिल गये हैं ।’ दिनेश को लगा कि युसूफ ने उसे दस लाख के इनाम की खबर सुनाई हो । उसने उत्साह में भर कर युसूफ को गले लगा लिया, ‘यार तुम्हारे मुंह में घीं शक्कर...अब की बार मुझे क्वार्टर मिलेगा ही । सारे अफसरों को मालूम है, कलैक्टर स्वयं जानते है और मेरी ढेरों अर्जियां वहां पड़ी है ।’ युसूफ ने उसके कंधे दबाते हुए कहा, ‘इंशा अल्लाह जरूर मिलेगा......’ दिनेश ने तत्काल आधे दिन की छुट्टी की अर्जी लिखी । युसूफ को देते हुए कहा, ‘यार बड़े बाबू को दे देना । मैं जाऊँगा तो सत्रह बात पूछेगें और बहस में देर हो जायेगी ।’ दिनेश ने जैसे दौड़ता हुआ आॅफिस से बाहर निकला । उसे पता ही नहीं चला कि आफफिस का गेट, मोटर स्टेण्ड, रेल्वे क्रासिंग, टॉकिज चैराहा कब गुजर गया । वह हांपता हुआ कलैक्टर के गेप पर था । उसने नज़रें दौड़ाई । वही शफी अहमद जमादार खड़ा था । राधेश्याम उंघता हुआ बैठा था । होमगार्ड का जवान छगनलाल दीवार से सटा खड़ा हुआ था.....शफी अहमद, दिनेश को देख कर मुस्कुराया । दिनेश को सकुन मिला कि वह उसे पहचानता है .....वह सीढ़ियां चढ़कर बरांडे में पहुंचा.....शफी से पूछा.....‘काका,.....साहब अन्दर ही हैं ?’ ......शफी ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया, ‘साहब लंच के लिए गए थे अभी लौटे नहीं हैं ।’ उसने पलटकर देखा.....पोर्च में कलैक्टर साहब की चाकलेटी कार नही थी । पोर्च खाली पड़ा था । वह वहीं पड़ी हुई बैंच पर बैठ गया । जहां से सामने का रोड़ साफ नज़र आता था । जिस पर सायकिलें, आटोरिक्श, कार, स्कूटरों का आना जाना लगा था । शफी जमादार पर्दे के पास से हटकर दिनेश के पास बैठ गया । बड़ी ही दफ्तरी विनम्रता से बोला, ‘कहिये, आज साहब से क्या काम आन पड़ा ?’ दिनेश ने शफी की तरफ देखा.....जहां रूआब से तनी लेकिन खामोश निगाहें थी । होठों पर बोलने के बाद की चुप्पी थी......‘हुऽऽऽ बात ये है कि मैं मकान के बारे में मिलने आया था....’ शफी बोला, ‘हाँऽऽऽ क्वार्टर अलाटमेंट की मीटिंग शाम को है.....ऐसी चर्चा डिप्टी कलेक्टर साहब कर रहे थे । लेकिन कलेक्टर साहब नहीं होगें होगें तब तक मीटिंग कैसे होगी ?’ दिनेश ने शफी से पूछा, ‘काका आपको पता है ?’ शफी बोला, ‘मुझे इतना तो पता नहीं है हां अन्दर साहब के पी.ए. हैं उनसे मिललो ।’ दिनेश उत्साहित हो उठा । शर्ट ठीक किया बालों पर हाथ फेरा, रूमाल से चेहरा साफ किया ।वह शफी की ओर देख कर मुस्कराया जैसे नाटक में उसकी भूमिका का क्रम आ गया हो । पर्दा हटा कर अंदर घुस गया । बड़ा हॉल जगमगाता हुआ । फिर एककमरा जहां पर्दा लटक रहा था । दिनेश ने आहिस्ते से पर्दा हटाया, टेबलपर एक तख्ती रखी थी......कुंतबिहारी.....दिनेश ने गर्दन लम्बी करके कहा, ‘मैं आई कम इन.....’ उन्होंने गर्दन झुकाए हुए ही कहा, ‘यस....’ दिनेश अंदर दाखिल हो गया और टेबलके सामने खड़ा हो गया......‘नमस्ते सर !’ कुंजबिहारी ने गर्दन उठाई......आश्चर्य से जैसे फटपड़े ‘अरे आप.....दिनेश बाबूऽऽऽ बेठिए.....आप दिनेश चंद्रपिता रमणलाल व्यवसाय शासकिय सेवा । आपने क्वार्टर के लिए आवेदन किया है, आपको शासकीय आवास चाहिए, कलेक्टर साहब ने कहा है कि प्रथम वरीयता आपको दी जाएगी.....पत्नी आपकी बीमार है ।’ कुजबिहारी एक सांस में ही बोल गए.....दिनेश को लगा, ‘वाकई उसका मामला कण्डाग्र है । कुछ बताने की जरूरत ही नहीं फिर भी उसे लगा कि कुंज बिहारी उसे नये सिरे से बोलने ही नहीं देना चाहते हैं । वह कुट आगे सोचता इसके पूर्व ही कुंज बिहारी ने बताया दिनेश बाबू अलॉटमेंट की मीटिंग साहब के आने के बाद ही होगी । वैसे भी आपका केस सभी को मालूम ही है, ‘यू डांेट वरी ’ दिनेश....ने कुंज बिहारी के अदब से हाथ जोड़े और कुर्सी से उठ गया । अच्छा चलता हूं फिर भी मेरा निवेदन है कि आप थोड़ा ख्याल रखिएगा । कुंज बिहारी मुस्करा दिये, ‘अरे यार दिनेश बाबू आप भी सरकारी कर्मचारी हैं और मैं भी....ख्याल की क्या बात है....मैंने आपकी फाइल पर बड़िया टिप्पणी लगा दी है.....’ दिनेश अंदर से अपार संतुष्ट होते हुए पुनः नमस्ते कह कर बाहर आ गया । शफी काका लोगों से घिर बतिया रहे थे । पोर्च खाली था । दिनेश सीढ़ियां उतर गया ।





पुस्तक समीक्षा:शहर की अंतरग यात्रा का दस्तावेज :रमेश खत्री



हिन्दी के प्रसिद्ध व्यंग्यकार शरद जोशी के चुनिंदा व्यंग्योंं का संग्रह विगत दिनों ना राजकलम प्रकाशन दिल्ली से ‘राग भोपाली’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ । 315 पृष्ठीय इस वृहद पुस्तक में शरद जी के महत्वपूर्ण 84 व्यंग्य लेखों का गुलदस्ता है । जो शहर भोपाल के इर्द गिर्द रचे गये थे जिन्हें संकलित किया है उनकी पुत्री नेहा शरद ने ।
इस पुस्तक में संकलित व्यंग्य आलेखों से गुजरते हुए लगता है हम दो दशक पूर्व की परिस्थितियों से गुजर रहे होते हैं । यह यात्रा ऐसे रास्तों से होकर गुजरती है जहाँ पर कई पेचों खम हैं, उन्माद की कई सीढ़ियाँ हैं, अपनत्व की कई झाकियाँ हैं, मिठास में घुले कई धोखे हैं, बिम्बों में लिपटे कई सवाल हैं और फैंटेसी में समाये कई तीर है, जो समय रहते वार करते है सीधे निशाने पर । इन सबका साबका पड़ता है इस इक्कीसवीं सदी में जहाँ पर बाज़ारवाद अपने पूरे उफान पर है और इसने अपनी गिरफ्त में हर खास औ’ आम को ले लिया है । ऐसे समय इन आलेखों में जीवन की उर्जा के दर्शन होते हैं । और अपनत्व की सौंधी महक नथुनों में भर जाती है, जिसके सहारे हम निकल पड़ते हैं भोपाल की अंतरंग गलियों की यात्रा पर । पुस्तक का पहला ही लेख ‘भोपाल रात की बाहों में’ की पहली पंक्ति हैं ‘क्या है ख़ाँ, कि यों किसी साले ने ट्रे पर सजा कर ऊपर उठा दिया हो !’ चाकू की तरह खुलता है और हमारे जे़हन में भोपाल की भोगोलिक स्थिति से रूबरू करवा देता है । वैसे भोपाल तालों का शहर है, और उसके लिये कहा जाता है, ‘ताल में ताल भोपाल ताल, बाकि सब तल्लईयाँ, रानी में रानी कमलापति, बाकि सब गध्धईयाँ ।’
जब कोई व्यंग्यकार किसी शहर को देखता है तो वह उसको किस नज़र से देखता है इसकी बानगी इस समीक्ष्य पुस्तक में देखने को मिलती है, उसकी नज़र के विभन्न पहलू यहाँ वरक वरक में बिखरे पड़े हैं, ‘स्तर अलग.अलग हैंं । तबादले के ही नहीं ऊँचे स्तर हैं, जहाँ ऊँचे काम होते हैं । प्रश्न यही है कि आप किस स्तर पर उपयोगी हैं । जिस स्तर के आप भोपाली हैं, उस स्तर के व्यक्ति दूर ज़िलों के आएँगे ।’ (गरज के मारों का तीर्थ) तो वहीं दूसरी ओर जोशीजी की नज़र भोपाल के अन्तर मन का सूक्ष्म रूप से मुआइना करती हुई दूर तक निकल जाती है, ‘न्यू मार्किट में कॉफी हाउस के इर्द.गिर्द स्पिरिट’75 की रंगीन चहल.पहल है । पुलिस परेड ग्राउंड से एम.ए.सी.टी. तक युवकों के समूह आते.जाते नज़र आते हैं । स्टेडियम पर गावस्कर, घावरी, पटौदी खेल रहे हैं । वहाँ भी भीड़ है दर्शकों की ऐसे में अपने छोटे से घर के अहाते में बैठ स्तंभ लिखना किसे अच्छा लग सकता है ।’ (इस बसन्त में भोपाल.35)
कोई व्यंग्यकार जब किसी के लिए दुआ भी करता है तो उसमें से भी व्यंग्य की बू आने लगती है, ‘हे बादल, ऐसे बरसो कि इस वर्षा में राज्य का रंग बदले, फुहार हो, जनता को फुहेरी आए और नेता की चप्पलें घिसें, टूट जाएँ ।’ (बादलों, बरसो!.50) ये किस तरह की दुआएँ हैं इसका आकलन तो पाठकों को ही करना होगा । बारीक इतनी कि अन्दर की तहों को खगाल कर बाहर निकाल दे, ‘मैंने कॉफी हाउस में एक सरकारी चमचे से जिज्ञासा व्यक्त की थी कि क्यों भई, तुम लोगों ने श्रीकांत और शानी के पहले हरिशंकर परसाई को शिखर सम्मान क्यों नहीं दिया ? वह झट से बोला, परसाई को सागर विश्व विद्यालय में चेयर मिल तो गई । ढाई हज़ार वेतन और बंगला । साल.भर का टोटल लगाओ तो, इक्कीस हज़ार से ज्यादा हो जाते हैं । अब उपर से शिखर पुरूस्कार भी दें ? वाह !’ (पुरूस्कार का गंदला जल.81)
समीक्ष्य पुस्तक में संग्रहित व्यंग्यों में आम जन जीवन की धड़कनें सुनाई देती है ।‘वैसे भी शरद जोशी तो मध्यमवर्गीय जीवन की जीजिविशा तथा महानगरीय जीवन की त्रासदी को बारीकी से उकेरने वाले चित्रकार रहे हैं । उनकी लेखनी के कई कई चित्र इस पुस्तक में बिखरे पड़े हैं कुछ बानगी देखिये, ‘मेरे नगर की वे सब हीरोइनें जो तिरछी माँग काढ़ती थीं, पहली बार जिन्होंने सैंडिल पहनने का साहस किया था, पत्रिकाएँ ऐसे पढ़ती थीं, जैसे किसी क्रान्ति में भाग ले रही हो ! वे सब अब बूढ़ी माँ के रोल में दिखाई दे रही है ।’ (कान पर रखकर क़लम निकले), या फिर, ‘सूखा पीड़ित हो, बाढ़ पीड़ित या गैस पीड़ित. आदमी का दर्द रूपये बटोरने में और बटोरा हुआ रूपया सुविधाएँ बढ़ाने के काम आता है । आदमी के दर्द से उसका कोई सरोकार नही । भोपाल में गैस पहले लिक्विड में बदली । लहर उठी और वातावरण भीग गया । अब लिक्विड या द्रव्य ठोस में बदल रहा है । एयरपोटे और कई ख़ूबसूरत सॉलिड इमारतें ।’ (पीड़ा से सुविधा तक) एक अन्य चित्र देखें, ‘बच्चों की बातों को सम्मान से कोई नहीं देखता और इसी कारण प्रायः सामने वाले को यह कहकर टाल दिया जाता है, ‘क्या बच्चों जैसी बातें कर रहे हो ?’ पर अहसाना ने मुहावरा उलट कर रख दिया कि अब मैं किसी बड़े से बात करते समय कह सकता हूँ, ‘क्या तुम बच्चों जैसी बात करना नहीं जानते ?’ (अहसाना)

Monday, August 2, 2010

अतीत की सलीब पर टंगा प्रश्न
अपनी बात अतीत के प्रेत हमेशा वर्तमान को लील जाते हैं । ठीक ऐसा ही इस उन्निदा समय में हुआ आज जब सब कुछ बिकाऊ है, आदमी की आस्था और उसका मस्तिष्क यहाँ तक की उसके अंग प्रत्यंग भी । इन सबका व्यापार तो खुले तौर पर फल फूल ही रहा है और उसमें लगा है दुनिया का उर्वर मस्तिष्क । हम अक्सर देखते आये हैं कि रसूखदार लोगों को बचाने के लिए कितने प्रपंच रचे जाते हैं, पूरी की पूरी व्यवस्था उसके इर्द गिर्द घुमने लगती है आज इसकी परत दर परत उघड़ने लगी है तो तथ्य चैकाने वाले सामने आ रहे हैं । लगभग पच्चीस वष पहले भोपाल जैसे महानगर को गैस के चैम्बर में बदल देने वाली घटना घटित हुई थी और उसं से लेकर आज तक साहित्य में इस घटना को लेकर कोई विशेष तवज्जो नहीं दी गई, जबकि साहित्यकार वामपंथ, जनवादी, सर्वहारा और ऐसे ही न जाने कैसे कैसे जुमलों का प्रयोग करते रहते हैं किन्तु उनके मन मस्तिष्क को इस हृदय विदारक घटना ने तनिक भी झकझोरा नहीं और अब जब इस घटनाक्रम कर पटाक्षेप न्यायिक रूप से भी हो गया तब भी किसी के कान में जू तक नहीं रेंगी । देश में निकलने वाली प्रमुख साहित्यि पत्रिकाएं पूरी तरह से विमुख ही रही । किसी में इससे संबद्ध कोई सामग्री नहीं दिखी । यह चैकाने वाला तथ्य है और दुखद भी ।
बहरहाल, हम अपनी चितांओं के साथ आपके सम्मुख हैं मई 10 का अंक लेकर इसमें है डा. रमेश दवे की कविताए जिन्होंने अभी ही अपने जीवन के 74 वर्ष पूर्ण किये हैं और 75 वें वर्ष में प्रवेश किया है, साथ ही मदन मोहन की कहानी ‘पाताल पानी’ और डा.रामदरश मिश्र की डायरी के अंश ‘दर्द की परछाइयाँ’ हैं साथ ही डा.कमलाकर बुधकर की पुस्तक ‘मैं हरिद्वार बोल रहा हूँ’ की समीक्षा और है ‘अज्ञेय’ के उपन्यासो के मनोवैज्ञानिक विश्लेषण पर एक आलेख आशा है सामग्री आपको पंसद आयेगी ।
रमेश खत्री


डायरी : रामदरश मिश्र : दर्द की परछाईयाँ
15/7/06

पार्क में घुमते घुमते देखा कि लगभग दस साल का एक लड़का कबाड़ का बोरा लिये हुए मंद मंद गति से आ रहा है । जहां कबाड़ी होगा, कुत्ते भूकेंगे ही । दूर से कुछ कुते भूंक रहे थे । लेकिन लड़का उनसे बेखबर चुपचाप चला आ रहा था । पार्क में जब दूसरा चक्कर ले रहा थ तबक देखा वही लड़का सामने के मकान के बाहर की सीढ़ियों पर सो गया है । पास में कबाड़ की बोरी पड़ी हुई है । रोज ही तो देखता हूं कि छोटे छोटे गंदे बच्चे कबाड़ के गंदे बोर उठासे हुए इस गली में उस गली में धूमते रहते हैं, कुते उनके पीछे पीछे भूंकते रहते हैं और वे जैसे कुत्तों के चीखने चिल्लाने के आदी हो गये हैं परस्पर हंसते बोलते चले जाते हैं, कभी कभी अपने बोरे हिलाकर कुत्तों की ओर लपकते हैं तो कुते भाग खड़े होते हैं और कुछ दूर जा कर फिर भूंकना शुरू करते हैं ।
तो वे अपनी उछल कूद में, हंसी मजाक में कितना दर्द छिपाये रहते हैं और गंदे बोरों से लदा हुआ उनका बचपन थोड़ी सी अपनी जिन्दगी जी लेने का उपाय कर लेता है किन्तु आज तो इस बच्चे को देखकर जी दहल गया । अकेला बच्चा न जाने कहां से आ रहा है, कहां जायेगा ? इसके साथ और काई बच्चा क्यों नहीं है ? और वह चलते चलते एकाएक किसी सीढ़ी के पास सो गया । यह डर भी नहीं है कि वहां कोई गाड़ी उसे कुचल जायेगी-कोई आदमी पांव से ठोकर मार देगा या कोईकुता आकर काट लेगा ।
सुबह सुबह चलते चलते वह क्यों सो गया ? क्या रात भर जगा था ? हो सकता है जगा हो । रात को खाना न मिला हो और भूख के मारे नींद न आयी हो । रात भर जागने के कारण सुबह सुबह नींद ने उसे बीच रास्ते धर दबोचा हो । हो सकता हे घर में रोटी को लेकर मां बाप से झगड़ा हुाअ हो, मारपीट हुई हो । या बाप शराबी हो पी पाकर आया हो और किसी बात पर पत्नी को पीटना शुरू कर दिया हो और बच्चे भी इस लपेट में आ गये हों ।
क्या ये बच्चे रोज रोज स्कूल जाते हुए बच्चों को नहीं देखते होंगे, साफ सुथरे कपड़े, साफ सुथरे दमकते शरीर । पीठ पर बोझ यहां ीाी लेकिन बस्ते का जिसमें किताबों के साथ साथ बढ़िया नाश्ता होता है, बढ़िया पानी होता है । चाकलेट होती है ओर सबसे बड़ी बात यह कि उसमें एक सुंदर भविष्य छिपा होता है - पैसा, पद, रूतबा, यश ....। जिन गलियों में ये बच्चे कबाड़ बटोरते हैं उन्हीं में ये स्कूली बच्चे क्रिकेट खेलते हैं ,पंतग उड़ाते हैं, स्कूटर चलाते हैं, मां बाप की अंगुलियां पकड़े हुए घूमते हैं, उत्सवों के दिनों में रंग बिरंगे सामान खरीदते हैं, दुकानों पर खेड़े होकर चाट खाते हैं, फलों के जूस पीते हैं, आइसक्रीम खाते हैं, विडियो गेम खेलते हैं, घरों में टी.वी. देखते हैं । कैसा लगता होगा यह सब देखना उन बच्चों को जो अपना और घरवालों का पेट भरने के लिए अबोध बचपन में ही सड़क पर निराश्रित फेंक दिये जाते हैं । इनकी आंखों में न कोई सुन्दर सच होंता है न सुन्दर सपना । न अपनी जमीन होती है न अपना आसमान । न वर्तमान होता है न भविष्य । बस पेट की भूख होती है और उसे तुष्ट करने के लिए पीठ पर कबाड़ की बड़ी सी बोरी । बस ऐसे ही जिन्दगी चलती रहती है और बीत जाती है । हां बड़े होकर ये भी इस परंपरा को आगे बढ़ाते हैं यानी शादी करते हैं बच्चे पैदा करते हैं और उन्हें कबाड़ की बोरियों के साथ सड़क पर छोड़ देते हैं । कोई आवश्यक नहीं कि उनके हाथ में कबाड़ की बोरियां ही हों, किसी ढाबेके या हलवाई की दुकान के ढेर सारे बरतन भी हो सकते हैं, या कुछ बड़ा होने पर रिक्शे का हैंडिल भी हो सकता है । छोटे से सिर पर किसी छोटे बड़े साहब के घर का भारी भरकम दिन हो सकता है ।


लेख :रमेश खत्री : मनोवैज्ञानिक मूल्य की कसौटी पर अज्ञेय के उपन्यास
प्रेमचन्द के परवर्ती उपन्यास साहित्य को अज्ञेय ने सर्वाधिक प्रभावित किया, उनका मौलिक दृष्टिकोण, शिल्प की नूतनता के कारण ही हिन्दी के कथाकारों में अज्ञेय का विशिष्ट स्थान है ।
पश्चिम के मनोवैज्ञानिक साहित्य से प्रभावित होकर जिस तरह जैनेन्द्र कुमार में हिन्दी उपन्यास को मनोवैज्ञानिक मोड़ दिया और मनोविश्लेषण के आधार पर जोशी ने मनोविश्लेषणवादी पुट से उसे संवारा, उसकी चरम परिणति अज्ञेय के अन्तर चेतनावादी औपन्यासिक रूप में मिलती है ।
दरअस्ल, अज्ञेय के उपन्यासों में मनोविज्ञान, चिंतन और दर्शन का सम्मिश्रण है । यहां पर चिंतन और मानव पर फ्रायडीय मनोविज्ञान का अत्यधिक प्रभाव है । इसके अन्तर्गत मान अर्हृता, भय और यौन भावना को मानव आचरण की संचालिका‘शक्ति के रूप में मानता है । यही मानव आचरण की मूल प्रेरणाएं हैं । यही उसके कर्म, चिंतन और भावना को आन्दोलित (नियन्त्रित) करती है । यदि इनका वह दमन करता है तो उसके जीवन में कुंठा ओर विकृतियां पेदा होती जाती है । इन निष्कर्षों का पाश्चात्य कथा साहित्य पर गहरा प्रभाव पड़ा । इन्ही से प्रभावित होकर अज्ञेय ने यौन भवना का उन्मूक्त और निर्बन्ध चित्रण करके अपने उपन्यास साहित्य में पात्रों की काम कुठाओं, मानसिक विकृतियों, मन में सूक्ष्म से सूक्ष्मतर स्तरों का अंकर और व्यक्तिक्त को परिचालित करने वाले अचेतन मन का विश्लेषण किया । उनके उपन्यास लेखन पर फ्रायड, एडलर, युंग जैसे मनोविज्ञान मनीषियों तथा वर्जीनिया वुल्फ, लारेन्स जेम्स ज्वायस, अल्वेयर कामू, सात्र्र, आन्द्रे, ज़ीद जैसे दार्शनिक कथाकारों के चिंतन और शिल्प का गहरा प्रभाव पड़ा है । अज्ञेय ने मानव मस्तिष्क पर पड़ने वाले संस्कारों और उससे उद्भूत विचारों की तरंगों को शब्दबद्ध करने का प्रयास किया और इसी के आलोक में मानव आचरण की व्याख्या की ।
डा.नगेन्द्र कहते है, ‘अज्ञेय जैसे एक आद्य कलाकार द्वारा फ्रायड कुछ व्यवस्थित ढंग से हिन्दी उपन्यासों में आए ।’ (विचार और विश्लेषण डा.नरेन्द्र 63)
अज्ञेय ने अपने उपन्यास साहित्य में समाज ही व्याप्त समस्याओं और गतिविधियों को स्थान न देकर मानसिक गत्थियों में जकड़े हुए व्यक्ति को ही उपजीव्य बनाया, उन्होंने व्यक्ति के मन के अन्दर झांककर उसके मन की गहराई में छिपी भावनाओं को उजागर किया है, तभी तो डा.नगेनद्र आगे कहते हैं,‘मनोगुंफों की तह में इतना गहरा घुसने वाला कलाकार हिन्दी उपन्यास ने दूसरा पैदा नहीं किया ।’ (विचार और अनुभूतिदृडा.नगेन्द 150)
‘अज्ञेय’व्यक्ति की सत्ता को सर्वोपरि मानते हैं, लेकिन व्यक्ति के लिए समाज की अवहेलना भी नहीं करते, उनका मानना है, व्यक्ति, व्यक्ति भी है और समाज का अंग भी । व्यक्ति नितांत समाज निरपेक्ष न है और न हो सकता है ।....’व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिंब भी, पुतला भी, इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिंब और पुतला है.....क्योंकि जिस परिस्थिति से वह बनता है उन्हीं को बनाता है और बदलता भी चलता है । वह निरा पुतला, निरा जीव नहीं है, वह व्यक्ति है, बुद्धि विवेक सम्पन्न व्यक्ति ।’ (आत्मनेपनददृअज्ञेयदृ71)
इसीलिए अज्ञेय के पात्र समाज से जुड़े हुए है । उनके उपन्यासों में व्यक्ति का सामान्य जीवन प्रायः अनुपस्थित ही है । उन्होंने केवल विशिष्ट व्यक्ति मानस के आन्तरिक संघर्षों को ही स्वर देने का प्रयास किया है । ज़िन्दगी की दैनिक समस्याओं और गतिविधियों की वयंजना नहीं की, वे व्यक्ति के अन्र्तमन को ही जीवन की घटनाओं का घटना स्थल मानते हैं । उन्होंने समाज से जिन विशिष्ट व्यक्ति चरित्रों का चयन किया है, उन पर असाधारणता और असामाजिकता का आरोप अक्सर लगाया जाता रहा है ।

कविता :डा.रमेश दवे
( डा.रमेश दवे के 8 जून 2010 को अपने उम्र के पचत्तरवें वर्ष में पदापर्ण करने के अवसर पर उन्हें हार्दिक शुभकामनाओ के साथ और साथ ही उनके पूर्ण स्वस्थ रहने की कामना के साथ - संपादक )

पेड़


मेरे घर के सामने
पेड़ था एक
छांवदार
काट दिया गया,
टहनी टहनी ले गए मोहल्ले वाले
पेड़ लकड़ियां हो गया,
लकड़ियां बटवारे में बदली
लकड़ियां, लाठियां हो गईं,
लाठियां मोहल्ले में फैली
मोहल्ला, आग हो गया
आग, शहर में फैली
शहर दंगा हो गया
दंगा
देश में फैला
देश नंगा हो गया ।


लोग नहीं जानते

कहा सुकरात ने
ये लोग नहीं जाने
क्यों पिला रहे हैं ज़हर मुझे
ज़्ाहर नहीं मरेगा
मरूँगा मैं !

इंसान ने कहा
ये लोग नहीं जानते
क्यों ठोक रहे हैं कीलों से मुझे
सलीब पर
सलीब नहीं मरेगा
मरूँगा मैं !

मोहम्मद ने कहा
ये लोग नहीं जानते
क्यों मार रहे हैं पत्थर मुझे
पत्थर नहीं मरेगा
मरूँगा मैं

बात सच निकली
मर चुक हैं
सुकरात, ईसा और महोम्मद
जिन्दा रह गये हैं
ज़हर, सलीब और पत्थर


मेरा ईश्वर

जो मांसाहारी
ईश्वर उनका भी
हैं जो शाकाहारी
ईश्वर उनका भी ;
जो मरते भूखे
उनका भी ईश्वर
खा खा कर बन गए
पेट, जिनके तोंद
उनका भी ईश्वर
जो करते मजदूरी
उनका भी ईश्वर
जो कुछ नहीं करते
ईश्वर उनका भी
गोया हिन्दू का ईश्वर
मुसलमान का ईश्वर
गरीब का ईश्वर
अमीर का ईश्वर
सवर्ण का ईश्वर
दलित का ईश्वर
सबके अपने अपने ईश्वर
मेरे पास नहींे था
कोई भी ईश्वर
किसी का भी ईश्वर
मैंने सोचा
होना चाहिए मेरा भी
कम से कम एकाध ईश्वर
आखिर मैंने खोज लिया
अपना ईश्वर
इसी बीच
ज्वालाओं की जीभ लपलपाती
आई एक आंधी
इतना डर गया मेरा ईश्वर
कि इसके पहले
ज्वाला जलाती उसे
उसने कर ली आत्म हत्या !


आत्माएँ आदिवासिन


वे देह थीं
देह का देवत्व
वे आत्माएँ थीं
आत्मा का परम् तत्व !
प्रगल्भ नहीं
प्रणम्य और प्रशस्त मुस्कानें थीं,
विराट के वैभव की दीप्ति रेखाएं
अस्तित्व की अनंत कथाएं
व्योम के कंपन की
मूर्त ध्वनियां
वनपस्तियों की हरितिमा से उपजा
प्रकृत रक्त
वे थीं,
न परियाँ
न अप्सराएँ
न देवियाँ
न दासियाँ
जीवित सृष्टि
वसुन्धरा का पृथ्वी तन
आकाश की शून्य भाषा
आलोक की नयन वाणी
स्मिति की चन्द्र रेखाएँ
सभ्याता की जय पराजय,
संस्कृति की आदि कथाएँ
काव्य की रस ग्रन्थियाँ
नृत्य की पूपुर ध्वनियाँ
संगीत की राग अन्तराएँ
छातियों पर पर्वत उठाती
भू लक्ष्मियाँ
प्रत्यंचा पर चढ़े तीर की नोक
धनुष की तरह देक का वक्र लोच
यौवन के उद्दाम वेग में बहती धाराएं
वृक्ष देख जिन्हें
हो जाते हरे
पुष्प खिल पड़ते अधरों की डाली पर
हो जाती हवा गंध मय चंदन
पसीने से बहती
स्वाभिमान की नदी,
टाते आगंतुक निहारने
हो जातीं संज्ञाएँ अचेत
अनुप्रास हो जाते आछे
सूर्य उगता, डूबता
जिनका त्वचा के महासमुद्र में
बादल उढ़ेल देते चषक अपने
नाच उठती धरती
जैसे बुला रही हो मोरनी
आकाश की तरह पंख फैलाये मोर को,
वे थीं
क्या थीं
वृक्ष की छाल की तरह खुरदुरी
पगथलियों में उतर आया भूगोल
हथेली पर
किलकारी मार रहा इतिहास
वे थीं
जैसे आत्मा पृथ्वी की
आदिवासिन पृथ्वी की
आदिवासी पर्वत की
आदिवासिन वनस्पतियों की
काश होती
हम सबके अन्दर भी
एक एक
आदिवासिन आत्मा


कहानी :मदन मोहन :पाताल पानी
गाँव से शहर के बीच एक दिनचर्या पूरी होती थी । कुछ चीज़ें निश्चित थीं और कुछ अनिश्चित ! पर सभी सामान्य, स्वाभाविक और बेखौफ ! शिवशंकर सीहापरके थे । सीहापार एक गाँव था । शिवशंकर सीहापार से शहर जाते थे । और शहर से सीहापार लौटते थे । जैसे सुबह केसूरज का उगना हो और शाम को डूब जाना । मगर शिवशंकर सुबह पाँच बजे उगते थे और सूरज के डूब जाने के बाद डूबते थे । शिवशंकर को पता नही था, कि उनका कोई सम्बन्ध सूरज के उगने और डूबने से है । मगर था, क्योंकि धूप उन्हें लगती थी, और रात उन्हें दीखती थी ।
सीहापार से होकर सड़क आती थी । सड़क और सीहापार के बीच एक सम्पर्क मार्ग था । सम्पर्क मार्ग के अगल बगल खेत थे । मार्ग पर मिट्टी पटी थी । मिट्टी पर घास उगी थी । घार पर चल कर ट्रेक्टर सड़क पर आता था । ट्रेक्टर के पहियों के नीचे पड़ती घास गायब हो चुकी थी । बाकी घास एक तरतीब में उगी रहती थी । ट्रेक्टर चला जाता था और घास सुरक्षित छूटती जाती थी । सम्पर्क मार्ग पर ईंटें नहीं बिछी थी । शिवशंकर को पता था कि मार्ग पर ईंट बिछेंगी । एक दिन जब वे ‘शहर से लौटेंगे तो ईंटें बिछी होंगी । और घास बिछी ईंटों की दरारों से झाँक रही होगी ।
सड़क से सीहापार के लिए जहां उतरा जाता था, वहां टिन के टुकड़े पर सफेद पेन्ट से लिखा ‘सीहापार’ लटका रहता था । उजली रात में लिखा ‘सीहापार’ दिखाई देता था । अंधेरी रात में अक्षर की जगह सफेद धब्बा दिखायी देता था । जानने वाला जानता था कि दिखता धब्बा ‘सीहापार’ है । नहीं जानने वाला सफेद धब्बे को करीब से देखकर जान जाता था कि यह कोई गांव है । अनपढ़ ही जान पाता था कि यहां कोई गांव है अनजान अनपढ़ को गांव का नाम जानने के लिए पूछना पड़ता था । अपनढ़ को दिन में भी पूछना पड़ता था । शिवशंकर ने होश सम्हालने के बाद, लिखे और लटके ‘सीहापार’ को जब पहली बार देखा था तो उन्हें अपना गांव ही लटका हुआ लगा था । उन्होंने अपने लटके हुए गांव को अचरज से देखा था । फिर धीरे धीरे देखते रहने का अभ्यास होता गया था । पढ़ाई पूरी होने के बाद वह उसी तरह उनकी दिनचर्या में शामिल हो गया था ।
शिवशंकर पढ़े लिखे थे । उन्होंने सत्रहवें साल में इण्टर किया और बीसवे साल में डिप्लोमा । चार साल बेकारी में चले गये थे । शिवशंकर चैबीस साल के थे । मगर उन्हें अपनी उम्र, पढ़ाई की उम्र और बेकारी की उम्र का पता नहीं था । इसकी जानकारी पिता को थी । शिवशंकर की पढ़ाई पिता ने करायी थी । इण्टर में साइंस और गणित में उनके नम्बर अच्छे थे । इसलिए पिता ने उनका दाखिला डिप्लोमा में कराया था । डिप्लोमा करने के बाद शिवशंकर नौकरी ढूंढने लगे थे । वे शहर में नौकरी ढूंढते थे । शहर उन्हें सुंदर लगता था । नौकरी नहीं मिल रही थी, तो भी ‘शहर से उनकी उम्मीदें बंधी हुई थीं । उम्मीदें शहर की सुन्दरता के साथ जुड़ी थीं । उन्हें लगता था जो सुन्दर है, वह सुन्दर चाहता है । नौकरी का मिलना शहर के सुन्दर चाहने के नाते हाता ।
केवल ‘शहर ही नहीं, शिवशंकर को गांव, खेत, खलिहान, फसल, ज़मीन और आकाश भी सुन्दर लगते थे । मां, बाप, भाई, बहन, पत्नी, नाते रिश्ते, गांव और शहर के लोग भी अच्छे लगते थे । नदी, पहाड़, समुद्र, झील और झरने शिवशंकर को रोमांचित करते थे ।सिहपर के पहाड़ उनके गांव सीहापार से दिखलायी पड़ते थे । गांव के ताड़ के पेड़ से वे पहाड़ी की झाड़ियों में विचरते पहाड़ी कुत्तों, बिल्लों और सांपों को देख लेते थे ।


पुस्तक समीक्षा :सुरेश मिश्र : हरिद्वार की आत्म कथा :मैं हरिद्वार बोल रहा हूँ
एक लम्बे अर्से से हिन्दी कविता, पत्रकारिता, अध्याापन एवं फोटोग्राफी से जुड़े डा.कमलकांत बुधकर की ताज़ा तरीन पुस्तक ‘मैं हरिद्वार बोल रहा हूँ’ हिन्दी में किसी शहर की आत्म कहानी सुनवाने वाली शायद यह पहली पुस्तक है, हरिद्वार हज़ारों वर्षों से इस देश के बहु संख्यक हिन्दु समाज के लिए, परिवार में बालक के जन्म से लेकर, घर में किसी की मृत्यु या किसी तीज त्यौंहार पर सबसे पहले याद आने वाला शहर है । यह एक ऐसा ‘शहर है जिस का बचपना तो गुज़रा था एक विरान सुनसान से जंगल में जहाँ किसी शिवालिक की गुड़िया पहाड़ियों के बीच से बल बल करके बहने वाली पवित्र गंगा नदी की धारा होती थी या उसके आस पास कहीं किसी तपस्या में लीन ऋषि मुनि का आश्रम । बाकी सब जंगल ही जंगल होता था । लेकिन, कालान्तर में जिसने अपने पौराणिक एवं ऐतिहासिक घटनाओंे कथा प्रसंगों के केन्द्र के रूप में उभरकर इस महादेश के जन मानलस में अपनी एक खास ध्वनि निर्मित की और उस छवि के सहारे आगे बढ़कर आज वह भारत के मानचित्र पर न केवल देश का एक शीर्ष धार्मिक स्थान है बल्कि अनेक उच्च शैक्षणिक, सांस्कृतिक, औद्योगिक एवं व्यावसायिक गति विधियों/प्रतिष्ठानों का केन्द्र बन कर उभर रहा है । खासकर अपने कुंभ या अद्र्ध कुंभ जैसे अति विराट मानव मेलों के कारण वह पूरे विश्व के लोगों के लिए आकर्षण एवं पर्यटन का बिन्दु बन गया है ।
‘मैं हरिद्वार बोल रहा हूँ’ पुस्तक एक शहर की आतम कहानी के कारण उसके बारे में, अपने पाठकों के समक्ष सूचनाओं का ख़जाना तो खोलती ही है साथ ही ‘मैं’ ‘शैली में लिखी होने से काफी हद तक वह पाठक को अपने साथ बाँध कर रखती है । इसी के साथ लेखक ने बड़ी मेहनत से पुरी पुस्तक हरिद्वार के बीते हुए कल तथा उसके आज के चेहरों को दर्शाते वाले अनेक दुर्लभ चित्रों से सजाया हुआ है । जिससे पुस्तक न केवल पठनीय बल्कि दर्शनीय एवं संग्रहणीय हो गई है ।
हरिद्वार के बारे में लेखक द्वारा दी गई सारी सूचनाएं उसके विस्तृत एवं गहन अध्ययन अनुसंधान की सूचक है और पुस्तक पढ़कर ऐसा लगता है जैसे उसे लिखने से पहले कई वर्षों तक लेख कइस पुस्तक की विषय सामग्री को ही ओढ़ता बिछाता रहा था ।
2010 के कुंभ मेले के अवसर पर प्रकाशित इस पुस्तक ने निश्चह ही हरिद्वार के बारे में जिज्ञासु धार्मिक पर्यटकों को अपनी ओर आकर्षित किया होगा, अलबत्ता ऊँचे मूल्य, नयनाभिराम ‘गेटप’ वाली इस ज्ञान वद्धिका पुस्तक में कहीं कहीं प्रूफ संबंधी गललियाँ रह गई है जिन्हें अब इस पुस्तक के दूसरे जन्म में ही सुधारा जा सकता है ।
कुल मिलाकर, हिन्दी में ऐसा प्रथम प्रयास करने के लिए डा.बुधकर को बधाई दी जानी चाहिए ।

मैं हरिद्वार बोल रहा हूँ /डा.कमलकांत बुधकर/हिन्दी साहित्य निकेतन, बिजनौर/मूल्य 395


Tuesday, June 15, 2010

साहित्यदर्शन डोट कॉम का अप्रेल अंक

बाज़ारवाद के सम्मुख एक पहल

आज जब हम लोक लुभावन नारों के साथ बाज़ार के बीचों बीच खड़े हैं और हमारे आप पास लोभवृति का बाहुल्य फैलता जा रहा है जिससे हमारे समाज में एक ऐसी सभ्यता का निर्माण हो रहा है जिसे महाकवि निराला ने ‘पर स्वहारिणी’ सभ्यता कहा था । यह पर स्वहारिणी सभ्यता वर्तमान के भूमंडलीकरण के दौर में आम आदमी की मौलिक स्वतंत्रताओं का लगातार अपहरण करती जा रही है । इससे हम किस तरह से निजात पाएं यह भी हमें ही सोचना होगा ।
घोर बाज़ारीकरण के इस दौर में भाई मायामृग ने क़माल दिखाया और पुस्तक पर्व में रूप में देश के प्रकाशकों को एक नई दिशा देने का प्रयास किया । विगत दिनों पुस्तक पर्व के तहत पहले सेट का विमोचन जयपुर में हुआ इसमें कविता, कहानी और विविध रचनाओं की दस पुस्तकें मात्र सौ रूपयों में उपलब्ध करवाई गई यानि कि एक पुस्तक का मूल्य मात्र दस रूपये । जो संभवतः एक सिगरेट के पैकेट से भी कम है । कविता पुस्तकों में, जहांँ उजाले की रेखा खिंची है दृनंद चतुर्वेदी, भीगे डेनों वाला गरूणदृ विजेन्द्र, आकाश की जात बता भइयादृ चन्द्रकांत देवताले, प्रपंच सार सुबोधिनीदृ हेमन्त शेष की हैं तो कहानियों में, आठ कहानियाँदृ महिप सिंह, गुटनाइट इंडियादृ प्रमोद कुमार शर्मा, घग्घर नदी के टापूदृ सुरेन्द्र सुन्दरम् हैं और विविध के अन्तर्गत कुछ इधर की कुछ उधर की(संस्मरण) डा. हेतु भारद्वाज, जब समय दोहरा रहा हो इतिहास (विविध) नासिरा शर्मा और तारिख की खंजड़ी (डायरी) डा. सत्यनारायण की पुस्तकें है । इस उम्दा साहित्य के प्रथम सेट को हर कोई अपने संग्रह में रखना चाहेगा । साहित्यदर्शन परिवार भाई मायामृग को इस महत्वपूर्ण उपलब्धि पर साघुवाद देता है और उनकी आगामी योजना की सफलता कामना करता है ।
इस अंक में हैं स्व. मंजू अरूण की कविताएं, संतोष श्रीवास्तव की कहानी नागफनियों के बीच और शमशेर बहादुर सिंह की डायरी के पन्ने जो आपको जरूर पसन्द आयेंगे ।
रमेश खत्री
http://www.sahityadarshan.com/Sahitya.aspx

डायरी :शमशेर बहादुर सिंह : डायरी के पन्ने

स्कूल की क्लासे ड्रामे के पात्रों की सूरत में अपनी जरूरी तरतीब और मुकाम से खड़ी हो जाए, और सबक, जो कि ड्रामा है, खेला जाए चाहे सबक भाषा और साहित्य का हो, चाहे भूगोल और इतिहास का, चाहे गणित के विभिन्न रूपों में से किसी का, चाहे विज्ञान का, चाहे कला, चाहे राजनीति या अर्थशास्त्र का, चाहे धर्म का ।
हैं तो हमारे नेताओं के पास साधन फिल्म, बैले, नाच, ‘जादू’ के भी तमाशे और क्या चाहिए ; क्यों नहीं उठा देते दुनिया के अवाम का स्तर, क्यों नहीं उसके दिलों दिमाग में बसा देते ‘नयी दुनिया’ का सच्चा रूपः क्यों नहीं खुराफ़ात से उनका दिल फेर देते, उन्हें अच्छा इन्सान बना देते ?
मगर बनाए कौन ? बनाने वाला तो कलाकार होना चाहिए ।
कलाकार तो ज़हर के घूंट पी कर ज़िन्दा रहता हैः आज वही कुछ वह दूसरों को भी पीने के लिए दे सकता है, और कुछ नहीं ।

18/2/1963

जो शख्स बेवकूफ हो, ‘मूर्ख’ हो, ‘निरीह’ हो....उससे मोहब्बत करना क्या वाकई मुमकिन है ? क्या यह सही नहीं कि उसके लिए सिर्फ हमदर्दी या एक दीदी की या मां की ममता रखना ही ज्यादा सहज होगा ?
जिय पर विश्वास मामूली मामूली कार्यों के सिलसिजे में भी न रखा जा सके, उसके साथ महोब्बत का जज़्बा.....रखना.....!?
रियायत
रियायत करना भी एक चीज़ है ।
मैं कि महज एक पृष्ठभूमि हूं, एक ‘तकिया’ - सूफियों का सा ? कुछ नहीं हूं ।
- तो फिर मेरी नज़्में भी कुछ नहीं है ।
ऐसे आदमी की नज़्में क्यो होंगी ?
एसा आदमी क्या !!

22/2/1963

और ‘फे......’ ने अपने इदारिया (सम्पादकीय) में तमामतर मेरे खत का एक हिस्सा क्यों डाल दिया और कहीं उसका एतराफ (स्वीकृति) भी नहीं ः किसी सूरत नहीं ?
क्या ऐसा नहीं किया जा सकता था ? कि आप इदारिया के नीचे ब्रेकेट में ये चन्द अल्फाज जोड़ देते, ‘एक आधुनिक हिन्दी कवि के पत्र से ’ !
इदारिया, अर्थात आमुख पृष्ठ ही नहीं ; एक और स्वतंत्र रचना भी, ‘डायरी का एक पृष्ठ@उ.प.’ , लगता है बिल्कुल जैसे मेरे शब्द हों- बिलकुल मेरे शब्द ।
यह क्या माजरा है । कहीं मुझे ढूंढना होगा क्या अपनी डायरी में इसका मूल ?
और क्या इसीलिए मेरे पास यह अंक नहीं आया अभी तक....। इस विलम्ब के पीछे यह ‘मुजरिम की कचोट.... तो नहीं ?’
अजब बात है । है, ना ?

http://www.sahityadarshan.com/Diary.aspx


कविता : मंजु अरूण

एक औरत

एक औरत
चाहे तो बन सकती है
फूल, लता, तरू और
समय पड़े तो जंगल भी

एक औरत
चाहे तो बन सकती है
नदी, निर्झर, ताल और
समय पड़े तो आंधी बरसात भी

एक औरत
चाहे तो बन सकती है
धरती, आकाश, पाताल और
समय पड़े तो पूरा ब्रह्मांड भी

एक औरत
चाहे तो बन सकती है
दूर्गा, चण्डी, ज्वाला और
समय पड़े तो महाकाली, महाविकराली भी

एक औरत
मगर लाख चाहे तब भी
बन नहीं पाती कभी एक पुरूष
एक पूर्ण पुरूष

http://www.sahityadarshan.com/Poems.aspx

पुनर्पाठ के दौरान लिए गए नोट्स : रमेश खत्री : अज्ञेय की कथा नारी

समाज में ऐसे व्यक्तियों की कमी नहीं है, जो अपनी अभिलाषाओं को जो किसी कारण साकार न हो सही हो उसे कल्पना जगत में साकार करने का प्रयास करते हैं । शायद इसीलिये उनका स्वभाव अन्र्तमुखी हो जाता है । वे भले बहिर्मुखी होने का प्रयास भी करते हो पर अपने आपको ऐसा बना पाने में समर्थ नहीं हो पाते । अज्ञेय ने भी ऐसे ही नारी चरित्रों को अपने उपन्यासों के प्रश्रय दिया, जिनके अचेतन मन में दमित अभिलाषाओं की ज्वाला धधकती रहती है । वे इस ज्वाला का शमन करना चाहती हैं और करती भी हैं ।
नारी और तद्विषयक समस्याएं अज्ञेय के प्रायः सभी उपन्यासों में प्रमुख रूप से चित्रित हुई है । उन्होंने नारी के अन्र्तमन में झांकने का और उसकी अन्तःपरतों को उघाड़ने का प्रयास किया है । इसी के तादात्म में युगीन संदर्भ में नारी संबंधी नैतिकता.अनैतिकता, प्रेम.विवाह, यौन.स्वातंत्र्य आदि प्रश्नों को उठाकर नए नारी मूल्यों की स्थापना की जो उसके जीवन की सार्थकता, उसके व्यक्तित्व विकास, उसकी पूर्णता, आत्म.तुष्टि में सहायक बने । उनकी नारी पत्नीत्व की अपेक्षा नारीत्व, विवाह की अपेक्षा प्रेम और समाज की अपेक्षा व्यक्ति की महŸाा को मानते हुए परम्परागत सामाजिक मान मर्यादाओं की स्पष्ट रूप से अवहेलना करती है ।
अज्ञेय के साहित्य में नारी पूर्ण स्वतंत्रता की हिमायती दिखायी देती है । अज्ञेय नारी को मात्र नारी ही मानते हैं उसे नाते रिश्ते में समेटने को वे कतई तैयार नहीं । उनपके कथा साहित्य में नारी का व्यक्तित्व और अस्तित्व ही प्रमुख है, उन्होंने युगीन चेतना से संपृक्त ऐसी सजग और प्रबृद्ध नारी का अवतारणा की जो सतत नारीत्व की प्राप्ति मेकं संलग्न रहती है । नारी के व्यक्तित्व विकास में बाधक समाज सम्मत गतानुगति नैतिकमान मूल्य, परम्पराएं, धारणाएं और विधि निषेध उनकी दृष्टि में मूल्यहीन हैं । समाज व्यक्ति के निजी जीवन का निर्णायक नहीं है, इसलिए समाज का हस्तक्षेप अवांछनिय है । इससे उसके व्यक्तित्व विकास में बाधा पड़ती है । ‘शेखरः एक जीवनी’ में रेखा के माध्यम से वे कहते हैं, ‘मेरे कर्म का, सामाजिक व्यवहार का नियमन समाज करे, ठीक है, मेरे अंतरंग जीवन का दृनहीं । वह मेरा है । मेरा यानि हर व्यक्ति का निजी ।’
नेमीचन्द्र जैन का कहना है, ‘रेखा जैसी नारी हिन्दी कथा साहित्य में दूसरी नहीं है, वह हमारे आज के समाज के ‘अमानवीय नीति विधान के विरूद्ध तीखे किन्तु ऊपर से शान्त विद्रोह की मुर्ति है ।’ रेखा को पुरूष से कटुता मिली और समाज के नीति विधान से कष्ट ।’
दरअस्ल, अज्ञेय की स्त्री पुरूष में अपनी सार्थकता खोजती है, यथा -
‘एक बार मैंने मान से कहा था, क्या मेरे लिए लिख सकते हो.....यह दावा नहीं था कि मैं तुम्हारे जीवन का अर्थ और इति हूँ । अपने को अंत मानने का दुःसाहस मैंने नहीं किया......।’ (नदी के द्वीप)
‘मेरे लिए यह समूचा श्रीमतीत्व मिथ्या है, कि मैं तुम्हारी हूँ केवल तुम्हारी, तुम्हारी ही हुई हूँ....तुम्हीं मेरे गर्व हो, तुम्हारे ही स्पर्श से ‘सबल मम देह मन वीणा तन बाजे....।’ (नदी के द्वीव)
‘किसी तरह, कुछ भी करके, अपने को उत्सर्ग करके आपके ये घाव भर सकती तो अपने जीवन को सफल मानती ।’ (गौरा.नदी के द्वीप)
उपरोक्त दृष्टान्तों से स्पष्ट है कि अज्ञेय की नारी प्रकल्पना उसे पूर्ण स्वतंत्रता से मंडित नहीं करती । उसमें पुरूष मोह है, जो स्त्री को सदैव आश्रित (मानसिक संसार में तो अवश्य) देखना चाहता है । इतना अवश्य है, अज्ञेय ने नारी को ‘नैतिक रूढ़ियों’ के बंधन से, परम्परागत संस्कारों की बाध्यता से अवश्य मुक्त किया है । उनके रचना संसार में स्त्रीयाँ ‘साइमन द बुआ’ की शब्दावली में ‘सत्त आस्था में जीने वाली ही हैं , उनकी चरितार्थता का केन्द्र पुरूष ही है, पर हाँ इतना जरूर है िकवे भारतीय समाज की स्त्री को स्वतंत्रता के निकट लाते हैं और देशकाल की अग्रगामी चेतना को प्रकट करते हैं ।


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कहानी :संतोष श्रीवास्तव : नागफनियों के बीच

न जाने वह कौन सा संक्रंाति काल था जब कुमुद की मेडिकल की पढ़ाई समाप्त हुई थी और अमेरिका से कार्तिक भैया ने उसके और मां के लिये विजा, पासपोर्ट और हवाई टिकटों का इंतजान कर दिया था । बरसों से इंतजार करती मां का चेहरा दमक उठा था, ‘देर से ही सही अब हम नहीं रहेंगे यहां....वहां तुम अपना क्लीनिक खोलना और सुख और ‘शान्ति से भरी जिन्गदी जीना.....बहुत सहा हमने....बहुत ज्यादा...’
वह कहना चाहती थी, ‘क्यों मां तुम मुझे सागर में बूंद भर बनाना चाहती हो । क्यों चाहती हो कि मैं अपने टैलेंट को, अपने हुनर को यूं जाया कर दूं.....पर असमंजस में कुछ कह नहीं पाई ।’ इधर तो सब खत्म हो ही चुका है। पिछले महीने भैया ने आकर मकान बेचने की लिखा पढ़ी भी कर ली है, घर का फालतू सामान भी बेच दिया है। थोड़ा जरूरी सामान वो अपने सााि ले गये.....थोड़ा मां को लाने को कहा, ‘और जो बचे सब बेच कर आना, उधर इस सबकी जरूरत नहीं ।’
जरूरत होगी भी क्यों ? ये सब तो पापा के समय का वह आउट डेटेड सामन है जो अमेरिका जैसे भौतिक समृद्धिशाली महादेश में खपेगा नहीं । वह क्या जानती नहीं कि ‘वहां अपार्टमेंट होते हैं, वॉल टू वॉल कार्पेटिंग होती है । दीवारों पर तीज त्योंहारों परिचय देता रंग रोगन नहीं बल्कि पेपर चिपका होता है । तरह तरह कीआधुनिक सुविधाएं, कपड़े और बर्तन धोने की मशीन, माइक्रोवेव, बड़ा फ्रिज, कुकिंग रेंज, सोड़ा बनाने की मशीन, बॉटल खोलने की मशीन....इनके बीच फंसा आदमी भी एक मशीन.....नलों से निकल कर पानी की धार नीचे न जाकर ऊपर जाती है, लैफ्ट हैंड ड्ाइविंग है, घरेलू नौकर ढूंढे नहीं मिलेंगे, ‘भैया आखि क्यों तुम इतने प्रभावित हो वहां से ?’
‘क्या मां मीरा बाई पैदा करी है तुमने । लोग उस देश के सपने देखते देखते जिन्दगी गुजार देते हैं और इसे आसानी से मिल रहा है तो इतने नखरे !’
भैया के कड़वे वचन उसे कुरेदते नहीं बल्कि तरह आता है, भैया की सोच पर, मां की लालसा पर...कैसी आसान से पापा के बाद घर सहित उनकी सारी गृहस्थी बेच डाली है । पर मां का भी दोष नहीं । एक तो वे महत्वाकांक्षी महिला रहीं है, जो वे करना चाहती थी कर नहीं पाई । असफलता हमेशा उनका आंचन थामे रही, दूसरे पापा असमय चले गये और उनके जाने के बाद वे असहाय निरूपाय हो गई हैं । किसी ने उनकी पढ़ा नहीं बांटी, सब रो धोकर तेरह दिनों में लौट गये और चुप्पी साध ली जबकि जिन्दगी भर पापा की और से न तो कभी जायदाद में हिस्सा मांगा गया न किसी तरह की कोई सहायता । बल्कि पापा ही बुआओं की शादी में रूपया लेकर गये । चाचाओं की लिए भी नौकरी वगैरह की भागदौड़ की । पापा की सीमित गृहस्थी लेकिन असीमित आपसी लगाव । घर का हर कमरा हंयी, ठिठोली, प्यार, मनुहार से भरा होता । रात के खाने के समय का एक बड़ा हिस्सा उन चारो के ज्ञान को आपस में बांटने वाला होता । उस हिस्से से ही बड़ी शक्ति पाई है उसने हर तरह की परिस्थितियों से मुकाबला करने की, जझते रहने की । समय को हमेशा चुनौती माना उसने और इस तरह बड़ी उर्जा अर्जित करती रही वह । स्वभाव पापा का पाया...फकीरी...हर तरह से निर्लिप्त, लेकिन कार्तिक भैया हूबहू मां पर...इच्छा आकांक्षाओं का अंत नहीं । यह मानकर चलना कि यहां उनके टैलेंट की सही कीमत नहीं आंकी जायेगी सो विदेश प्रस्थान । ठीक उन्हीं क्षणों में वभी भी ठान बैठी कि मैडिकल की पढ़ाई के बाद यहीं अपने देश में...किसी पिछड़े इलाके में जाकर अपनी पढ़ाई को सार्थक करेगी । लेकिन यह बात उसने सभी से गुप्त रखी । हालांकि उसके फकीराना स्वभाव से परिचित मां अक्सर टहोका मारती, ‘न जाने कहां की संन्यासिनी आ गई हमारे घर में’ तो पापा हंसकर कहते, ‘तुम्हीं बहुत प्रभावित रहीं इस्कॉन से....और जाओ हरे रामा हरे कृष्णा मंदिर जहां मिस लारा भी ललिता बनकर गेरूआ साड़ी ब्लाउज पहने पीले बटुवे में अपना हाथा घुसाये हरे कृष्णा, हरे कृष्णा जपती हैं ।’


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पुस्तक समीक्षा : रमेश खत्री : एक अच्छा गाईड : राजस्थान में भ्रमण


राज्यों के पुर्नगठन की उहापोह में राजस्थान देश के सबसे बड़े भूभाग वाला राज्य बन गया, इसमें जहॉ एक ओर सांस्कृतिक विभिन्नता मिलती है तो वहीं दूसरी ओर बातचीत के लहजे में भाषा के स्तर पर काफी अंतर दिखाई पड़ता है कबीर के कथन - ‘‘ कोस कोस पर पानी बदले चार कोस पर बानी ’’ को साकार करते हुए इस प्रदेश ने राष्ट्ीय स्तर पर ही नहीं अपितु अन्र्तराष्ट्ीय स्तर भी अपनी विषेश पहचान बना ली है, देश के सबसे बड़े राज्य राजस्थान के विशाल भूभाग की भौगोलिक विविधता अदभूत है, जहॉ एक तरफ सूदुर पश्चिम मेंे रेत के धोरों का साम्राज्य पसरा पड़ा ह,ै जिसमें रेत के टीबों के बीच से निकलता अस्त होता सूर्य मन को मोह लेता ह,ै तो वहीं दूसरी ओर अरावली की पर्वत श्रृंखला राजस्थान के मस्तक का ताज है, किन्तुं दक्षिण का भाग प्राकृतिक दृश्यों से सराबोर है, हरी भरी पहाड़ियां, उन्नत शिखर, प्रपात, नदियों के संगम मनोहारी दृश्य उत्पन्न करते हैं । राज्य का पूर्वी भाग पहाड़ी, मैदानी इलाका है जिसका अपना अलग ऐतिहासिक महत्व है । कुल मिलाकर राजस्थान पर्यटन की दृष्टि से अपनी अलग ही पहचान रखता है ‘‘अतिथि देवो भव’’ और ‘‘पधारों म्हारा देस’’ की परम्परा का निर्वहन करता राजस्थान पर्यटन के मानचित्र में उभरता सितारा ही नहीं वरन एक प्रचण्ड सूर्य है । पर्यटन की दृष्टि को ध्यान में रखकर विगत दिनों वांड्.मय प्रकाशन जयपुर से बालकृष्ण राव द्वारा विरचित पुस्तक ‘‘राजस्थान में भ्रमण’’ प्रकाशित हुई ।

दरअस्ल राजस्थान में भ्रमण का विशाल क्षैत्र है, यहॉं की भूमि का एक एक कण गौरवमयी गाथाओं, शौर्यमयी कृत्यों, कलात्मक शिल्पों का अनुपम संग्रह है । यहॉं का सांस्कृतिक परिवेश जिनमंे स्थानीय मेलें, उत्सव, समारोह मन पर विशेष छाप छोड़ते हैं । यहॉं की मिट्टी में अपनेपन की गंध समाहित है इसी कारण देसी विदेशी पर्यटक आकर्षित होता चला आता है ।

समीक्ष्य पुस्तक ‘‘राजस्थान में भ्रमण’’ बालकृष्ण राव की पर्यटन पर पहली ही पुस्तक है, इससे पहले उनकी ‘‘भारतीय संस्कृति के संदर्भ कोष’’ प्रकाशित हुई थी । राव ने समीक्ष्य पुस्तक में हिन्दी मेंे पर्यटन संबंधी इतनी अच्छी जानकारी उपलब्ध करवा कर पाठकों की राजस्थान के प्रति गहरी दिलचस्पी जागृत करने की कोशिश की है ।
राजस्थान वस्तुतः रंग रंगीला प्रदेश है, यहॉ की सांस्कृतिक गरिमा देश में ही नही वरन् विदेशों में भी अपना परचम फेलाये हुए है, यहॉ का इतिहास चाहे वह जयपुर हो, जैैसलमरे, कोटा, बूंदी, धौलपुर, भरतपुर, या फिर चितौड़गढ़ या उदयुपर का हो स्वणिम अक्षरों में लिखा हुआ है, यहॉ की धरती वीर प्रसूता के नाम से प्रसिद्ध है । यहॉं के बहादुरों ने इतिहास को रचा ही नहीं वरन उसे नयी दिशा भी प्रदान की, राजस्थान के कलाकारों ने अन्र्राष्ट्ीय स्तर पर पहचान बनाई चाहे ग्रेमी अवार्ड विजेता प. विश्वमोहन भट्ट हो या फिर कालबेलिया नतृकी गुलाबो, लंगा बधुओं की कला का जोहर भी कम नहीं है । बीकानेर, जैसलमेर के कलात्मक झरोखें और जालियां जिन पर की गई कलात्मक नक्काशी देखते ही बनती है । यहॉं का बंधेज, लहरिया, चूंदड़ी, सांगानेर और बगरू प्रिंट वस्त्र उद्योग में अपनी पहचान बनाकर अन्र्राष्ट्ीय स्तर पर फेशन की दुनिया मे अपनी छाप छोड़ चुके हैं । यहॉ के कलाकारों द्वारा संगमरमर के पत्थरों पर की गई सुंदर नक्काशी देखते ही बनती हैै, राजस्थान में शताब्दियों पूर्व बने किले जिनमें भटनेर, सिवाना, शेरगढ़, गागरोन, जयगढ़, मेहरानगढ़ अपनी शौर्यगाथाओं के साथ पर्यटकोंं को आमत्रिंत करते हैं । समीक्ष्य पुस्तक में लेखक ने 13 अध्यायों में महत्वपूर्ण जानकारी समेटने की कोशिश की जिसमें वें सफल भी हुए, यहॉं का सांस्कृतिक परिवेश, पूजा स्थल, लोक देवता, संत, लोक मनोरंजन, लोकनाट्य, किले, वन्यजीव अभ्यारण- पक्षीविहार, हस्तशिल्प, होटल रेस्टोरेंट, एतिहासिक पर्यटन स्थल इत्यादि की विस्तृत जानकारी उपलब्ध करवाने का प्रयास किया है । राज्य के कुल 32 ज़िलों की ज़िलेवार ऐतिहासिक सांस्कृतिक जानकारी उपलब्ध करवाने का जो प्रयास लेखक ने किया वह उल्लेखनीय है ।


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Saturday, May 8, 2010

अपनी बात मार्च 10
नैपथ्यलीला
विगत दिनों, जयपुर में साहित्य के नाम पर एक बड़ा तमाशा हुआ, जिसे कई मल्टी नेशनल कम्पनियों ने प्रायोजिय किया और साहित्य को एक ब्राण्ड की तरह प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया । इसी तरह के तमाषें यहा पर पिछले चार वर्षों से होते आ रहे हैं किन्तु इस साल इस तमाशे को राज्य की सरकार ने मान्यता प्रदान करते हुए मल्टी नेशनल कम्पनियों के बीच अपनी उपस्थिति दर्ज करवा दी । इस तमाशे की मुख्य प्रायोजक संस्था को राजस्थान की विभिन्न अकादमियों के बजट में कटोती कर उस राशी को जो कुल जमा दस करोड़ रूपये है इस संस्था को हंस्तातंरित कर दी । जिसके परिणाम स्वरूप कई अकादमियों को अपने आगे के कार्यक्रमों को निरस्त करना पड़ा । अखबारों में छपे आधिकारिक बयानों के आधार पर इस संस्था को इसलिये राषि हस्तातंरित की गई क्यों कि यह संस्था विदेशी पैसा लाने की क्षमता रखती है । आधिकारिक तौर पर तो यह भी कहा गया, ‘साहित्य उत्सव से जयपुर के पर्यटन को बढ़ावा मिलेगा, इसकी ब्राडिंग होगी ।’ आमीन ।
इसी तरह विगत दिनों दिल्ली की एक अकादमी के पुरूस्कारों को सेमसंग ने रविन्द्रनाथ टैगोर के नाम से हथिया लिया । विष्णु जी ने इस पर गहरी चिंता जाहिर की किन्तु.....वही ढाक के तीन पात ।
कुछ भी हो इतना तो सत्य है कॉरपोरेट कम्पनियां साहित्य, संस्कृति में अपना भविष्य तलाश रही है और यहां उन्हें काफी पोटेषिंल नजर आ रहा है।
बहरहाल, कॉरपोरेट जगत का फैलता जाल किस तरह से हमें अपने षिंकजे में कसता जा रहा है दृष्टव्य है।

रमेश खत्री

दूधनाथ सिंह : डायरी : क्रूरता का पड़ोसी कौन है ?
एक बजे रात ।
बनारस. कार से । पूर्णिमा थी । बादलों के बीच से झांकता हुआ चंद्रमा । ठण्डी हवा के झोंके । मैं अपना हाथ बाहर निकाल कर बार बार हवा में हथेली फैला देता हूं , हवा हथेली पर थपेड़े मारती है । कार क्या है, खटारा है । खड़ खड़, भड़ भड़ की आवाज होती है । सड़क भी खराब । पीछे डा. देवराज, विजयदेव नारायण साही, रामनारायण शुक्ल (कहानीकार नहीं) और मैं । आगे ड्ाइवर के पास काशीनाथ सिंह और शुकदेव सिंह । यह रामनारायण शुक्ल बड़े ‘वल्गर’ ढंग से माक्र्सवाद के बारे में बाते करता है । पता नहीं साही और डा. देवराज उससे बहस में क्यों उलझे हैं । मैं लगातार बाहर देखता चल रहा हूं । यह रा.शु. माक्र्सवाद में अभी नौसिखिया है ।
आगे से बार बार ट्कें आती हैं और कार की गति धीमी हो जाती है । सामने से आती बैलगाड़ियों में बंधे बैलों की आंखें दूर से ही कार की हेड लाईट में बड़े विचित्र ढंग से चमकती हैं । मुझे कुंवर नारायण का वह बिम्ब याद आता है, ‘अंधेरे की सुरंग में दौड़ती हुई ।’ ‘अंधेरे’ की जगह शायद ‘रोशनी’ है क्या ? अंधेरा नहीं है । बादलों के भीतर से छन कर आती उजास है । पेड़ हैं अनेक ‘शक्लें बनाते हुए । हर पेड़ का अपना व्यक्तित्व है । कोई एक दूसरे की तरह नहीं । और सड़क के पास आती, फिर दूर जाती गंगा की चैड़ी धारा है । हर जगह वही मेरे बचपन की देहाती शान्ति है । घर, गाय.गोरू चारपाइओं पर सोये लोग । गांव....खेतों में हिराई भेड़ों के झुंड । और सर्राटे के साथ भागता हुआ मैं ।

डा.गंगाधर पुष्कर :कविता


चलो साथी

चलो साथी ! दर्द की बस्ती में
मस्ती के गीत गाये
भूले भटकों को राह दिखाएं
आतंक के सौदागरों से
वतन को बचायें
धुएं धुएं से इस आलम में
उम्मीदों के चिराग जलाएं ।

चलो साथी तेज धूप में
गुलमोहर सा खिल जाएं
बदले समीकरण में
अपने ही बने हैं कौरव
आओ अर्जून बन तीर चलायें
चाहतों की पाबंदी लगी है
संवेदनाओं का ज्वार लायें
ममता की बगिया को खिलायें ।

चलो साथी ! परिवार की पतंग को
सांसों की डोर से उड़ायें
उम्र के साथ बड़ा होना लाजिमी है
बड़े होने के फर्ज को बडप्पन से निभायें
जीवन को झुलसा री गर्म हवायें
सावन की घटा बन छायें । ,

चलो साथी । नव जागरण के गीत गायें
आत्ममुग्ध जन को आईना दिखायें
गैरों को अपनाए ! रूठों को मनायें
परिंदों सा चहचहायें
बंजर में फूल खिलायें ।

खुदगर्ज जमाने में
थरथराने लगा है तन मन
लड़खड़ाने लगी है धड़कन
दिमाग को नहीं, दिल को गुदगुदायें
स्नेहिल स्पर्श दें
रोते हुए अबोध को हंसाएं !
दिलों का आयतन कम हुआ है इन दिनों
चलो साथी ! दिलों को फैलाकर बसायें ।

रमेश खत्री : पुर्नपाठ के दौरान लिए गये नोट्स : शेखर के बहाने अज्ञेय की पड़ताल
‘शेखरः एक जीवनी (अज्ञेय का) हिन्दी का प्रथम उपन्यास है, जिसमें शिशु मानस के सपनों को, फ्रायड के शब्दों में ‘आनंद प्रधान’ जीवन की झांकियों को, उसके कुतुहल और जिज्ञासाओं को, उसकी स्वाभाविक प्रवृतियों पर समाज तथा माता पिता के व्यवहार या यों कहिये ‘रियलिटि प्रिंसिपल’ के संपर्क में उत्पन्न दमन को, मानसिक ग्रंथियों को तथा उसके जीवन व्यापी प्रभाव को कला क्षेत्र में लाने का प्रयास किया गया है । इसमें ‘आत्म’ और ‘अन्य’ के रिश्तों की समस्या को पैदा करके अज्ञेय ने ‘अस्तित्व’ के वृहद प्रश्न को भी खड़ा करने का प्रयास किया है । अज्ञेय की अनुभूति, बोध, कल्पना, अभिव्यक्ति इस समस्या को तलाशती है और आकार देती है । दरअस्ल यह समस्या उनका पूर्वाग्रह भी है, उद्विग्ता कारण भी और उनके सृजनात्मक पुरूषार्थ का उत्प्रेरक भी ।
साहित्य अस्तित्व का रणक्षेत्र न होकर, अस्तित्व के सहोदर रूप में उभरता है, इस अर्थ में ‘शेखर एक जीवनी’ उनकी अपनी आत्म परिभाषा के माध्यम से उपन्यास मात्र को भी परिभाषित करने का प्रयत्न करता है । यह उस बिन्दु से आरंभ होता है जहां पर जीवन का लगभग अंत हो चुका होता है । ‘शेखर’ अपनी सुनिश्चित आसन्न मृत्यु के दरवाजे पर खड़ा अपने विगत जीवन का ‘प्रत्यवलोकन’ करते हुए जीवन रच रहा है । इसीलिये यह ‘जीवन’ के अन्त और ‘जीवनी’ के आरंभ का बिन्दु है । इसे हम दूसरे शब्दों में ‘मृत्यु’ और ‘जीवनी’ दोनों का आरंभ बिन्दु भी कह सकते हैं ।
वास्तव में ‘शेखरःएक जीवनी’ एक उपन्यास है या कि जीवनी का ही एक छद्म रूप । स्वयं अज्ञेय ने भी बहुत जोरदार ढंग से इसके आत्म जीवनी होने का प्रत्याख्यान किया है । यहां पर कई बातें विचारणीय है मसलन नाम को ही लें ‘शेखर’ का पूरा नाम है ‘चन्द्रशेखर हरिदत्त पंडित’ और ‘अज्ञेय’ का ‘सचिदानन्द हीरानंद वात्स्यायन’ । शेखर के पिता पुरातत्वज्ञ हैं, और ‘अज्ञेय’ के पिता भी पुरातत्वज्ञ और पुरा लेखों के शोधक थे । अज्ञेय के पिताजी को अपनी नौकरी के सिलसिले में देश के एक कोने से दूसरे कोने में जाना पड़ता था, तो वहीं शेखर के पिता का तबादला भी कश्मीर, लाहौर, लखनऊ, सारनाथ, पटना आदि स्थानों पर होता रहता है । इस तरह हम देखते हैं ‘शेखर’ और ‘अज्ञेय’ के देशाटन की परिस्थितियां आपस में काफी मेल खाती है । इसी तरह से अज्ञेय भी सशक्त क्रांति मेंे हिस्सा लेते हैं और शेखर भी । जेल दोनो जाते हैं । दोनों का ढील ढोल और चरित्र बहुत कुछ समान है । ‘आत्मनेपद’ में अज्ञेय लिखते हैं, ‘वे बचपन से ही दुश्मन को शिकस्त देने के लिए अपने सिर का शस्त्रवत प्रयोग करते रहे हैं ।’ (आत्मनेपद 189) तो वहीं उपन्यास में ‘शेखर भी एक स्थान पर ऐसा ही करता है । (भाग 1@55)

निश्चल :व्यंग्य : जब मच्छर ने स्वतंत्रता का अर्थ समझाया

स्वतंत्रता दिनव की पूर्व संध्या पर एक मच्छर मरे गाल पर बैठकर मेरा खून चूस रहा था । उसकी बदकिस्मती कि मैंने उसकी टांग पकड़ ली और कहा क्यूं बे, शरम नहीं आती, मेरा खून तो वैसे भी चुसा चुसाया है, उसमें तुझे भी चैन नहीं । अरे नाशपीटे तुझे नेता, अभिनेता, भिखारी, मदारी, सेठ, साहूकार नहीं मिले सो कमबख्त एक लिखने पढ़ने वाले का खून चूस रहा है । जानता नहीं अभी एक आधुनिक मुक्त छंद सुनाकर तुझे जीवन के बंध से मुक्त कर दूंगा । मच्छर मुक्त छंद कविता के नाम से ही कंपकंपाने लगा और बोला, ‘सारी सर, आप चाहो तो वैसे ही मुझे मार डालो पर कविता सुनाकर.....न....न...न...।’ मैंने कहा, ‘ठीक है पर मैं तुझे मारूंगा जरूर ।’ वो बोला, ‘मेरा कसूर क्या है ?’ मैनंे कहा, ‘अबे घोचू, कसूर पूछता है । अबे मेरे गाप पर तू खून चूसेगा तो क्या मैं तुझे दूसरे गाल पर बिठाउंगा । अपना खून चुसाउंगा !’ वो घबराकर बोला, ‘पर सर कल आप स्वतंत्रता दिवस मनाने वाले हैं और आज आप मेरी स्वंतत्रता पर अटैक कर रहे हैं । ये तो घोर अन्याय है ।’ मैं भी ताव मेंे आ गया, मैंने कहा, ‘अबे स्वतंत्रता तो ठीक है, पर वो हम इण्डियन मनुष्यों की है तुम मच्छरों की नहीं । पर तुम नासपीटे फिर भी सब जगह घुसे फिरते हो ।’

कृष्णा अवस्थी : कहानी : तिनके का सहारा

यह समाचार जंगल की आग की भांति सब ओर फेल गया कि शीला की मां ने पिछले दिनों शादी कर ली । यह सब अविश्वसनीय लगा । पर जब उस गांव की स्थानीय महिलाओं ने इस बात की पुष्टी की तो मैं चुप हो गई सोचा हो सकता है यह सब सच ही हो ।
बच्चों की हाजरी लगाते जब‘शीला का नाम पुकारा तो सबने कहा, ‘जी ! वह आज छुट्टी पर है ।’ उसकी मां ने‘शादी कर ली है । आज वह मकान बदल रहे हैं, नए घर जाएंगे, ‘एक बालिका उत्साह से बोली ।’
मन में आया कि इस कहानी की जह में जाकर सारी बातों का पता लगया जाए । कई दिनों से सुशीला की मां दिखी नहीं थी, अगर यही सत्य है तो उसने ऐसा किया क्यों ? क्या विवशता ही होगी ?
एक दिन वह स्वयं ही धूम केतु सी कहीं से प्रकट हो गई । मैंने उसे कुरेदना उचित नहीं समझा उसने स्वयं ही प्रसंग आरम्भी कर दिया । उसकी एक बेटी‘शीला कक्षा पांच में व लड़का असीम चैथी कक्षा में था । दोनों पढ़ने में अच्छे थे । शनिवार को बाल सभा में ‘शीला ने अपनी गोरखा भाषा में जो कहानी सुनाई थी उसकी वह भाव भंगिमा व अपरिचित से बोल गुद गुदा गए थे । एक बार ‘राधा न बोले, न बोले, न बोले रे ’ इस भजन पर राधा कृष्ण बन कर सभी को मोह लिया था ।
बहिन जी यह दो बच्चें हैं इनकें सर्टीफिकेट मैं ले आई हूं । यह है जंग बहादुर तथा यह लड़की है अमिता ।
‘बच्चों ! मैडम को नमस्ते करो ।’
स्कुचाते हुए दोनों ने हाथ जोड़ दिए, ‘नया परिवेश उन्हें सहज होने में कुछ समय तो लगेगा ही।’ मैंने सोचा ।
‘दोनों का ेअब यहीं पढ़ना है, इन्हें दाखिल कर लें ।’ अच्छा अब मैं चलती हूं । छुटका घर में ही छोड़ा है पड़ोसन को बिठा कर आई हूं उसके पास ।
‘शीला की मां सांवले रंग की थी । नैन नक्श बहुत सुन्दर जैसे बड़े कौशल से तराशे हों । वह बड़ी आकर्षक थी लाल साड़ी में हरे ब्लाउज में ही प्रायः दिखाई देती थी । कल तक वह दो बच्चों की मां थी व आज पांच बच्चों की मां बन गई थी ।
डसका पति नौकरी की तलाश में घर से जो गया फिर वही का ही हो कर रह गया । सुनने में आया कि ओर विवाह कर लिया है । अब इनकी कभी सुध नहीं लेता जा कर कभी फूटी कौड़ी तक नहीं भेजी । बड़ी कठीनाई से ‘शीला असिम की पढ़ाई उसने जारी रखी कुछ उधार भी हो गया दुकानदारों ने कहा पहले पिछला हिसाब ठीक करो तभी ओर देंगे । उन्होंने उधार देना भी बंद कर दिया वह जानते थे कि इसके पास पैसे आएंगे कहां से ? कभी कभी तो बच्चें प्रायः भूखे ही सो जाते थे पर कभी किसी से बात तक नहीं की फिर भी पढ़ाई में सबको पछाड़ देते ।

Thursday, April 22, 2010

खुद को समझने का समय

वर्तमान समय के उलझावो, तनावों के साथ ही युवा पीढ़ी के मानस में पनप रही है बाजारवाद की नव कोंपले पूर्ण रूप से पल्लवित और पुष्पित हो चुकी है । आज उनके मन बाजार ठाठे मारकर हंसता नजर आता है । बरसों की पष्चिमी मेहनत मानों रंग लाने लगी हो । बेढंग और निर्मम समय की छीछालेदर करता प्रोढ़ अपने आपको इस भीड़ में अकेला महसूस कर रहा है । वर्तमान पीढ़ी जहां एक ओर संत्रास, एकाकीपन, ऊब, भावनात्मक खोखलेपर को भोग रही है तो वहीं दूसरी ओर उसके मन में अदृष्य भय कुलांचे मारता है और इसी के वषीभूत वह दिन रात एक किये हुए है, रेस के घोड़ों की तरह । हर कोई एक दूसरे से आगे निकल जाने की होड़ में भागे जा रहा है । इस दोड़ ने वर्तमान समाज में एक नई सुगबुगाहट को जन्म दिया है और नतीजन परिवार विश्रृखलित और विखंडित होते जा रहे है ।
कहते हैं भाषा भावों की संवाहक होती है । निज भाषा में ही कोमल
भावों का सही सम्प्रेषण किया जा सकता है किन्तु यदि किसीको उसकी जमीन से काटना है तो उससे उसकी भाषा छीन लो । एक सोची समझी रणनीति के तहत हमारी युवा पीढ़ी से उसकी जबान छिनी गई और उसके मामने केरियरिज्म का एक ऐसा सुनहला जाल बुना गया, जिसमें सब कुछ गड्मड् हो गया । और हमारे हाथ में बचा धुंध और धुंआ जिसके पार दिखता है तो केवल और केवल बाजार दिखता है ।
अन्तर्राष्ट्यि राजनीति का कपट हमारे सम्मुख ठोठे मारकर हंस रहा है और हम उसके सम्मुख बौने और नपुंसक साबित हो रहे हैं । लेकिन विचारों की सुगबुहाट समय सापेक्ष है और वह लगभग षुरू हो चुकी है, जिसके आलोक में दूर तक देखा जा सकता है । एक नई सुबह को संवारने में लगी युवतम फोज सारे छल छदमों को तोड़कर अपनी रचनात्मकता से बांझ हुए विचारों में नवस्फुरण पैदा करेगी । यही विष्वास हर सवाल का जवाब होगा और हर कसौटी पर खरा उतरेगा ।

रमेष खत्री

भीमसेन त्यागी : डायरी : आत्ममंथन
19 सितम्बर, 1986

अभी अभी नई तारीख षुरू हुई है । मैं इसके इंतजार में था, बल्कि घात में । जैसे षिकारी अपने षिकार की घात में रहता है । षिकारी कौन है और कौन षिकार ? षिकारी और षिकार भी खुद मैं ही । अपने को हताहत करने और विजय दर्प से सुस्कुराने की यह कुटिल चेष्टा पिछले इक्यावन साल से चल रही है । आज मेरा जन्म दिन है और मैं इसे मरण दिवस की तरह मनाने के लिए विवष हूं । कल सुबह अलका से साथ मोहन के यहां गया था । लगभग पूरे दिन वहीं रहे । भाभी से ढेर सारी बातें हुईं । बोलीं, कल तो आपका जन्मदिन है, भाई साहब ?
‘कैसा जन्मदिन, भाभी’ मेरे मुंह से सहज ढंग से निकला, ‘अब तो मरण दिवस का इंतजार है ।’
भाभी ने कोई उपहार नहीं दिया और वह बहुत दुखी हो गई । लेकिन इसमें दुखी होने की क्या बात ! जन्म जितना सत्य है, उतना ही मरण । वह मुक्ति का माध्यम है । मरण न होता तो जीवन कितनी बड़ी सजा, कितना बड़ा बोझ बन जाता ? उस बोझ से मुक्ति का एक मात्र एक मात्र उपाय मरण है । फिर उसके लिए षोक क्यों ? लेकिन ष्षोक तो फिर भी ष्षोक होता है । वस्तुतः शोक मरण एवं मृत्यु प्राप्ति के लिए नहीं, भावनाओं तथा सुख सुविधा के उन सूत्रों के लिए है, जो उस व्यक्ति के साथ जुड़े थे और अब झटका खाकर टूट गए ।
पिछले दो वर्षों में जो कुछ हुआ, उसने जिंदगी की सार्थकता पर न जाने कितने प्रष्न चिन्ह लगाए और उनके उत्तर में न जाने तिना लावा भीतर ही भीतर उमड़ता रहा । इस मंथन में जीवन उसकी कोमलता, सौंदर्य एवं सुगंध के साथ साथ मृत्यु उसकी वक्रता, तीखापन और विरूपता भी मथी जा रही है । और यूं , जिंदगी और मृत्यु के बीच का फासला सिमटता निबटता रहा । आज मेरे लिए मृत्यु उतनी अजनबी नहीं है, जितने कुछ वर्ष पहले हुआ करती थी ।
लगता है, जिंदगी की पूरी बिसात ही उलट गई । तमाम मोहरे खिंड मिंड गए हैं । जैसी कोई भयानक भूचाल आया हो और कुछ ही क्षणों में ही पूरे भूमंडल को अस्त व्यस्त कर गया हो । मेरे भीतर और बाहर, सब कुछ टूटा और बिखरा पड़ा है । लाख कोशिश करता हूं, इसे समेटने की जितनी कोषिष करता उतना ज्यादा बिखराव । आखिर इस रेगिस्तान का कहीं अंत है ?
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रमेष खत्री : पुर्नपाठ के दौरान लिए गये नोट्स : वे दिन

साहित्य समय की सीमा को लांघकर भविष्य की ओर उर्ध्वमुखी होता है । किसी भी रचना के आइने में रचिता की दृष्टि तथा पात्रों में उसकी झलक दिखाई देती है । ‘वे दिन’ निर्मल वर्मा का पथम उपन्यास है । यह क्रिसमस के दिनों की गाथा समेटकर हमारे सभ्मुख ऐसे पात्रों को लाता है, जिनका वर्तमान युद्धोत्तरकालीन अतीत की विभीषिका पूर्ण स्थितियों के कारण अवसाद, भय तथा एकान्तिक हो चुका है । यहां पर अतीत की भयानका पात्रों को वर्तमान में भी भयग्रस्त किये हुए है, परिणामतः वे मानवीय संबंधों के संदर्भ में मात्र व्यक्तिवादी प्रवृति का ही प्रदर्षन करते हैं ।
दरअस्ल निर्मल वर्मा के इस उपन्यास में बदलते मानवीय रिष्तों, युग की विसंगतियों और अकेलेपन से उद्भूत विषेष मनोवृति के नये आयाम दृष्यमान हैं । इस उपन्यास के लगभग समस्त पात्र ही अपने अकेलेपन की मनोवृति से जूझकर आगे बढ़ते हैं । कथानक मैं का दुर्भाग्य यह है कि इस अकेलेपन के कारण उसके जीवन में ऐसी रिक्तता आ गयी है, जिसकी पूर्ति किसी भी प्रकार संभव नहीं है । इसी कारण उसे जीवन एकदम बेमतलब लगने लगता है । अपने अकेलेपन से पीड़ित होकर श्रीमती रायना से उस रीतेपन का वह भरना चाहता है । कभी वर्तमान में और फिर बाद में अतीत की जुगाली करके । श्रीमती रायना भी अकेली ही है, वह कभी अपने पति जाक के साथ प्राग आयीं थी । अब दोनों अलग हो गये हैं । पुत्र मीता को दोनों बांट लेते हैं । पिछले साल छुट्टियों में वह जाक के संग था । उसी के साथ युगोस्लाविया गया था । अब पिछले कुछ महिनों से रायना के साथ रह रहा है । टी.टी. अपने अकेलेपन में बहुत ऐग्रेसिव हो जाता है । उसकी मां बहुत अकेली है । बढ़िया बात यह है कि इस उपन्यास का हर पात्र दूसरे के लिए अंधेरा है ।

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कुमार अम्बुज : कविता

अतिक्रमण

अतिक्रमण के समाज में जीवित रहने के लिए
सबसे पहले दूसरे के हिस्से की जगह चाहिए
फिर दूसरे के हिस्से की स्वतंत्रता

अनंत है अतिक्रमण के विचार की परिधि
इसलिए फिर दूसरे के हिस्से का जीवन भी चाहिए
वासनाएं नए क्षेत्रों में करती है घुसपैठ
सिद्धांत और सुभाषित बदलने लगते हैं हथियारों में

समुद्र की तरफ
अंतरिक्ष की तरफ
पालात की तरफ
दसों दिषाओं में लालसाएं मारती हैं झपट्टा

फिर मारने की चीज के बारे में लंबे प्रचार के बाद
तय कर दिया जाता है कि वह जचाने के चीज है
जैसे जिसके पास अस्त्र है वही अमर है

फिर मनुष्य ही करते हैं
मनुष्यों पर अतिक्रमण
घेरते हुए खुद को वस्तुओं से
आसक्ति की चाषनी में वे पागते चले जाते हैं
एक नया संसार
जिसमें मानवीय दिखाता हुआ हर उपक्रम
किसी नयी वस्तु को ले सकने का सामर्थ्य बताता है
कितना दबाया हुआ है
दूसरे के जीवन का रकबा
और पृष्ठभूमि में से झांकती है कितनी वस्तुएं
इन बातों से ही फिर बनने लगती है
समाज में आदमी की आदरणीय पहचान ।


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रमेश खत्री : पुस्तक समीक्षा : ‘‘तटबंधों के सैलानी’’’

हम सदियों से सांस्कृतिक विखण्डन को सहते आये हैं, इसी के चलते विगत कुछ वर्षों से दलित विमर्ष और स्त्री विमर्ष का झंण्डा बुलंद करता साहित्य प्रकट होने लगा जिसने हमारी सोच को एक अलग दिषा में मोड़ने की कोषिष की नतीजतन हमारे वर्तमान जीवन में काफी उथल पुथल शुरू हो गई । हमारा समाज(परिवार) विखण्डन के कगार पर पहुँच गया और हम लगातार प्रगतिषील बने रहने का तमगा लिये दर दर भटकने को विवष हो गये । निंसदेह हमने एक नया बाज़ारवाद हमारे बीच पैदा किया किन्तु इस दौड़ में हमारे संबंधों का महिन ताना बाना अपने आपमें उलझता चला गया और हमें पता ही नहीं चला । इक्कीसवीं सदी के आते आते सामाजिक विखण्डन के स्पष्ट चित्र हमारे सम्मुख प्रकट होने लगे, अब आज की युवा पीढ़ी सामाजिक रिष्तों को इतना तवज्जो नहीं देती जितना कि अपने केरियर को । आज हर आदमी व्यक्तिवाद से ग्रसित हो केयरिस्ट हो गया है । कुछ इसी तरह के सवालों से जुझता अजित गुप्ता का उपन्यास ‘सैलाबी तटबंध’ विगत दिनों राधाकृष्ण पब्लिकेषन दिल्ली से प्रकाषित हुआ । अजित गुप्ता का यह पहला ही उपन्यास है किन्तु इसने साहित्य के दरवाज़े पर अनचाहे ही दस्तक दे दी है ।
समीक्ष्य उपन्यास ढाई सदी बाद यानि कि सन् 2151 की जीवन स्थितियों का काल्पनिक संसार हमारे सम्मुख रचता है और इस ढाई सदी के बाद भी मात्र सामाजिक विखण्डन के अलावा कुछ भी नज़र नहीं आता । चारों तरफ टूटन और एकान्तिक जीवन पसरा नज़र आता है । जिस तरह की फैन्टेसी ‘सैलाबी तटबंध’ रचना चाहता है वह शायद पूरी तरह से साकार नहीं हो पाती क्योंकि लेखिका ने इस काल्पनिक तेईसवीं सदी में भी केवल आदमी की आदिम उच्छृंखला को ही महत्व दिया न कि उस समय के संभावित वातावरण को पैदा करने का प्रयास किया । हालाकिं उन्होने कोषिष जरूर की परन्तु पूरी तरह से उस समय का तकनिकी संसार रच नहीं पाई । उनकी कल्पना मात्र पारिवारिक विघटन पर ही अटक कर रह गई और वें स्त्रीयोचित दृष्टि से देखने को विवष हो गई और यह कृति भी स्त्री विमर्ष के खाते में चली गई ।

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