Monday, August 20, 2012

हम फिर हाजिर हैं

जुलाई का अंक लेकर हम फिर से आपकी अदालत मे उपस्थित हैं, इस आशा के साथ कि आपका साथ हमें आगे के रास्ते को प्रशस्त करेगा । हां, इतना जरूर है कि यह अंक कुछ विलंब से दिया जा रहा है इसके लिए क्षमा प्रार्थी हैं । कठघरे में तो हम हमेशा ही अपने आपको पाते हैं । और वहीं से अपने लिए और आपके लिए कुछ मुस्कुराहटें, कुछ खुशियाँ बटोरने का प्रयास करते हैं ताकि आपकी महफिल रोशन हो सके ।
इस अंक में आपके साथ है, प्रबोधकुमार गोविल की कहानी ‘व्हैलवाच’, कन्हैया लाल वक्र की कविताएं, निष्चल का व्यंग्य ‘ जब मच्छर ने स्वतंत्रता का अर्थ समझाया और साथ ही साथी कपिलेश भोज के क
विता संग्रह ‘यह जो वक्त है’ की समीक्षा है । आशा है आपको इनका साथ अच्छा लगेगा ।
इस बीच हमारे वरीष्ठ साथी कवि, कथाकार, उपन्यासकार अरूण प्रकाश , सुरेश मिश्र, अभिनेता रूस्तम ए हिन्द दारा सिंह, पहले सुपरस्टार राजेश खन्ना, कथाकार अनुवादक अमर गोस्वामी, लेखक प्रत्रकार व संस्कृतिकर्मी शरद कोठारी और आज़ाद हिन्द फौज की कैप्टन लक्ष्मी सहगल के दुखद निधन पर साहित्यदर्शन परिवार की विनम्र श्रद्धाजंली । इस अंक में कवि, कथाकार, उपन्याकार, नाटककार सुरेश मिश्र को याद करते हुए उनकी कुछ कविताएं दी जा रही है विनम्र श्रृद्धाजंली के तौर पर ।
जल्दी की फिर मिलते हैं अगले अंक के साथ हो सकता है अगले अंक में आप भी सम्मीलित हों ऐसी हमें न केवल आशा है अपितु दृढ़ विश्वास भी है । आपकी प्रतिभागिता ही इसे नई उंचाईयां प्रदान करेगी ।

रमेश खत्री

संपादक


 कविता

उपन्यासकार, कथाकार, नाट्यलेखक और कवि श्री सुरेष मिश्र का विगत दिनों देहावसान हो गया । उनको याद करते हुए उनके सद्य प्रकाशित कविता संग्रह ‘यादों का मेला’ से कुछ कविताएं इस अंक में प्रस्तुत की जा रही है ।
संपादक
मैं -टूटी कविता का आदमी

हां,
उस टूटी कविता में
वह जो पुच्छल नेवला है
जो अपनी तिहाई
खट्टी पूंछ को मुंह में डालकर
दिनभर काम करता है
और शाम को
अपने बील में मनीप्लांट
तथा जुबान पर
मकड़ी का जाला लगाकर
निष्कंप आंखों से
लिजलिजे सपनों की हवा पीता है
वह नेवला
मैं ही तो हूं
दरअसल, जहां मैं पैदा हुआ पला
वह एक जंगल था सांपों का
वहां पलकर मैं एक अजीब सा जानवर हो गया हूं
जो अपनी कमर में फ्रायड का कमरबंध
गले में माक्र्स का पट्टा
नाक में मूल्यों की नथनी
पैरों में संस्कृतियों की पाजेब
अंगुली में गांधी छाप अंगूठी पहन
चेहरे पर शिष्टाचार का मुलम्मा चढ़ाये
डार्विननुमा खोपड़ी में
षंकर भाष्य का एक रिरियाता सा संस्करण
बनकर घूमता है
और जहां तहां
किताबघरों की रैकों के बीच
अनुसंधान केन्द्रांे की मेजों के आसपास
प्रयोगशाला के बीकरों में
मंत्रालयों की फाइलों के साथ साथ
ढूंढता है एक अदद मादा कीटाणु
प्रिवार प्रयोजन से

हां, यही हूं मैं
मैं एकनाथ
मैं कविता का आदमी
मैं आदमी की टूटी कविता का आदमी
यही हूं मैं ।


अन्त में

अब जो मैं कहने वाला हूं
वह कविता या कथा नहीं है
बल्कि है केवल व्यथा
देष की धरी की
धरती के जन गण की
जे पीडि़त है तन से
कुछ ऐसे
ज्यूं करके मत्यु से सांठ गांठ
प्रत्येक अंग पैदा होती
औ बढ़ती जाती हों
विषभरी गांठ

यह व्यथा देश के जनगण की
जे अब पीडि़त हैं, मन से भी
उस षापग्रस्त माता जैसे
जिसने अनचाहे अनजाने ही
जन्म दिया हो
वंष विनाशक
एक बड़ी आसुरी सैन्य को
जो अब, बस बढ़ती ही जाती

यह तक्षक वंशी आसुरी सैन्य
अब, निर्भय और निर्बाध
सत्ता के खातिर
नगर नगर और गांव गांव में
घूम रही है
साथ लिये अपराधी षातिर
यही कभी धर्म तो कभी जाति के
रंग बिरंगे झंडे लेकर
और तरह तरह के डर दिखलाकर
एक दूसरे को लड़वाकर
भोले भाले कमजोर अशिक्षित
उस जनगण को लूट रहे हैं

जिसको वे अक्सर बतलाते
कि वह सदा वत्सला भारत मां है
किन्तु इसी मां के बच्चों में
भेद डालकर
कुछ को ‘अपने’
कुछ ‘बेगाने’ बता-बताकर
‘बेगानों’ की हत्या करते
उन्हें जला देते जि़ंदा ही
खुले खजाने
और ख़ुशी से गाते गाने
कि वंदे मातरम् !

इनकी यह सारी करतूतें
सारे करतब
देख देख कर भारत माता
अब खून के आंसू रोती है
लेकिन इन्हें ख़ुशी होती है

बस ये ही सारी व्यथा आज
हमारे जनगण की
देष की धरती की ।


चूनर
(एक अपूर्ण कविता )

मैं एक चुनरिया बिना रंग की
गुग्म मूल की इस धरती पर
ज्यूं एक दुल्हनिया बिना संग की

मैं वो एक चुनरिया
बड़े जुलाहे ने , जिसको एक दिन
बहुत चाव और मस्ती से बिन
शतखण्डे निज शीष महल में
बैठ एक ऊंचे छज्जे पर
अल्हड़ता से छोड़ दिया था
ढकने अपनी पियतमा को
जो उसकी बिलकुल ही अपनी
पर, अपनी नहीं केवल प्यार से
बल्कि है सृजनाधिकार से

हां, जुलाहा अपनी प्रियतमा का
जनक और पतिा दोनों ही है
पर, इसमें कुछ नया हनी है
गलत नहीं है
बल्कि सच्चा न्याय यही है
कि पति वही जो जनक हो पहले
वह भोक्ता सृजन करे जो
क्यों कि
सृजन है नहीं और कुछ
केवल एक परिणाम
भोग की इच्छा का है
इसलिए जो सृजित
सदा एक पुरूस्कार है
सृष्टा का, सृष्टा के श्रम का
फिर श्रम चाहे जैसा भी हो
तो
जुलहा अपनी इस प्रियतमा के लिये
सदा से कोरे चीर चुनरिया बुनता
पर नहीं शील संस्कृति के नाते
क्योंकि शील और संस्कार सरीखे
प्रश्न नहीं होते सृष्टा के सम्मुख
उसको तो ये शब्द निरर्थक
और एक बड़ी सच्चाई यह है
कि शील और संस्कार शब्द तो
गढ़ते है आलोचकगण ही
सिरजन जिनक वश से बाहर

ये कभी शील तो कभी संस्कृति के
कभी धर्म तो कभी नीति के
गुब्बारों पर चढ़कर ऊपर
काक दृष्टि से दोश ढूंढते
सृष्टा के, सृष्टा के श्रम के
और दंभ के ढोल पीटते
जिनके हो जाता आकाश निनादित
स्वयं उन्हीं के अपने मन का

पर सृष्टा तो
बस सृष्टा होता
भली बुरी या नंगी उघड़ी
डसकी रचना जैसी भी हो
उसको वैसी ही प्यारी है
तब-
जुलहस अवपी इय प्रियतमा के लिये
जो कोरे चीर चुनरिया बुनता
वह नहीं शील संस्कृति के नाते
बल्कि, नीचे बहुत खड़ी वह
और उठाना उसका ऊपर
हां, जुलहे का बस इष्ट यही है
कि उठती जाये प्रेयसी उसकी
शतखण्डे उस शीश महल तक
पर लिफ्ट नहीं, न कोई सीढ़ी
जुलहा केवल चुनर बुनता
पर उसका चुनर ही सब कुछ
इनमें निहितक है उसकी सारी
महिमा महिमा, कौषल वैभव
उसका श्रेष्ठ कृतित्व इसी में

फिर, चुनर से क्या नहीं हुआ है ?
पाण्डु सुतों की कथा पुरानी
फिर भी करती याद दिहानी
कि पति ना पर कटे पतंग सम
गिरकर बैठ गये थे पांचों
और द्रुपद सुता की लज्जा डोरी
लुटने लगी बुरे हाथों जब

तब केवल चुनर का लिये सहारा
था उठा एक जुलहा बेचारा
थ्जसके हाथ हजारों चूनर
यूं बरसे, ज्यूं नभ से बरसे
एक बड़ी जल कण की सेना
तब बूंद एक के बाद एक पा
ज्यूं उठता जाता
गागर के जल तल
या परत एक के बाद एक पा
ज्यूं उठती
धरती की काया
वैसे ही-
चूनर पर चूनर पाकर
द्रुपद सुता सी नार नवेली ही
उस दिन केवल नहीं उठी थी
बल्कि उठे थे पाण्डव सारे
और उन्हीं के साथ साथ ही
उठ्ठा एक ‘महाभार’ था
तो, चूनर से क्या नहीं हुआ ?

सच तो यह है
कि चूनर जीवन
चूनर यौवन
चूनर ही शाश्वत आकर्षण
जुलहे की इस प्रियतमा का

यह बिलकुल ही बात दूसरी
कि चूनर रोज पुराना पड़ता
जैसे पत्ता किसी पेड़ का
पहले होता लाल
हरा फिर
और पुराना जैसे पड़ता
पीला होकर झर जाता
या जैसे तारा किसी सांझ का
निशा नायिका के माथे पर
बिंदिया बन उसके सुहाग की
चार घरी रखवाली करके
भोर काल छुप जाता है

या, ज्यूं वीणा का तार
शून्य में जोड़ के महफिल
चंद पलों की
पयल बांध नचाये लय को
और अचानक खो जाता है
वैसे ही चूनर भी
कुछ दिन बाद
पुराना होकर एक दिन
जुलहे की इस प्रियतमा के
शिरो भाग या उरू भाग से
सरक अचानक गिर जाता है
सदा सदा के लिए कहीं पर
पर,
जुलहे की इस प्रियतमा को
किस एक चूनर खोने का
होता कुछ भी बोध नही है
कहीं कोई दुख दर्द नहीं है
क्योंकि उसे तो सदा सदा से
एक नहीं अनगिनत चूनर
शत खण्डे उस शीश महल से
बिन मांगे मिलते रहते हैं

तब, बहुतायत में पलने वाले
जानेंगे क्या मोल एक का ?
इसीलिये तो-
ज्योकि वंश की कोमल प्राणा
अग्नि सुता जो दीपशिखा है
उसको अचरज यही आज तक
कि कैसे कोई शलभ
प्राण से मोल चुकाता
एक किरण का

और यही एक अनबुझ पहेली
खड़े ऊंचाई पर बादल की
कि विस्तृत नभ में घन सावन का
होता बहुत बड़ा सरिता से
फिर भी, सरिता गंगा बनकर
धरती पर पूजी जाती है

और यही अचंभा है सागर को
कि आज तलक क्यों
इस धरती पर
पूजा जाता है गागर को ?

पर, बहुतायत में पलने वाले
जानेंगे क्या मोल एक का ।

( अपूर्ण जो अब कभी भी पूरी नहीं होगी  )                           साभार यादों का मेला
कविता

दरख्त


हर वक्त सेवा में रत
दरख्त ।

ये आमंत्रित करते परिंदों को
आवंटित करते है
निःशुल्क कोटर रहने को
घोसले बनाने का मुकाम ।
सूरज के पीठ फेरते ही
धूप में नहाई उजली भुजाओं से
घर लौट आने को कहते हुए
निभाते हैं, अपनापन....
कौन जानता है इस बात को ।

कौन जानता है इस बात को कि
दरख्त एक गैस प्लांट है
चलता है यह आठों पहर
यहां उप्तादित होती है
दिन को आक्सीजन और
रात को नाइट्रोजन
प्रकृति के इस सबसे अमूल्य प्लांट का उत्पादन अमूल्य है
और निवेश शुन्य ।

ये सूर्य से ग्रहण करते हैं उष्मा
धरती से जल
फिर तमाम उम्र निःशुल्क सभी को देते हैं
मीठे मीठे फल ।
प्रकृति के अनूठे उपकरण
ये वृक्ष !
चुनौति है विज्ञान के समक्ष
धरती से जल के विनिमय में
ये देते हैं उसे
पल्लवों की खाद !
तपे तवे की सी तपिश में देते हैं ठंडी छाव ।
इसकी पत्तियां हवाओं को करती है
ठंडा ठंडा कूल कूल ।
झुलसती हवाओं में पेड़ों की ठंडी छोव
गुलशन में ज्यों मुसकाते हुए फूल ।
सहारा के रेगिस्तान में मंका कोई वातानुकूल ।
यहां मुफ्त उपलब्ध है स्वास्थ्य की बेहतरीन दवा
यानि कि ताज़ा हवा ।

आज जब गांव गांव में उगाये जा रहे हैं मॉल
खेतों पर पोता जा रहा है तारकोल ।
दरख्तों पर चलाये जा रहे हैं बुलडोजर
इन वातानुकुलित उपकरणों में परिन्दें तलाशते हैं
अपने कोटर, अपने घोसले अपने मुकाम
मायूस होकर लौट जाते हैं हर बार !

जीवन तो चलता रहेगा
शयद यूं भी
लेकिन जीवन्तता
वह होती जा रही है विलोप
मुड़ मुड़कर बार बार देख रही है आंखें
किसी भी क्षण अपनी भीम भुजाए फैलाए
वह उन्हें बुलाए
और वह संध्या का कलरव
वह शोर.... वह मस्ती.....वह अपनापन
फिर से लौट आये
फिर फिर कर.....
फिर लौट आये !

खून निकल आया है

हुजूर के खून निकल आया है
दूब ने नाखून लगाया है

क्या हुआ कि दूब बबूलों में बदलने लग गई
चिडि़याओं ने आंख बदल दी
हो गया आकाष घायल
दिग्भ्रमित है गिद्ध सारे
सियासत के सिद्ध सारे ।

क्या हुआ कि
कंपकंपाये जा रही है हिरण्यगर्भा
शांत समन्दर गर्जना करने लगा
क्या हुआ रे....क्या हुआ....ये क्या हुआ ?
क्या हुआ कि दूब के उगने लगे नाखुन
छूब जिसके ख्वाब में भी नहीं थे नाखून
इंतिहा है यह रोश की ये ।

इतिहास सबको दिखा रह है आज आमुख
गाय ! पन्नाधाय सींग ताने खड़ी
जंगल राज के सम्मुख
दम घुटने लगे हैं क्यों बाज के
क्या हुआ रे....क्या हुआ.....ये क्या हुआ ?

हुआ ये कि खेतों में भी जंगल उगने लगे कंकरीट के
फूल किसलय, द्रुम पल्लव
दिन ब दिन गायब होते रहे
खेत और खेती उजाड़ी जा रही है
जांघ धरित्री की उधाड़ी जा रही है
खेती खत्म करने की कल्चर चल रही है
विश्व में धन की सियासत पल रही है
दूब को स्वीकार्य नहीं कुत्ते की मौत
हो गया यह गोरखधन्धा अब बहुत
विवश होकर दूब ने नाखून बढ़ाया है
खेद है कि हुजूर के खून निकल आया है ।

दीवार

नहीं महज ये इक दीवार
इससे जुड़े हृदय के तार

प्रथम प्रथम जब इन आंखों ने
देखा था संसार
विहंस रही थी खिले कुसुम सी सम्मुख ये दीवार
साठ बरस तक प्रतिपल इसने
मुझको दिया दुलार

इन दीवारों के कांधो पर
घर की छत टिकी थी
मानों मेरे सपनों की परवाजें यहां बिछी थी
इसके नीचे बैठ के पहली
चिट्ठी तरल लिखी थी
इसके साये बैठ किसी पर
जीवन किया निसार ।

इसकी गोदी में निश्चिन्त हो सोया वर्ष अनेक
इसके आंचल में जीवन के सुख पाये प्रत्येक ।
मुझ पर इसके चढ़े हुए हैं
कई कई कर्ज़ उधार !

अब जब यह टूट रही है
मुझको बहलायेगा कौन ?
यादों से मन भर आया तो
मुझको सहलायेगा कौन ?
इसके होते हाथ तो
रोत हम गलबहियां डार ।
बनी रहेगी मेरी स्मृति में
हरदम ये दीवार.....!

होने के मायने

बहुत दिनों से तार तार हो चुका था फूल
बूढ़ी दादी की मैली जर्जर साड़ी की तरह
आज बिखर गया तो जाना
छत होने के क्या मायने होते ?

जब जब रात आयी
जीवन में छाया जब भी अंधेरा
बिखेरता तब तब आष्वस्त मुस्कुराहटें
धुसरायी अंधेरी कोठरी में टिमटिमाता दिया
आज उसके बूझ जाने पर जाना
उम्मीदों के क्या मायने होते हैं ?

दशकों से
पूरी दुनिया मुकाबिल तौलता रहा हूं खुद को
थोथा ही पाया हर बार
जीवन के आईने आज देखा तो जाना
आईने के क्या मायने होते हैं ?

उम्रदराजी की पोटली सम्भाले
फूली संध्या के कलरव में
जब जब कोई मुस्काया सम्मुख
या कि कौंधी स्मृति कोई
तब जाना कि अपनों के क्या मायने होते हैं
किसी के होने के क्या मायने होते हैं ?


क्या होता अगर ?

क्या होता अगर
पंख होते पवन के
पांव होते गगन के
दीवारों में कैद होती गर दिशाएं

तो हवाएं अपने डैनों पर बिठाकर
घेर लाती बादलों को
खेतों गांवों और शहरों में
प्यास से प्यासे घरों में
वहां.....पसीने से लथ खेती हर जहां
और परों से कोमल पंखी हवा देती
कुम्हलाई बाजरे की बालियों पर
अमृत जल से सना पगा
आसमां उड़ेल देती ।

दिशाएं विद्रोह करती
विद्रोह हेतु होड़ करती
सासं लौ तक सर टकराती
समय को दती दिषाएं
आनंद के....
घनआनंद के बीज अंतस में दबाए


मुझे प्रिय है

गा रहे थे
विरूदावलियां सब बाज की
उपेक्षित थी चिडि़याएं उस दौर में
पुष्ट डैनों, हंसिये सी अबाबीलों, उलूकों की चोच की
कर रहे थे प्रषंसा सब बाज की
बाहुबलियों के कशीदे पढ़ रहे थे सब शास्वत
ताकतवर की बांच रहे थे भागवत ।

जग उठी तब नन्ही सुकोमल एक चिडि़या
स्वागत करती नव बसन्त का
मुलायम सी धूप का
ताजगी से भरी अठखेलियां करती मादक हवाओं का
बाग का.....कलियों की निष्चल मुस्कान का
ल्हकते पत्तो और फल फूल से लदी डालियों का
स्वागतार्थ मुस्तैद वन के दरख्तों का
मुग्ध स्वर में मंगला के गीत गा गा कर

जो चहकती गीत गाती
सृष्टि के कल्याण का
रात के अवसान का
सुबह के आहवान का
जो संकट से समय संकेत देती
शक्ति भर आवाज़ दे सबको जगाती

प्रिय है मुझे वही नन्हीं जान
जो करती जगत के कल्याण हेतु
कई काम...कई काम......!

अस्ताचल के इस मोड़ पर

वहीं खो गई है या कि बढ़ती हुई धूप की तपिष से
हवा हो गई है सुबह...!
क्या करूं पथ छोड़ दूं या कि अपना रथ मोड़ दूं
छोड़ दूं अपना ताप.... अपने उजाले..... अपना धर्म
मुझे तो चलना है निरंतर
करना है अपना भीष्म कर्म
कैसे रह सकता है वर्तमान भूत से चिपका हुआ ?

अपनी ओर बुलाते हैं विहंसते हुए
रौषन पेड़....अभिनंदन की मुद्रा में अपनी भुजाएं उठाए
मुकुट शिरोमणि पहाड़
योजनों तक फैली कायनात
किस गर्वोन्नत अंदाज से निहार रही है
पृथ्वी ।

सुबह सुबह इसी के आंचल को भर दिया
खिले हुए फूलों से
इसके उनीदे बदन को किरण करों ने सहलाया
और उठे हुए शोल श्रंगों के मस्तक पर चरण धूली बिखेरता
तय कर रहा अपना पथ ।

शिखर से सूरज ने देखा
पसरा हुआ नीचे घाटियों में अस्ताचल का अंधकूप
देखने को झूकी
तो झूकी ही रह गई उसकी ग्रीवा
फिसलने से लगे ढलान पर उसके पांव
षिथिल होने लगी भीम भुजाएं
उच्छवासों से धिरने लगा
हर शै फिसलने लगी ष्लथ हाथों से
अस्ताचल को धिसटता चला जा रहा
थका थका बूढ़ा सूरज....।

अस्ताचल के इस पर
नैराष्य के अंधकूप में स्वाह होने के ठीक पहले
किसी नटखट बपचन की तरह
अल्हड़ संबह ने थाम ली उसकी उंगली
और उसमें भर गई असंख्य उर्जा

अलसुबह सबने देखा
उषा के कंधे पर हाथ रखे
लम्बे लम्बे डग भरता
पूर्व दिशा से आ रहा है
उज्वासित, मुस्कुराता सूरज
किरणों से अठखेलियां करता ।



कहानी  :  प्रबोधकुमार गोविल
 
व्हेल वाच


मैंने पिछले चार महीने से कोई छुट्टी नहीं ली थी। इसलिए एक अजीब सी थकान शरीर पर चस्पां थी। ठीक वैसे ही, जैसे लम्बे समय तक आप बस में बैठे रहें तो उतरने के बाद भी बस की गति का भ्रम आपके स्थिर शरीर को दोलायमान रखता है।
इसलिए जब कलेंडर ने बताया कि दो दिन बाद दो छुट्टियाँ एक साथ आ रही हैं तो जी फुलझड़ी सा चटचटाने लगा। एक छुट्टी का तो अमूमन कोई मतलब ही नहीं होता। साप्ताहिक सौदा-सुलफ लाने, सामाजिक दायित्वों को निपटाने-टरकाने और रोज़मर्रा के छेदों को रफू-पैबंद करने में ही बीत जाती है। हाँ, दूसरी छुट्टी भी साथ में हो तो इंसान अपने लिए भी कुछ मनचाहा समय निकालने के खयाली -पुलाव बनाने लगता है। मैं ऐसे ही आगामी छुट्टी के एक खयाली खेत में कुछ उगाने की कोशिश कर रहा था कि सहसा पाला पड़ गया।

मेरे मित्र शोभालालजी का फोन आ गया कि अब तबादलों पर से बैन हट गया है इसलिए परसों मंत्रीजी से है। उनसे डिजायर करानी है अतः आपको मेरे साथ उनसे मिलने चलना ही पड़ेगा। शोभालालजी की पत्नी एक सरकारी स्कूल में अध्यापिका थीं, और उनकी तैनाती पिछले साल से एक दूर के जिले के स्कूल में हो गयी थी। शोभालालजी उन्हीं के लिए ट्रांसफर की डिजायर मंत्रीजी से कराने की बात कर रहे थे। अपनी पत्नी को पास लाने के लिए शोभालालजी की डिजायर का कोई मोल नहीं था, मंत्रीजी की डिजायर ज़रूरी थी।
-अरे, भला ये क्या बात हुई? मैं क्यों चलूँ उनके साथ ! अरे भई, आपकी पत्नी की पोस्टिंग दूर के जिले में है माना। मगर सरकारी नौकरी में पोस्टिंग भी तो वहां तक होगी जहाँ तक सरकार का शासन है। आप सरकारी नौकरी का लुत्फ़ तो उठाना चाहते हैं, मगर सरकारी नियमों की पालना नहीं चाहते। जब राज्य-स्तरीय सर्विस है तो राज्य-स्तरीय तबादले भी होंगे। आप वैसे तो सारे में डींगें हांकते फिरते हैं कि दोनों पति-पत्नी सरकारी राज्य-सेवा में हैं, डबल कमाई है, पर चाहते हैं कि दोनों की पोस्टिंग ज़िदगी-भर एक ही मोहल्ले में रहे?यानी आप पर लेबल तो राज्य-स्तर का लग जाए लेकिन कष्ट आपको केवल पंचायत-स्तर के ही हों। वाह ! ऐसा कैसे होगा?आपको पत्नी को पास बुलाने की डिजायर करानी है। उसके आ जाने से आपका मन बाग़-बाग़ हो जायेगा, उसके वेतन पर आपकी सीधी पकड़ बनेगी, उसके खर्चों पर आपकी लगाम कसेगी, आपको पकी-पकाई रोटी मिलेगी, आपके पौ-बारह होंगे ...मगर इसके लिए मैं आपके साथ क्यों चलूँ?ये कहाँ का न्याय है?[जारी]

कहानी "व्हेल वाच" का दूसरा भाग

मंत्रीजी के बंगले पर जाने का मतलब है कि चौबीस घंटे के दिन में से कम से कम आठ घंटे भट्टी में झोंकना। वो भी फ़िज़ूल। क्योंकि यदि उस भट्टी में जाकर मटर भुन भी गई, तो उसे चबायेंगे तो शोभालालजी ...फिर बंगले पर जाने के एक दिन पहले से बदन में खाज चलने लगेगी, और एक दिन बाद तक खलिश रहेगी, कि फलाने मिनिस्टर के बंगले पर गए थे। मैंने शोभालालजी को टालने की गरज से कहा- भाई, क्षमा कीजिये, थोड़ी व्यस्तता है, मैं आपके साथ नहीं चल पाऊंगा। शोभालालजी बोले- आपके चलने से मुझे हिम्मत रहेगी। मुझे तो बंगलों के एटिकेट्स तक नहीं पता, कैसे जाते हैं, क्या करते हैं ...आपको चलना ही पड़ेगा। फिर हमारी ये तो आपको अपने भाई से भी ज्यादा मानती हैं, उनके काम के लिए तो आपको आना ही पड़ेगा। बताइये, कितने बजे आऊँ?
अब ऑप्शन हाँ या नहीं का नहीं था, केवल कितने बजे का था। इसलिए छुट्टी की बलि चढ़ाने को सहमत होना ही पड़ा। सोमवार को जाना था। रविवार की रात से ही मन में बैराग भाव जागने लगा- जब अगले दिन भी सुबह जल्दी उठना है,समय पर नहाना है, समय पर नाश्ता करना है, समय पर धुले कपड़े पहनने हैं तो काहे की छुट्टी?
सुबह-सुबह शोभालालजी आ गए। वे इतने उत्साहित थे कि सुबह का नाश्ता भी उन्होंने मेरे साथ मेरे यहाँ ही लिया। उनकी पत्नी जब मुझे भाई से बढ़ कर मानती थीं तो मेरे लिए यह लाजिमी था ही कि उनसे नाश्ते की मनुहार करूं। बेतकल्लुफी उनका मौलिक गुण था। थोड़ी ही देर में हम दोनों उनकी कार से शहर की भव्य और चौड़ी सड़कों पर थे। छुट्टी का दिन होने के कारण खाली-खाली, सांस लेती सड़कें। शोभालालजी मौज-मस्ती से गाड़ी चला रहे थे क्योंकि वह अपनी पत्नी को अपने पास लाने की डिजायर कराने जा रहे थे। ठीक वैसे ही, जैसे कभी वे उसे ब्याह कर लाने के लिए बारात लेकर गए होंगे। [जारी]

कहानी "व्हेल वॉच " का तीसरा भाग

लेकिन मैं, मैं क्यों और किस बात पर खुश होता, इसलिए चुपचाप बैठा हुआ उनके साथ चला जा रहा था। मंत्रीजी के बंगले के बाहर गाड़ी पार्क करके जब हम लोग गेट पर पहुंचे तो वर्दीधारी संतरी ने संशय-अगवानी और ऊब की मिली-जुली भावना से हमें देखा। किन्तु मंत्रीजी की जनसुनवाई का दिन होने के कारण वह हमें रोक न सका। हम भीतर चले गए। भारी भीड़ थी। छुट्टी का दिन होने से सड़कों पर जो लोग नहीं दिख रहे थे, वे सभी शायद यहाँ थे। वेटिंग हॉल , बरामदा, कॉरिडोर सब लगभग ठसाठस, और भी आते हुए लोग। जो आ चुके थे, मोबाइलों पर बाकी को बुलाते हुए।वहां मंत्रीजी के दर्जनों निजी-सार्वजानिक-गुप्त सहायक और फिर सहायकों के सहायक घूम रहे थे। वे सभी लगातार बनती-बिगड़ती लाइनों से लोगों को पकड़ कर टेढ़े-मेढ़े रास्तों से जहाँ-तहां लगाने के काम में लगे थे। सुबह आठ बजे से जमा भीड़ पौने बारह बजे तक भी तितर-बितर नहीं हुई थी, क्योंकि भीड़ में शोभालालजी जैसे अनुशासित लोग थे,जो पत्नी, भाई, पिता, बेटी,पुत्र, मित्र या रिश्तेदार की डिजायर कराने के पवित्र काम के लिए हो रहे यज्ञ में समिधा डालने आये थे। कोई अपने महकमे की टोपी में था, कोई जाति की,कोई पहचान की, कोई फोनी-सिफारिश के भरोसे था और कुछ एक राम-भरोसे भी।
मंत्रीजी अभी आये नहीं थे। मगर उनके कमरे की चिक यदि किसी मक्खी के बैठने से भी हिलती थी तो सैंकड़ों निगाहें उस तरफ जम जाती थीं। लोगों की निगाह में कल्पना के सैंकड़ों दीपक जलने-बुझने लगते थे। उन्हें लगता था कि मंत्रीजी की चिक पर बैठी हुई मक्खी यदि उड़ कर उनके कागज़ की नाव पर बैठ जाएगी तो उनके परिजन दूर-दराज़ के बस्ती-पर्वत-मैदान और जंगल लांघ कर चले आयेंगे।
मेरे पास सोचने के लिए कुछ नहीं था। छुट्टी का दिन था। मैंने सोचा कि मैं वहीँ, उसी माहौल में अपनी छुट्टी बिताते हुए किसी सैलानी की तरह घूमने का मज़ा क्यों न लूं ?पल भर में ही मुझे लगा कि मैं छुट्टी के दिन समुद्र की सैर पर आया हूँ। समंदर में लोग दूरबीन और कैमरा लेकर तेज़ नौकाओं पर सवार होकर पानी के भीतरी नज़ारे देखने जाते हैं। मैं भी वैसा ही पर्यटक बन गया। मुझे महसूस हुआ कि जिस तरह ऑक्टोपस के आठ हाथ-पैर होते हैं, मंत्रीजी के भी वैसे ही दर्जनों सहायक हैं। मंत्रीजी की राह, वहां बैठे लोग ऐसे ही तक रहे थे, जैसे सागर में घूमते लोग पानी की सतह पर किसी व्हेल मछली के दिख जाने की तका करते हैं। [जारी]

कहानी "व्हेल वॉच " का चौथा [ अंतिम ] भाग

गहरे पानी से निकल कर विशालकाय व्हेल लहरों के ऊपर छपाक से किसी विमान की तरह कूद कर बाहर आती है। उसके आते ही चारों ओर से बीसियों बगुले फड़फड़ा कर इधर-उधर दौड़ते हैं, क्योंकि व्हेल से उड़े पानी के छींटों से सैकड़ों छोटी-छोटी मछलियाँ हवा में उछलती हैं। बगुले उन्हें ही पकड़ने के लिए झपटते हैं। इस तरह एक व्हेल की जुम्बिश से सैंकड़ों मछलियों के भाग्य का निस्तारण होता है। दर्जनों बगुले पलते हैं।यह एक अद्भुत नज़ारा होता है। प्रकृति इन बगुलों का पेट भरने के लिए व्हेल की अंगड़ाई से सैंकड़ों मछुआरों का काम कराती है। बगुलों के लिए यह कुदरत का महाभोज होता है।
बंगले के बगुले शहर भर की मछलियों को तेज़ी से मोक्ष प्रदान करने को मुस्तैद थे। व्हेल दिखी नहीं थी, मगर पानी हिलना-डुलना शुरू हो गया था। लोगों ने हाथों में डिजायर के कागज़ संभालने शुरू कर दिए थे। मैं तो केवल छुट्टी के दिन का सैलानी था, इसलिए मैंने व्हेल वॉच के लिए आँखों का कैमरा संभाल लिया था।
थोड़ी ही देर में गलियारे से आते मंत्रीजी दिखे। उनके साथ आठ-दस लोग इस तरह आगे-पीछे चल रहे थे, मानो वे न हों तो मंत्रीजी को यह मालूम न चले कि उन्हें कहाँ जाना है, कहाँ बैठना है...
अपने घर में जिस व्यक्ति को बिना मदद के यह नहीं पता चल पा रहा था कि उसे कहाँ जाना है, उसे प्रदेश-भर के सुदूर गाँव-देहातों को खंगाल कर हजारों लोगों के लिए यह तय करना था, कि किसे कहाँ से कहाँ जाना है, क्यों जाना है। जैसे एक कंकर सारे तालाब की लहरों को तितर-बितर करके पूरे तालाब को झनझना देता है वैसे ही मंत्रीजी को भी पूरा प्रदेश अपने हाथ की जुम्बिश से हिला देना था। उनकी चिक से उड़ी मक्खी जिस कागज़ पर बैठ जाती उस कागज़ की नाव सड़कों और पटरियों को पार करती, नदियाँ-जंगल-पहाड़ लांघती, खेतों-बाजारों से गुजर जाती।
लोग इसी जुम्बिश की आस में उनके नाम के जयकारे लगा रहे थे। मेरी तो छुट्टी थी, मैं तो व्हेल वॉच का आनंद लेने वाला एक सैलानी था ...!
व्यंग्य    : निश्चल :जब मच्छर ने स्वतंत्रता का अर्थ समझाया

 

स्वतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या पर एक मच्छर मेरे गाल पर बैठकर मेरा खून चूस रहा था । उसकी बदकिस्मती कि मैंने उसकी टांग पकड़ ली और कहा, ‘क्यों बे, शरम नहीं आती, मेरा खून तो वैसे भी चुसा चुसाया है, उसमें तुझे भी चैन नहीं । अरे नाशपीटे तुझे नेता, अभिनेता, भिखारी, मदारी, सेठ, साहूकारनहीं मिले सो कमबख्त एक लिखने पढ़ने वाले का खून चूस रहा है । जानता नहीं है अभी एक आधुनिक मुक्त छंद सुनाकर तुझे जीवन के बंध से मुक्त कर दूंगा । मच्छर मुक्त छंक कविता के नाम से ही कंपकंपाने लगा और बोला, ‘साॅरी सर, आप चाहो तो वैसे ही मुझे मार डालो पर कविता सुनाकर......न.... न.... न।’ मैंने कहा, ‘ठीक है । पर मैं तुझे मारूंगा जरूर । ’
वो बोला, ‘मेरा कसूर क्या है ?’
मैंने कहा, ‘अबे घोचू । कसूर पूछता है । अबे मेरे गाल पर तू खून चूसेगा तो क्या मैं तुझे दूसरे गाल पर बिठाउंगा और अपना खून चुसवाउंगा !’
वो घबराकर बोला, ‘पर सर ! कल आप स्वतंत्रता दिवस मनाने वाले हैं और आज आप मेरी ही स्वतंत्रता पर अटेक कर रहे हैं । ये तो घोर अन्याय है ।’
मैं भी ताव में आ गया । मैंने कहा, ‘अबे स्वतंत्रता तो ठीक है पर वो हम हिन्दुस्तानियों की है । तुम मच्छरों की नहीं । पर तुम नाशपिटे फिर भी सब जगह घुसे फिरते हो ।’
मच्छर इतने सारे आदर सूचक वाक्य सुनकर उकता चुका था सो सीना फुलाकर बोला, ‘अबे जाओ खुद को स्वतंत्र कहते हो । एक काम कर सकते नहीं और हम मच्छरों से कम्पेरिजन करते हो ।’
मैं चैंका, मैंने कहा, ‘क्या मतलब ?’
वो चिल्लाया, ‘अबे अब मतलब क्यों समझेगा । अच्छा चल बता अपनी स्वतंत्रता के बारे में ?’
मैंने बताया , ‘देख, हम कहीं भी आ जा सकते हैं । कहीं भी कुल्ला पीक कर सकते हैं, दारू सिगरेट पी सकते हैं । कुछ भी तोड़ फोड़ सकते हैं । धरना हड़ताल कर सकते हैं ।’
बीच में टोकते हुए वह बोला, ‘सब बकवास, सब थेथी बात हैं तेरी ।’
मैंने कहा, ‘वो कैसे ?’
वो बोला, ‘सुन तू कुछ नहीं कर सकता । तू जो कह रहा है कहीं भी आ जा सकते हैं तो ये कौन सी अनोखी स्वतंत्रता है । चल मेरे प्रश्न का जवाब हां या ना में देना और खुद देखियो कि तू कितना स्वतंत्र है ।’
मैंने चैलेन्ज स्वीकार कर लिया । सिलसिला षुरू हुआ, वो बोला, ‘जनरल टिकिट लेकर रेल में सीट मिली है ?’
मैंने कहा, ‘नहीं ।’
उसने कहा, ‘सरकारी अस्पताल में इलाज कराकर कीाी ठीक हुआ है ?’
मैंने कहा, ‘नहीं ।’
फिर उसने पूछा, ‘बगैर जुगाड़ के कभी थाने में तेरी रपट लिखि गई है ?’
मैंने कहा, ‘नहीं ।’
वह फिर बोला, ‘सरकारी बाबू ने घूस के बिना कभी तेरा काम किया है ?’
मैने कहा, ‘नहीं ।’
वह मुस्कुराते हुए फिर बोला, ‘बिना गड्ढे वाली सड़क कभी देखी है ?’
मैंने कहा, ‘नहीं ।’
वह फिर बोला, ‘अच्छा, कम नम्बर आने पर भी तुम्हारे बच्चे का किसी अच्छे कॉलेज में एडमिशन मिल पाया है ?’
मैंने कहा, ‘नहीं ।’
उसने फिर प्रश्न मेरे सम्मुख टांगते हुए कहा, ‘गली के नुक्क्डत्र को बिना कूड़े के देखा है ?’
मैंने कहा, ‘नहीं ।’
अच्छा यह बताओ, ‘नेताओं ने किया वादा कभी पूरा किया है ?’
मैंने कहा, ‘नहीं ।’
अच्छा, ‘बिना तिकड़म के कोई पद या सम्मान प्राप्त किया है ?’
मैंने कहा, ‘नहीं ।’
अच्छा अब ये बताओ, ‘बिना चेकिंग के ताजमहल में घुसा है ?’
मैंने कहा, ‘नहीं ।’
‘तुम्हें यह तो मालूम ही होगा कि देष आजाद हुए कितना समय हो गया ।’
मैंने कहा, ‘नहीं ।’
तभी वह अपने होंठों पर उंगली रखकर व्यंग्य से मुस्कुराया और बोला, ‘तो बेटा ये ही तुम्हारी स्वतंत्रता ? अरे इससे ज्यादा स्वतंत्र तो तुम आजादी से पहले थे । तब इन प्रश्नों में से कुछ के जवाब तो तुम हां में देते थे ।’
मैंने फिर भी प्रतिकार किया और कहा, ‘पर क्या हम स्वतंत्रता की सांस तो ले रहे हैं । आज हम स्वतंत्र राष्ट् हैं दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है ।’
तो वो इतराकर बोला, ‘अच्छा वही लोकतंत्र जहां लोग तंत्र के षडयंत्र में फसकर परेशान हैं । वहीं लोकतंत्र जहां की संसद आम आदमी की पहुंच से दूर है और आतंकवादियों की आर डी एक्स के लिए पास है । वही लोकतंत्र जहां मंत्री गाली देते हैं, कुर्ता फाड़ते है, गुलछर्रे उड़ाते हैं, किसान मरते हैं तो वो ही मंत्री क्रिकेट देखने जाते हैं । स्पीकर को ही साइलेन्ट कर देते है । वही लोकतंत्र जहां पचमेल खिचड़ी जैसी सरकार चलती है जो जनता के चिंतन से दूर टिके रहने की चिंता में ज्यादा व्यस्त रहती है । अबे जाओ घौचुओं, तुमसे ज्यादा तो हम स्वतंत्र हैं चैन से कुछ भी बिना जुगाड़ कर सकते हैं । तुम्हारी लोकतांत्रिक कमियों के चलते बिंदास रहते हैं, सरकारी अस्पतालों दफ्तरों में बाबुओं की सीट के पास टांग पसारकर उनकी तरह ही आराम फरमाते हैं । तुम्हारे वोट से जीते नेताओं के खून का भी एक आध पैग लगाते हैं । चक्क से जीते हैं, आल आउट को आउट करके चैन से तुम लोगों का खून चूस चूसकर गुडनाईट में पार्टी मनाते हैं । षान से जीते हैं बच्चे, तुम्हारी तरह घिस घिस के नहीं बल्कि षान से ही बिना पोस्टमार्टम के ऊपर चले जाते हैं ।’
इतना कहते कहते उसका जोष जबरदस्त हो गया और वो बोला, ‘अबे मुझे छोड़ता है कि नहीं । अगर मुझे मारेगा तो पछतायेगा । मेरा डेंगू चाचा नेता का खून चूस तुझे काट लेगा और बेटा तू सरकारी अस्पताल की षय्या से ऊपर निकल जायेगा ।’
मैं घबराकर चक्कर में पड़ गया और मच्छर मेरे हाथों से रफूचक्कर हो गया । मैंने सोचा, ‘यार बात तो सही है कि क्या हम यूं ही स्वतंत्र हैं, खुद को भूले जा रहे हैं, बच्चों को न जाने क्या सिखा रहे हैं, अपने ही साहित्य को छोड़ रहे हैं, बसों ट्रेनों को तोड़ रहे हैं, पड़ोसी को- रिष्तेदार को ही लूट रहे हैं । जाति में बांटकर अपनत्व एकता का घटा रहे हैं । आपस में लड़ते, पिटते, मरते जा रहे हैं । तब भी हम स्वयं को स्वतंत्र कह इठला रहे हैं । इसी बीच मच्छर की भिनभिनाहट कान में आयी । मेरी आंख खुली, मैं जागा । मैंने खिड़की से बाहर झांका, मोहल्ले के नुक्कड़ पर पड़े कुड़े ढेर पर मच्छर मंडरा रहे थे । शायद वे सदा सर्वदा की तरह अपनी असल स्वतंत्रता का एक और हसीन दिन मना रहे थे ।
पुस्तक समीक्षा :                   अपने समय  से जूझती कविताएं
 
 

कपिलेश भोज का कविता संग्रह ‘यह जो वक्त है’ अभी पिछले दिनों परिकल्पना प्रकाषन, लखनऊ से आया । इससे पूर्व उनकी कविताओं का प्रकाषन देश की प्रमुख साहित्यिक पत्रिकाओं में होता रहा है । इस संग्रम में उनकी कुल जमा 54 कविताएं संग्रहित हैं जो चार खण्डों में विभक्त है, पहला खण्ड चीखती है नदियाँ, दूसरा कोई किसी को नहीं पुकारता यों ही तीसरा रोषनी को पाने से पहले और अन्तिम चैथा खण्ड है किताबें लिये चल रहे हैं नौजवान । इन चार खण्डों में विभक्त इन 54 कविताओं में पहाड़ के जीवन की विरल छवियाँ तो है ही साथ ही है जीवन के लिए संघर्ष करते इंसान की जीजिविषा के निशान जो शब्दों में ढलकर कविता के रूप में उपस्थित हुए हैं । इन कविताओं में साँस ले रहा जीवन अपनी जड़ों से जुड़े लोगों को समेटे हुए है और साथ ही ये साक्षी है उन स्वप्नों की जो आम आदमी के मन में तनते हैं इन्द्रधनुष बनकर । उनके पीछे भागते हुए कुछ लोग निकल आते हैं अपना सब कुछ छोड़कर, अपनी जड़ों को, अपने पर्वतों को, अपनी नदियों को, अपने जंगलों को और अपने रिष्तों को किन्तु इस संग्रह की कवितायें इनका बखान नहीं करती अपितु ये विरेचित करती है उन मूल्यों को जो अभी भी अपने में अपनी जड़ों को समाहित किये हुए हैं, ‘तुम्हारी कविताओं में, मित्र, मैं तलाशता हूँ आदमी, मगर कहीं पता नहीं चलता उसका, मैं ढूँढता हूँ फिर से, व्यथाओं में डूबे और उससे लड़ते आदमी को, लेकिन मुझे मिलता है वहाँ, दोपहर के सन्नाटे में, टूटता हुआ कोई पत्ता , मुंडेर पर बैठी एक चिडि़या और पिघलती हुई जादुई चाँदनी, नज़र नही आता सिर्फ आदमी ं।’ कपिलेष कविताओं में इन्सानित के क्षय होने को बड़ी गंभीरता से पकड़ते हैं और अपनी चिंता जाहीर करते हुए कहते हैं, ‘देश के दूर दराज़ इलाकों के गंवार लोग, बसों में टकराते हैं जब हमसे, तो उन्हें हिकारत से देखते हुए हम, बिचका लेते हैं मुंह, हँसते हैं और बुदबुदाते हैं उनकी मुर्खताओं पर, ‘आ जाते हैं न जाने किन जंगलों से....हम राजधानी के सभ्य बाशिंदे हैं ।’
इस संग्रह की कविताओं में समय का विन्यास नज़र नहीं आता और न ही किसी तरह की मांसलता दिखाई पड़ती है किन्तु इन कविताओं जो छटपटाहट दिखाई देती है, वह हमे सोचने को विवष करती है, ‘एक अकेली पीली चिडि़या दीखती है पहली बार, दीखते हैं इक्का दुक्का लोग, गुढ़ की भेलियाँ और सामान की पोटलियाँ सिर पर रखे, दुकानों से लौटते हुए, लौटते हुए बच्चे भी स्कूलों से....’ (पहाड़ में पतझड़ ) कवि इन कविताओं के सहारे रचता है एक नया संसार जिसमें कुलांचे भरती हरीयाली न केवल आँखों को ठण्डक पहुँचाती है अपितु मन को भी चैन । इस भागती दौड़ती जिन्दगी के बीच जहाँ बाज़ार अपने पूरे पंख फैलाये पसरा है जबकि कवि इसी में खोजता है इंसानियत के तंन्तु, ‘आँखों में है संदेह, वासना और घमण्ड से भरी है आँखें, नहीं है एक क़तरा प्यार, नहीं है एक क़तरा हरीयाली, मैं ढूढता उसी एक क़तरे हरीयाली को....’ वर्तमान समय की बुराईयों से दबे हुए आम आदमी की हिमाकत करते हुए कवि उसके पक्ष में खड़ा नज़र आता है, ‘...इसीलिये शराब पिया आदमी, और ऊँची आवाज़ में गरजता है, अब कभी भी वह बेइज्जत कर सकता है, भले आदमी को एन चैराहे पर....’ (चुप है भला आदमी ) किन्तु इस सबके बीच उसे मिलते है अपने अन्दर ही सुख के न जाने कितने स्रोत्र । उसकी ऐन्द्रिकता में खोने की अपेक्षा वह संवेदना और प्रकृति को अपना हमराज बनाता है और इससे जन्म लेती है संवेदना के अनूठे बिम्बों की नयी ज़मीन उस पर पाठकों को निद्र्वन्द्व घुमाते हुए वह उस दुनिया प्रवेश करता है, जहाँ किनारों पर तलछट जमी है, ‘बाहर ही नहीं, मेरे भीतर भी पहाड़ और नदियाँ, समंदर और रेतीले ढूह, और इन सबके बीच बहता हुआ जीवन...बहुत से आदमी, और बहुत सी औरतें, और बहुत से बच्चे, भूख, ठण्ड और गर्मी से दम तोड़ते हैं...’ कपिलेष इन संवेदनाओं को अपने खींसे में सहेजकर रखते हैं और वक्त जरूरत इनका उपयोग करते है, वे लाद कर लाये थे, अपने ज़मानें के युवाओं की अषान्ति, उनके विभ्रम और उनके दर्द, उधेड़ रहे थे वे उन्हें ही, और बनाने की कोशिश में थे, एक पगडण्डी.... बाहर थी शान्ति, लेकिन वे जूझ रहे थे, अपने जमाने की अशान्ति के झंझावात से...’
समीक्ष्य संग्रह की कविताओं में पसरा मानवीय संवेदना का वैविध्य संसार कुलांचे मारता नज़र आता है । कवि शब्दों की बैसाखी से भावनाओं की पतली सी पगडण्डी पर चलने लगता है और फिर वहाँ से निकलता है चैड़ा रास्ता जो भविष्य की ओर ले जाता है, ‘देखना चाहता हूँ मैं, कहे और अनकहे के बीच, कितना खोज पाती हो तुम, चीज़ों को, आखिर मुझे भी तो जाननी है, तुम्हारी चाहत, और परखनी है, तुम्हारी संवेदना की गहराई ।’ बात यहीं खत्म नहीं होती, वह दूर तक जाती है, ‘हँसी क्या है तुम्हारी, पहाड़ की कोख से फूटता हुआ झरना है कोई, या गरमी की तपती दुपहरी में, घनी पत्तियों से ढंके, पेड़ की छाँव है, यह गहरी....’ कवि अपनी सृजन की दुनिया में चालू मुहावरों का उपयोग नही करते अपितु सादगी के भीने सौन्दर्य को पकड़ने का प्रयास करते है सरलता उनकी कविताओं की ताकत है, और वही अजस्र उर्जा भी जो फूटती है उनकी कविताओं में शब्द शब्द, ‘कितना अच्छा होता....उस जीवन की रचना में, साथ होते तुम भी हमारे, अपनी कविताओं के साथ, जिसका सपना सुना है गुँजता है तुम्हारी कविताओं में बारम्बार ।’ (कुछ मजदूरों का पत्र कवि के नाम ) कवि प्रेम और संवेदना के साथ प्रकृति का अद्भूत तालमेल बिठाता है, और जो चित्र उभर कर आते है उसके रंग काफी चटक हैं , जो देर तक हमारे साथ रहते हैं, ‘हम दोनों को जोड़ती है यह नदी, तुम तक पहुँचाती है यह मेरा पैगाम....फसलों को लहलहाती, धरती और प्यासे कंठों को सींचती, हरहराती रहे, बहती रहे, सरसराती हवा के साथ यह...आओ करें हम सब इसका जतन, क्योंकि जितनी सूखेगी यह नदी, उतने ही सूखेंगे हम...।’
इस संग्रह की कविताओं में कपिलेष अपनी जड़ों के निकट नज़र आते हैं, अपने पर्वतो, अपने जंगलों, अपनी नदियों और अपने झरनों के निकट । जो एक ओर मन में सौन्दर्य की ललक पैदा करते हैं तो वहीं दूसरी ओर जीवन, संघर्ष और सपनों की ऐसी बिसात बिछाते हैं, कि पाठक के मन में इन कविताओं को पढ़ते हुए जो दुनिया कुलांचे मारती है, वह असिम उर्जा से भरी हुई है, ‘वे हर उस व्यक्ति के चारो ओर कस रहे हैं घेरा, जो अन्याय, शोशण और जुल्म को देख सुनकर बन्द नहीं कर पाता है अपने आँख, कान, न्याय और आज़ादी के पक्ष में उठी हर मुट्ठी में उन्हें दिखाई देता है नक्सलवाद और माओवाद ।’ कवि समय रहते सावचेत करते हुए कहना चाहता है, ‘खतरे की बज चुकी है घण्टी, इसीलिये खतरनाक है बहुत, अब और अधिक सोये रहना, अनिष्चय में ढूबे रहना...या फिर तलाषना कोई सुरक्षित एकान्त...।’ कवि को सभी समस्याओं का समाधान जन सामान्य की जीजिविषा में ही नज़र आता है, वह संवेदना के धागे को इतना महिन कातता है कि उसमे से चमकने लगता है समय वकर वरक, ‘धँसना तो होगा ही जन अरण्य में, समा जाना होगा उसमें, क्योंकि वहीं से मिलेगा अभेद्य कवच, और वहीं से जगेगी जीने की ललक ।’ कवि अपनी कविताओं में जन आकाक्षाओं के प्रति आष्वस्त है । वह एक ऐसे धरातल का निर्माण करना चाहता है, जिसमें सामान्य जन जीवन में व्यप्त त्रासदियों और विडम्बनाओं को सहेजा गया हो पूँजी की तरह । और इस पूँजी का उपयोग किया जा रहा हो बाज़ार के पक्ष में । मानवता के खिलाफ किये जा रहे षडयंत्रों को इंगित करते हुए कवि कहता है, ‘दुष्मन की घेराबंदी, रात के अंधेरे और सर्द हवा को, तीर की तरह चीरते हुए, जहाँ भी पहुँचते हो तुम, उम्मीदों और साहसों की मषाले जल उठती है वहाँ...।’
कपिलेष अपनी कविताओं में पकड़ते हैं पे्रम और इसकी विरल अनुभूतियाँ को चित्रित करते करते हुए नज़र आते हैं बार बार । उनकी सृजन दुनिया में प्रेम चलताऊ रूप में नहीं आता है अपितु उसके कई गुणाथ प्रकट होते हैं, ‘युवक लिखने लगा, प्रेम की तड़पा देने वाली अनुभूतियों पर कविताएँ, युवती ने गदगद् होकर कहा, लाजवाब हैं तुम्हारी ये प्रेम कविताएँ लेकिन वह पकड़ नहीे पायी, कविताओं में पाश्र्व संगीत की तरह छायी, इस अनुगूँज को कि ‘मैं करने लगा हूँ तुम्हें अपने दिल की गहराई से प्यार...युवती जितने ही मुग्ध भाव से करती गयी प्रषंसा उसकी कविताओं की, वह असन्तुष्टि और उलझन के भँवर में डूबा, होता गया उससे उतना ही दूर ।’ कवि इस सिलसिले को वक्त के पैमाने पर परखता चलता है और साथ ही इसकी जड़ों में समा रहे बाज़ार की कुटिलता को भी पकड़ने की कोशिश करता है और कामयाब भी होता है इसीलिये उनकी बेहद तरल, सरल भावनाएं कविता में अभिव्यंजित होती है और रिष्तों के बहाव में आ रही सभी बाधाओं के बरअक्स अलमस्ती, किलकारियाँ और पानी सी पारदर्शिता के लिये नज़र आते हैं । तभी तो वह सावचेत करते हुये कहता है, ‘किताबों में न कोई बम है, न कोई पिस्तोल, और न ही तेजधार वाला कोई चाकू, फिर भी वे भयभीत हैं, उन किताबों से, जिनमें सपने हैं, बहुसंख्यक जन की आज़दी और ख़ुशी के, और जो ऐसे सपनों को पूरा करने का रास्ता बताती है....।’ कपिलेश अपनी कविताओं में आषा की एक नई किरण लेकर उपस्थित होते हैं, जिससे झिलमिलाती लो दूर तक दिखाई देती है । वे रिष्तों की ज़मीन पर उकेरते हैं भावनाओं के अरक और अपनी इस मुहिम में वे कई बार सपाट बयानी का जोखिम भी उठाते नज़र आते हैं । बावजूद इसके उनकी कविता यायावर की जिजीविषा का आद्य बनती है, ‘....सदिसों से जिसकी गोद में पले बड़े हैं, धरती के बेटे और बेटियाँ जिसे सजाया और सँवारा है उन्होंने और जिसके कण कण से है उन्हें असिम प्यार, नहीं रही अब वह उनकी...।’
कपिलेश भोज की कविताओं का यह संग्रह ‘यह जो वक्त है’ में संग्रहित इन 54 कविताओं में जीवन की आँच को आसानी से पकड़ा जा सकता है, साथ ही इन कविताओं में आती वर्तमान समय आर्त पुकार को भी सुना जा सकता है । निसंदेह इन कविताओं के माध्यम से उनकी रचनात्मक उद्यमिता से भी परिचित हुआ जा सकता है । यह संग्रह उनके काव्य जीवन का एक महत्वपूर्ण पड़ाव साबीत होगा ।

रमेश खत्री