Saturday, October 6, 2012

 हिन्दी का समाज काफी विस्तृत है । यह न केवल हिंदुस्तान वरन दुनिया के कई देशों तक फेला हुआ है । इसी समाज में कई बोलियां भी अपना अपना दायभाग जोड़ रही है । यह केवल लेखकों, बुद्धिजिवियों का ही नहीं अपितु यह उस आम आदमी का भी है जो शहर की चकाचौंध से दूर रहकर गाँव में अपना जीवन यापन कर रहे हैं । दरअसल वही इसका सच्चा प्रचारक है जिसे हम भूले हुए हैं । हिंदी पर ये आरोप भी लगाया जाता रहा है कि  इसके शब्दों  में उस तरह की धार नहीं है जर्सी कि अन्य भाषा के शब्दों में होती है । किन्तु यह आरोप सरासर बेमानी हो जाता है क्योंकि इसके अपने शब्दों की संख्या ही अन्य भाषा के शब्दों से अधिक है । इसी कारण इसके हर एक शब्द का अपना अलग अर्थ होता है जबकि अन्य भाषा में इस तरह की सुविधा नहीं है । यह भी कम चोकने वाला तथ्य नहीं है कि हिन्दी का विरोध हिन्दी के लोग ही करते हैं । इसे वे एक ऐसी भाषा के रूप में प्रस्तुत करते हैं मानो यह दलित भाषा हो, जबकि यह निर्विवाद है कि विकास और समृद्धि का मार्ग इसी की शिराओं से जाता है ।
बहरहाल, पत्रिका का इस अंक में हमारे साथ हैं हिन्दी के वरिष्ट कवि स्व. भगवत रावत की कविताएं, अनुराग वाजपेई का व्यंग, ‘सोना उगलने वाला पेन’, प्रसिद्ध कथाकार संतोष श्रीवास्तव की डायरी के पन्ने, ‘ प्रशान्त महासागर पर आरती के थाल सा थाईलैंड’ साथ ही वरिष्ट कथाकार सूरज प्रकाश की कहानी, ‘डराहुआ आदमी’ और साथ ही एक आलेख, ‘अज्ञेय की कथा नारी’ आशा है आपको पत्रिका का यह अंक पसंद आयेगा । आपके अमूल्य सुझाव् हमारी धरोहर होंगे और रचनाएं पत्रिका को समृद्ध करेंगी ।
जल्दी ही मिलते हैं पत्रिका के नये अंक के साथ ।
रमेश खत्री


 
 
कविता : भगवत रातव
झासी शहर ने जिस कवि को रचा था वो थे भगवत रावत जीवन के उतार चाडावों से जूझते उन्होंने अपनी कविता में मनुष्य की आवाज़ को पकड़ने का पुरे जीवन प्रयास किया इसीलिए उनकी कविता में आदमी के दर्द को समझा जा सकता हें - संपादक

आदमी पर
लिखी नहीं जाती्र अब कविताएं
दरअसल मैं अब
फूल पत्ती दरख्त पहाड़ नदियां
जंगल समुद्र
यहां तक कि
कविताओं से हटकर
सीधा आदमी पर आना चाहता हूं

आदमी
जिसमें समाहित हैं
फूल पत्तियां दरख्त पहाड़ नदियां
यहां तक कि
धमनियों शिराओं में
बहते रक्त की तरह
फैली है कविताएं

बच्चा

अलखसुबह
काम जाता हुआ बच्चा
कोहरे में डूबी हुई सड़क
पार कर रहा है
सड़क जितनी लम्बी है
सड़क जितनी सूनी है
उतनी दूनी भी है
सड़क को यह सब नहीं पता
और बच्चा
उसे भी कहां पता कि वह
सड़क पार कर रहा है

कटोरदान

अलमुनियम का वह दो डिब्बो वाल
कटोरदान
बच्चे के हाथ से छूटकर
नहीं गिरा होता सड़क पर
तो यह कैसे पता चलता
कि उसमें
चार रूखी रोटियों के साथ साथ
प्याज की एक गांठ
और दो हरी मिरचें भी थीं

नमक शायद
रोटियों के अंदर रहा होगा
और स्वाद
किन्ही हाथों और किन्हीं आंखों में
जरूर रहा होगा

बस इतनी सी ही थी भाषा उसकी
जो अचानक
फूटकर फैलगई थी सड़क पर
यह सोचना
बिल्कुल बेकार था कि उस भाषा में
कविता की
कितनी गुंजाइश थी
या यह कि बच्चा
कटोरदान कहां लिये जाता था


इतनी थक चुकी है वह

इतनी थक चुकी है वह
प्यार उसके बस का नहीं रहा
पैंतीस बरस के
उसके षरीर की तरह
जो पैंतीस बरस सा नहीं रहा

घर के अंदर
श्रोज़ सुबह से वह
लड़ती झगड़ती है बाज़ार से
और बाज़ार से रोज षाम
घर ढूंढते ढूंढते खो जाती है

रोटी बेलते वक्त अक्सर वह
बटन टांक रही होती है
अपने कपड़े फींचते वक्त
सुखा रही होती है धूप में
अधपके बादल

फिरकी सी फिरती रहती है
पगलाई वह
बच्चों को डांटती फटकारती
और बिना बच्चों के सूने घर में
बेहद घबरा जाती है
कितनी थक चुकी है वह

मैं उसे एक दिन
घुमाने ले जाना चाहता हूं
बाहर
दूर
घर से बाज़ार से
खाने से कपड़ों से
डसकी असमय उम्र से



निशानेबाज़ी

निशानेबाज़ी की प्रतियोंगिता में
छेदे गए जा चेहरे हज़ार बार
ताज्जुब हैं
पथराई आंखें
साबुत बची रहीं
और फिर बहस हुई
घंटों लगातार
एक एक गोली
एग एग दाग पर
आंखें चुराते हुए
बस आंखें समस्या थीं
उनका न होते हुए भी होना
भयावह था
और अगर वे सचमुच आंखें थी
तो उनमें
रोशनी कभी भी आ सकती थी ।

डर

ठतने डरे हुए हैं वे लोग
थ्क खतरे को खतरा कहते हुए
ज़ुबान की तरह
खुद लड़खड़ाने लगते हैं

च्ेहरे की संतुष्ट सुर्खी
पीली पड़ने लगती है
आंखें गोल गोल घुमती हुई
सूंघने लगती हैं
कि आस पास
कहीं कोई डर तो नहीं

वे हर लड़ाई में
अपनी हाजिरी लगवाना चाहते है।
वे लड़ना चाहते हैं ऐसी लड़ाई
जहां लड़ाई सिर्फ एक शब्द हो
घरों में रखी हुई उन चीज़ों की तरह
जे उनका दर्जा बताती हैं

उन लोगों से मिला था मैं कल षाम एक सभा में
सुविधाओं के मारे हुए
वे जुबान की जगह टेपरिकार्ड लाए थे
मुद्दों की परिभाषा पर
बहस करना चाहते थे
कोई भी निर्णय लेते लेते
उन्हें डर था कि कहीं
निर्णय हो तो नहीं गया ।

भरोसा

वह बरतन वाली बाई
बहुत बोलती है

घर घर में
बरतन झाड़ू पोंछा करते हुए
बात
क्रती ही रहती है
चाहे कोई सुने न सुने
सभी को
अपनी कथा बताती है

उसके मैंले झोले में
असकी लड़की की
बहुत पुरानी फोटो है
ज बवह लड़की थी
तेरह की या चैदह की
वह कहती है
छह सास साल पहले
उसके
अपने पापी घरवाले ने
अपने ही गुंडे भाई ने
मिलकर
उसकी लड़की को बेच दिया
वह मरी नहीं

जिससे भी वह यह कहती है
कुछ देर सोचने लगता है
बस इतनी देर ठहरते सब
फिर सब कुछ
चलने लगता है वैसा ही जैसा पहले था
पर बरतन वाली बाई
पिछले सात साल से
कमा कमा कर
पैसे जोड़ रही है
उसने मन में ठानी है
वपह किसी एक दिन
अपने घरवाले को
अपने ही सगे भाई को
बंद करवाएगी

वह सबको बतलाती है
कैसे उसने
थाने में जाकर
रपोट लिखवाई
कैसे झोपड़पट्टी में आने वाले
सारे नेताओ के घर मिलकर आई

कैसे वह
सबसे बड़े पुलिस अफसर को
दोनो मुलजि़म के
नाम पते दे आई
कैसे उसने
अखबारों के दफ्र में
अपनी आंखों के आगे
खबर लिखाई
कैसे उसने
मंत्री के बंगले पर ही
उनको अपनी सारी बातें समझाई
फिर जरा पार आकर
कान में धीरे से बतलाती है
कैसे
कुछ जानकार लोगों के जरिये
रूपया पैसा भी
सही जगह दे आई

उसे भरोसा है कि एक दिन
अपराधी पकड़े जाएंगे
उसे भरोसा है कि एक दिन
उसकी लड़की मिल जाएगी
उसे भरोसा है
उसकी लड़की जि़दा है
उसे भरोसा है
उसकी लड़की
अब भी लड़की है ।


ऐसी भाषा


सारी उम्र बच्चों को पढ़ाई भाषा
और विदा करते समय उन्हें
पास में नहीं था एक ऐसा शब्द
जिसे देकर कह सकता कि लो
इसे संभाल कर रखना
यह संकट के समय काम आएगा
या कि यह तुम्हें शर्मिन्दगी से बचाएगा
या कि यह तुम्हें गिरने से रोकेगा
या कि जरूरत पड़ने पर यह तुम्हें टोकेगा
या कि तुम इसके सहारे किसी भी नीचता का सामना कर सकोगे
या इतना ही कि कभी कभी तुम इससे अपना खालीपन भर सकोगे
या कि यह शब्द दो जून की रोटी से बड़ा है
कुछ भी नहीं था मेरे पास
कुछ भी नहीं है - यह तक कह सकने की
भाषा न थी ।


मौत

आंखें जब सब कुछ देखते हुए भी नहीं देखतीं
कान के पर्दे जब किसी आवाज़ पर नहीं कांपते
हाथ पैर जब किसी भी घटना पर नहीं हिलते डुलते
असर नहीं करती जब नथुनों पर चारों ओर फैली सड़ांध
दिल जब धड़कते धड़कते किसी बात पर नहीं धड़कता

क्या इसी तरह नहीं होती आदमी की मौत
क्या यह सब किसी खास लम्कें में ही होता है
फिर किसका किया जा रहा है इंतज़ार
कब होगी मौत की घोशणा ?

बैलगाड़ी

एक दिन औंधे मुंह गिरेंगे
हवा में धुंए की लकीर से उड़ते
मारक क्षमता के दंभ में फूले
सारे के सारे वायुयान

एक दिन अपने ही भार से डूबेंगे
अनाप शनाप माल असबाब से लगे फंदे
सारे के सारे समुद्री जहाज़

एक दिन अपनी ही चमक दमक की
रफ्तार में परेशान सारे के सारे वाहनों के लिए
पृथ्वी पर जगह नहीं रह जायेगी

तब न जाने क्यों लगता है मुझे
अपनी स्वाभाविक गति से चलती हुई
पूरी विनम्रता से
सम्यता के सारे पाप ढोती हुई
कहीं न कहीं
एक बैलगाड़ी जरूर नज़र आएगी

सैकड़ों तेज़ रफ्तार वाहनों के बीच
जब कभी वह महानगरों की भीड़ में भी
अकेली अतमस्त चाल से चलती दिख जाती है
तो लगता है घर बचा हुआ है

लगता है एक वहीं तो है
हमारी गतियों का स्वास्तिक चिन्ह
लगता है एक वही है जिस पर बैठा हुआ है
हमारी सभ्यता का अखिरी मनुष्य
एक वही तो है जिस खींच रहे हैं
मनुष्यता के पुराने भरोसेमंद साथी
दो बैल ।


अकेले में धन्यवाद

जिन लोगों से घिरा रहा जीवन भर
हरदम जिनके सुख दुख में जिया मरा
जिनके लिए मैं और जो मेरे लिए हर मौके पर
रहे अनिवार्य
ऐसा क्यों हुआ
कि साठ की उम्र तक आते आते भी
बन नहीं सका उनमें से सचमुच का कोई ऐसा रिष्ता
जिसे कहते हुए रिष्ता शब्द छोटा पड़ जाता

जिनसे कुछ बना, उनसे बना इतना अचानक
बिना ज्यादा जाने पहचाने, बिना ज्यादार रहे सहे
एक दूसरे के साथ कि उसे
महज संयोग के कुछ और कहा जा नहीं सकता

बेहद अकेले में
खुद के भी होने का पता न चले, इतने अकेले में
खटखटाया जिसने दरवाजा उसका हाथ तो
खुली आंखों के सामने जीवने में इतनी दूर, इतने पीछे
इतने आंखों में अंधेरे में इतना खामोश रहा कि कभी कभी तो लगा
जैसे हो अपना ही हाथ

सदी के अंत की इस भाग दौड़ में
न जाने कैसे बचे रह गए इस साथ को कहां ले जाकर
किस माटी में रोप दूं कि अगली सर्दी में वह
जाने अनजाने थोड़ा बहुत ही
किसी को दिखाई दे जाए

रहे वे लोग, जिनके बीच गुजारी उम्र तो अब उनके साथ को
किस भाषा में कहूं जिससे सचमुच निकले यह अर्थ कि उनके बिना
जीवन संभव ही कहां था
उनके बिना मिलते कैसे जीवन के इतने स्वाद

किस तरह दूँ उन्हें धन्यवाद कि वह
सिर्फ धन्यवाद जैसा न लगे ।

सजा हुआ कमरा


वह एक सजा हुआ कमरा था
अय्याश जिस्म की तरह
खूबसूरत फर्नीचर
पंखों और रोशनियों से लैस

दरवाजे खिड़कियां
सब भीतर की ओर खुतले थे
बीचों बीच
बैठते थे चंद नकाबपोश
उनके हाथों में डोरियां थी
वे कभी भी उनके सहारे
किसी को भी
मुंह के बल कर सकते थे
कमरे में
केवल घुटनों और कुहनियों के बल
चलने की इजाज़त थी
आखिरकार
उसने यह फासला तय किया
दरवाज़े से मेज तक लेटकर
और फिर
मेज के नीचे की सुरंग
घुटनों के बल पार कर

वह आया
और जादूगर की तरह
मंच पर तनकर खड़ा हो गया
इस तरह
मानों सारा जाल उसने
सीना ताने काटा हो
इसके बाद उसने
एक एक कपड़ा उतारकर
लोगों को दिखाया
सचमुच उनमें एक भीष्षल नहीं पड़ी थी ।

पीठ

बात बोझ ढोने की नहीं है
न बात बोझ की है
बात महज मेरी पीछ की है
तुम यह सब महसूस करने का
नाटक करते हुए
मेरी पीछ पर
चाबुक जमाना चाहते हो
पर अब
पीछ की ष्षर्म
और चाबुक के क्रोध में
सांठ गांठ हो गई है
तुम चाहो तो
मेरी पीठ
घर ले जा सकते हो
और दोनों को खूंटी पर
साथ साथ टांगकर
मजे से सिगरेट पी सकते हो ।


सफर में किताब

एक तरफ रख दो हाथ की यह किताब
घाटियों से गुजर रही ट्रेन
दिन का समय
और उपर से बरसात

विन्ध्य की ऊबड़ खाबड़
लगभग निर्वसन आदिरूपा श्यामल चट्टानी घाटियों ने
अपने ऊपर ओढ़ ली है
अपने ही अंदर छिपी हरीतिमा
कि उनके अंग अंग उभरकर लाज से ऐसे ढंक गए हैं
कि साकार हो गए हैं
कि उनका अपना मटमैला रंग
उद्दाम आवेग में उड़कर आसमान हो गया है

ये चकाचैंध पैदा करती बर्फानी घाटियां नहीं
न पल पल आकार बदलती
मयवी रेतीली घाटियां हैं
जीवन के सुख दुख से अपनी विपन्नता में तपी
वही ष्ष्यामला चट्टानी घाटियां हैं
जो हमेषा अपने दारूण दुख में
दुबकी ही रहती हैं
लेकिन प्रसन्नता में जब खुलती है किसी किताब की तरह तो
आसमान में नगाड़े बज उठते हैं
और वह टूटकर ऐसे बरस पड़ता है
जैसे फट पड़ा हो धीरज का वितान
और वे जंगल में मोरों की तरह नाच उठती हैं

सहज और सामान्य की प्रकृति और पुरूष के
महोत्सव से होकर गुजर रहे हो तुम
भाग्यवान हो
रेल की खिड़की से ही सही
पढ़ने को मिल तो रही है यह
दुर्गम किताब ।
  

कहानी : दरहुआ आदमी :सूरज प्रकाश 
 मैंने अपनी कहानी का अंत ऐसा तो नहीं चाहा था। भला कौन लेखक चाहेगा कि जिस आदमी को कथा नायक बना कर उसने अरसा पहले कहानी लिखी थी, उसे न केवल लुंज-पुंज हालत में देखे बल्कि अपनी कहानी को आगे बढ़ाने पर मज़बूर भी होना पड़े। एक अच्‍छे-भले आदमी पर लिखी गयी ठीक-ठाक कहानी आगे जा कर ऐसे मोड़ लेगी, मैं कभी सोच भी नहीं सकता था। अपने कथा नायक की ये हालत देख कर अब न तो चुप रहा जा सकता है और न ही उसे इग्नोैर करके चैन से रहा ही जा सकता है।
मैं अभी-अभी बद्री प्रसाद जी से मिल कर आ रहा हूं। पिछले चार बरस से कौमा में पड़े हुए हैं। बेरसिया में। भोपाल से घंटे भर की दूरी पर। उनकी पत्नीय का घर है यहां। घर बेशक बद्री प्रसाद जी के पैसों से बना होगा, लेकिन कोठी के दरवाजे पर लगी नेम प्लेभट तो यही बताती है कि इस कोठी की मालकिन उमा देवी हैं।
बहुत तकलीफ़ हुई बद्री प्रसाद जी को इस हालत में देख कर। बेशक कोठी बहुत बड़ी और आलीशान बनी हुई है लेकिन बद्री प्रसाद जी को जिस कमरे में रखा गया है, वह न केवल बहुत छोटा है बल्कि ऐसा लगता है कि पहले और अब भी गोदाम की तरह ही इस्तेरमाल होता रहा है। एक तरफ रजाइयों का ढेर, पुरानी किताबों की अल्माबरियां, कोने में रखे अनाज के पीपे, अल्मा री के ऊपर रखा पुराने मॉडल का शायद इस्तेहमाल न हो रहा टीवी और इन सबके बीच कौमा की हालत में चार बरस से लेटे देश की सबसे बड़ी वित्ती य संस्थाल के रिटायर्ड जनरल मैनेजर। बेशक कमरे में एयरकंडीशनर लगा हुआ है लेकिन वह जून के महीने में भी बंद है और कमरे में ताज़ी हवा आने का कोई ज़रिया नहीं है। मेज़ पर ढेर की ढेर दवाइयां रखीं हैं। डिब्बोंम और शीशियों पर जमी धूल की परत बता रही है कि अरसे से उन्हेंन हाथ भी नहीं लगाया गया है। कमरा इतना छोटा और लदा-फदा है कि दो आदमियों के खड़े होने की जगह भी मुश्किल से बचती है।
इसी कबाड़खाने में बद्री प्रसाद जी पिछले चार बरस से पड़े हुए हैं। दीन दुनिया से परे। बेशक उमा जी बता रही हैं कि वे सबकी आवाज़ पहचानते हैं और मुस्क़रा कर रिस्पांसस भी देते हैं, लेकिन हम उन्हें जिस हाल में देख रहे हैं, बेचारगी वाली हालत ही है उनकी। बेशक पांच मिनट पहले ही उनकी शेव बनायी गयी है और स्पां ज भी किया गया है, और इस तैयारी के लिए हमें पौन घंटा इंतज़ार भी करवाया गया है, लेकिन इस बाहरी और दिखावटी ताज़गी के बावजूद साफ़-साफ़ लग रहा है कि वे उपेक्षित हालत में ही पड़े हुए हैं। पता नहीं कब से।
मैंने उन्हें कई बार पुकारा, पुरानी बातें याद दिलाने की कोशिशें कीं, उनके माथे पर देर तक हाथ रख कर उनके बाल सहलाता रहा, देर तक उनका हाथ थामे रहा लेकिन वे किसी भी तरह की पहचान से बहुत परे हैं। कोई रिस्पांलस नहीं। मुंह उनका खुला रहा, लम्बीं-लम्बी सांसें लेते रहे वे और इस पूरे अरसे के दौरान उनकी पलकें तेज़ी से लगातार झपकती रहीं।
मैं और नीरज लगभग बीस मिनट उनके पास खड़े रहे और इस पूरे अरसे के दौरान उमा जी पूरी कोशिश करती रहीं कि बद्री प्रसाद जी को मेरे आने के बारे में बता सकें। वे उन्हेंी बंबई के दिनों की, नौकरी की, ऑफिस की याद दिलाती रहीं लेकिन बद्री प्रसाद जी सुनने की स्थिति में तो नहीं ही लग रहे हैं। सच तो ये है कि बद्री प्रसाद जी मेरी आवाज़ पहचानना तो दूर, अपनी पत्नीि की आवाज़ भी नहीं सुन पा रहे।
उमा जी बता रही हैं कि वे तो रोज़ सुबह सात बजे चली जाती हैं और आज दिन में घर पर हैं इसलिए बद्री प्रसाद जी कल्परना नहीं कर पा रहे कि मैं इस समय घर पर कैसे। कितना लचर तर्क है ये उमा जी का।
मैंने नीरज को इशारा किया और हम दोनों बाहर ड्राइंग रूम की तरफ आ गये। बाहर आते समय मैंने देखा कि बायीं तथा दायीं, दोनों तरफ दो बहुत बड़े-बड़े हवादार बेडरूम हैं। करीने से सजे हुए। दुमंजि़ला कोठी के आकार को देख कर तो ऐसा ही लग रहा है कि पूरे घर में कम से कम चार बेडरूम तो होने ही चाहिये। बद्री प्रसाद जी के कमरे की हालत देख कर मन कसैला हो आया। जीवन भर परिवार की तरफ से उपेक्षा और अकेलापन झेलने के बाद जब घर मिला भी तो किस हालत में। अपने ही घर में कितनी कम और खराब जगह आयी है उनके हिस्सेा में, वह भी इतनी गंभीर हालत में बीमार होने पर।

मेरे भीतर गुस्सास सिर उठा रहा है। जैसे फट ही पडूंगा। जी में आया कि उमा जी को झिंझोड़ कर पूछूं कि हमने बद्री प्रसाद जी को आपके पास भला-चंगा भेजा था, उनकी ये हालत आपने कैसे कर दी। बेशक रोग पर किसी का बस नहीं होता, कम से कम रोगी की देखभाल तो ढंग से की जानी चाहिये। वे बीमार होने के बावजूद किसी पर बोझ नहीं हैं, उनकी पेंशन है, अच्छाी-खासा बैंक बैलेंस था, संस्थाोन की मेडिकल सुविधा इतनी अच्छीौ है कि ....।
मैंने नीरज का हाथ थामा है और किसी तरह से अपने गुस्सेभ पर काबू पाने की कोशिश की है। बद्री प्रसाद जी से जुड़ी पुरानी सारी बातें याद आ रही हैं। बेसिलसिलेवार। बद्री प्रसाद जी पर तरस भी आ रहा है और गुस्साा भी कि उन्हों ने क्योंी जानबूझ कर स्थितियों को इस हद तक बिगड़ने दिया कि कुछ भी उनके पक्ष में न रहा। अब तो वे न जीते में हैं न मरते में।

उमा जी ने चाय पीने का आग्रह किया है जिसे मैंने गुस्सेक में मना कर दिया है लेकिन नीरज ने मेरा हाथ दबाया है और चाय के लिए हां कर दी है। मैंने नीरज की तरफ देखा, उसने मुझे चुप रहने का इशारा किया है। उमा जी एक पल के लिए भीतर गयी हैं चाय के लिए कहने, तभी नीरज ने मुझे समझाने की कोशिश की है - आप चाय के लिए मना कर देते तो हमारे पास यहां एक पल के लिए भी रुकने का कोई कारण न रहता। आप खुद ही तो जानना चाहते हैं कि बद्री प्रसाद जी इस हालत तक कैसे पहुंचे। आपने जो कुछ बताया था, मुझे भी उनकी ये हालत देख कर और भी बातें जानने की इच्छा् हो रही है। सब कुछ जानने का एक ही तरीका बचता है हमारे पास कि हम कुछ वक्त यहां और गुज़ारें।
मैं नीरज की बात समझ गया हूं। अब हमारा मकसद चाय पीना नहीं, थोड़ी देर बैठ कर उमा जी से बद्री प्रसाद जी के बारे में कुछ और जानना है। ये तो हम देख ही चुके कि बद्री प्रसाद जी की देखभाल ठीक से नहीं हो रही है। यह बात उमा जी को बतायी भी जानी चाहिये। आखिर बद्री प्रसाद जी जिंदा तो हैं ही, बेशक कहने-सुनने या शिकायत करने से परे हैं। संस्था न की ओर से उनके कैशलेस इलाज की व्यावस्था तो है ही।

मैं गहरी सोच में पड़ गया हूं। बेशक पता था कि बद्री प्रसाद जी पिछले चार बरस से कौमा में हैं, और उनसे मिलना सुखद तो नहीं ही होगा, लेकिन उन्हें बेचारगी की इस हालत में देख कर मैं दहल गया हूं। रिटायरमेंट के दो महीने के भीतर ही तो उनके साथ ये हादसा हुआ था। मेरा कब से इधर आना टल रहा था। भोपाल कई बार आना हुआ लेकिन हर बार मीटिंग वगैरह में ही इतना समय निकल जाता था कि इस तरफ आना नहीं हो पाया। ऑफिस के कई लोग इस बीच बद्री प्रसाद जी को देखने आये। उनके निजी सचिव संजय तो एक बार पत्नी को भी ले कर आये थे और बुरी तरह से आहत हो कर लौटे थे। बता रहे थे संजय कि उस वक्ति घर पर कोई नहीं था। एक नौकर था जो घर के कामकाज के अलावा बद्री प्रसाद जी की देखभाल भी करता था। नौकर ने ही संजय को बताया था कि स्पां ज करने, दवा देने और लिक्विड डाइट देने का काम वही करता है। जिस वक्त संजय वहां पहुंचे थे तब तक बारह तो बज चुके होंगे लेकिन तब तक बद्री प्रसाद जी की सुध नहीं ली गयी थी। अस्त‍-व्यंस्तब से पड़े थे बद्री प्रसाद जी। लगता था मुंह भी नहीं धुलाया गया था तब तक उनका। संजय अपने प्रिय बॉस की ये हालत देख कर व्यथथित हो गये थे और काफी देर तक बद्री प्रसाद जी का हाथ थामे रोते ही रहे थे।

कई बरस पहले मैं जब भोपाल आया था तो उस वक्ति बद्री प्रसाद जी भी आये थे। मैं पुणे से आया था और बद्री प्रसाद जी मुंबई से। एक सेमिनार के सिलसिले में। उन्हें सेमिनार में सिर्फ भाग लेना था इसलिए उनके बोलने का मौका तो नहीं ही आया था। हालांकि तब हमारी दुआ-सलाम ही हो पायी थी और वे ठीक ही लग रहे थे लेकिन बाद में साथियों ने बताया था कि वे अकेले बेरसिया तक जाने की हालत में नहीं थे और उमा जी उन्हें लिवाने भोपाल में होटल तक आयीं थीं। तब तक उनकी हालत काफी बिगड़ चुकी थी लेकिन जैसी कि उनकी आदत थी, वे किसी को कुछ भी बताते नहीं थे।
तो इस बार जब भोपाल आने का प्रोग्राम बन रहा था तो नीरज से मिलने की भी बात थी। नये लिखने वालों में नीरज ने तेजी से अपनी जगह बनायी है। खासकर ऐतिहासिक पृष्ठ भूमि पर हाल ही में लिखे अपने ताज़ा उपन्यामस से उसने सबका ध्या।न अपनी ओर खींचा है। नीरज ने जब अपने घर का पता बताते हुए बेरसिया बताया और ये बताया कि वहां तक कैसे पहुंचा जा सकता है तो मुझे याद आया कि अरे, बद्री प्रसाद जी का घर भी तो बेरसिया में ही है और उनकी पत्नी उमा जी बरसों से वहां पढ़ा रही हैं। पूछने पर नीरज ने ही बताया कि वह खुद उमा जी का स्टू डेंट रह चुका है और उनके दोनों लड़कों को भी जानता है, अलबत्ताह बद्री प्रसाद जी के बारे में वह कुछ नहीं जानता था। जब मैंने नीरज को बताया कि मैं वहां बद्री प्रसाद जी से भी मिलना चाहूंगा तो उसने आश्वनस्ता किया कि वह मैडम से बा‍त करके रखेगा और खुद भी मेरे साथ चला चलेगा।

यहां आते समय मैंने नीरज को बद्री प्रसाद जी के बारे में विस्ताेर से बताया था कि किस तरह से सारा जीवन मुंबई में अकेले गुज़ारने के बाद बद्री प्रसाद जी घर आये भी तो किस हालत में! बद्री प्रसाद जी की इस हालत के पीछे बहुत हद तक उनकी पत्नीा उमा जी ही दोषी हैं। अपनी टुच्चीि-सी नौकरी की जिद के चलते वे जिंदगी भर खुद भी अकेली खटती रहीं और बद्री प्रसाद जी को भी पूरे छत्तीीस बरस तक अकेले रहने पर मज़बूर किया। उमा जी के पास फिर भी अपना कहने को परिचित माहौल और दो बच्चे थे लेकिन उन्होंसने बद्री प्रसाद जी के बारे में कभी नहीं सोचा कि वह आदमी मुंबई जैसे शहर में इतने लम्बेच अरसे तक बिना परिवार के कैसे रह सकता है। नीरज को मैंने बताया था कि जीवन भर के अकेलेपन और खालीपन के चलते बद्री प्रसाद जी ने कई गंभीर रोग पाल लिये थे। फीयर साइकोसिस यानी डर के मरीज तो वे पहले से ही थे, भूलने की गंभीर बीमारी उन्हेंर हो गयी थी जिसके कारण वे हमेशा परेशान रहे और असहज जीवन जीने को मज़बूर रहे। डर के साथ-साथ वे असुरक्षा यानी इनसिक्यु रिटी से बेहद आतंकित रहते थे। ये सारे डर उन्हेंर चैन से जीने नहीं देते थे।
यह सुन कर नीरज ने बताया था कि उमा जी भी अपने आप में एबनार्मल कैरेक्ट र हैं। मिलेंगे तो खुद देखेंगे। लेकिन नीरज ने यह भी बता दिया था कि वैसे उनसे मिलने की उम्मीकद कम ही है क्योंेकि आजकल परीक्षाएं चल रही हैं और उमा जी यहां से सत्त र किमी दूर एक कॉलेज की प्रिंसिपिल हैं। उनकी नौकरी इस बात की इजाज़त नहीं देती कि इन दिनों एक दिन के लिए भी अनुपस्थित रहा जाये। उमा जी के बारे में नीरज बता रहा था कि हिंदी में पीएचडी होने और एक कॉलेज की प्रिंसिपल होने के नाते उन्हें अक्सनर शहर भर के हिंदी कार्यक्रमों में अध्यपक्ष के रूप में बुलाया जाता है! जब अध्यबक्षीय भाषण देने की उनकी बारी आती है तब तक वे भूल चुकी होती हैं कि उन्हेंह क्याम करना है। मौका कोई भी हो वे हिंदी फिल्मों की तर्ज पर लिखे खुद के भजन गाने लगती हैं। या ट्रैक से उतरष कर कुछ भी बोलने लगती हैं। और जब वे बोलने लगती हैं तो आज के विषय के छोड़ कर दुनिया कर सभी विषय कवर करने की कोशिश करती हैं। ऐसे में आयोजकों की हालत खराब हो जाती है। बाहर के कार्यक्रमों में तो वे ये करती ही हैं, अपने कॉलेज में भी वे अपने लिखे ये भजन गाने के लिए बदनाम हैं। हद तो ये है कि इन भजनों की उनकी दो किताबें भी प्रकाशित हो चुकी हैं, उनके लोर्कापण भी हुए हैं। भूलने के मामले में भी वे अपने पति के आसपास ही ठहरती होंगी!
और अपने इस भुलक्कपड़ेपन का सुबूत उन्होंपने हमारे यहां पर पहुंचते ही दे दिया था। हम हैरान हुए जब हमारे पहुंचने पर दरवाजा खुद उमा जी ने ही खोला था। नीरज की उनसे एक रात पहले ही बात हुई थी और उसने जब मेरे आने के बारे में बताया था तो वे यही बोलीं थीं कि उनका खुद का मिलना तो नहीं हो पायेगा, अलबत्ता , दोनों बच्चेो दिन भर घर पर ही होते हैं। वे पापा से मिलवा देंगे।
उमा जी नीरज को पहचान गयीं और उलाहना देने लगीं कि अरे तुम इतने बड़े लेखक बन गये हो और तुम्हाारी कोई किताब हम तक नहीं पहुंची। नीरज ने उनके पैर छूए थे और मुस्कगरा कर रह गया था। लेकिन जब भीतर पहुंच कर बैठने के बाद नीरज ने उन्हेंं याद दिलाने की कोशिश की कि वह बीए में दो बरस तक उनसे हिंदी पढ़ चुका है तो उन्हेंे बिल्कुहल भी याद नहीं आया था। अब वे नीरज का नाम भी भूल चुकी थीं। नीरज ने उन्हेंह कई घटनाएं याद दिलायीं लेकिन वे अपनी ही धुन में खोयी थीं। बात कहीं से कहीं मोड़ती रहीं। तभी नीरज ने मुझे इशारा किया था। उमा जी पंखे का स्विच ढूंढ रही थीं। उन्हों ने एक-एक करके स्विच बोर्ड के सभी बटन दबाये थे। पंखा तब भी नहीं चला था। तब उन्होंखने जाकर दूसरी दीवार पर लगे स्विच बोर्ड के बटन दबाने शुरू किये। तब पंखा चला था। हम हैरान हुए थे कि घर की मा‍लकिन को ये न पता हो कि ड्राइंगरूम में पंखे का स्विच कहां है तो सचमुच सीरियस बात है।

चाय आ गयी है। उमा जी के पीछे पीछे एक दुबली-सी लड़की चाय की ट्रे थामे आयी है। चाय सिर्फ हम दोनों के लिए आयी है। आधा-आधा कप चाय और प्ले ट में पार्ले ग्लूयकोस के चार बिस्किट। इतने में भीतर से एक हट्टा-कट्टा आदमी आया है। हाथ जोड़ कर बताता है - मैं गौरव, बद्री प्रसाद जी का बड़ा लड़का। उम्र पैंतीस के करीब तो रही ही होगी गौरव की। पूछने पर बताता है कि वह एनीमेशन का काम करता है। पहले दोनों भाई, वह और छोटा भाई विवेक, दोनों ही भोपाल में एक कम्प नी में काम करते थे लेकिन, वह भीतर की तरफ इशारा करते हुए बताता है, पापा के कारण अब दोनों ही जॉब छोड़ कर बच्चों को घर पर ही एनिमेशन सिखाते हैं।
अब मुझे लगने लगा है कि नीरज ने चाय के बहाने रुक कर सही फैसला लिया है। बेशक उमा जी से ज्याुदा बातें न उगलवायी जा सकें, गौरव कुछ तो बोलेगा। पहला सवाल मैं उसी से पूछता हूं – किस डाक्टकर का इलाज चल रहा है?
-इंदौर के एक डॉक्टलर हैं, उन्हींो की सलाह पर दवाएं देते हैं।
- मतलब, किसी बड़े अस्प,ताल से इलाज नहीं हो रहा, मैं हैरान रह गया हूं - और फिर भोपाल तो इतने पास है और इलाज की सुविधाएं भी बेहतर हैं भोपाल में?
- नहीं, वो क्या था कि जब चार साल पहले इलाज शुरू किया गया था तो जिस डॉक्टार से हम सलाह ले रहे थे, उन्हीं की सलाह हमें ठीक लग रही है, सो डॉक्टोर बदला नहीं। कभी भी बुलाने पर ये डॉक्ट र इंदौर से खुद आ जाते हैं।
- तो क्याक कहते हैं इंदौर वाले ये डॉक्टकर?
- कहते तो कुछ नहीं, बस यही कि अब तो इनकी यही हालत रहने वाली है। गौरव बेशरमी से बोला है।
- लेकिन अगर हालत पहले से बेहतर नहीं हो रही है तो कम से कम किसी और स्पेशशलिस्टह को तो दिखाया जाना चाहिये था। क्या कोई काम्प लीकेशंस बढ़े भी हैं?
- हां, पापा को पेरेलिसेस तो पहले से ही था, अब डॉक्ट र बता रहे थे कि बायीं आंख में मोतियाबिंद भी हो गया है।
- ओह! ये तो बहुत सीरियस बात है। आखिरी बार आप इन्हें् इंदौर कब ले गये थे?
- चार महीने पहले।
- जरा पापा के मेडिकल पेपर्स दिखायेंगे? मेडिकल इंशोरंस कार्ड भी लेते आना। मैं अब पूरी पड़ताल कर लेना चाहता हूं कि आखिर माजरा क्याल है।
- गौरव भीतर जा कर एक फोल्डार लाया है। मैं सिर्फ कार्ड देखना चाहता हूं। बाकी मेडिकल टर्म्सं तो मुझे क्या ही समझ आयेंगी। हमारी संस्था की ओर से दिये गये पति-पत्नी।, दोनों के मेडिकल इंशोरेंस कार्ड हैं। किसी भी बड़े अस्प ताल में इलाज कराने के लिए सालाना कैशलेस लिमिट दो लाख चालीस हज़ार रुपये। अब मुझे बाहर के डॉक्टअर से इलाज करवाने का कारण समझ में आने लगा है। कैशलेस सेटलमेंट में आपके हाथ में कुछ नहीं आता जबकि बाहर के डाक्ट र से आप मनचाहा बिल बनवा सकते हैं।
- लेकिन ये इंदौर वाला डॉक्ट र तो कैशलेस ट्रीटमेंट नहीं करता होगा।
- हां, बिल देता है जो बहुत देर से पास होता है।
- दवाइयां कैसे देते हैं?
- लिक्विड डाइट के साथ।
- इंजेक्श न वगैरह भी लगते हैं?
- हां, ज़रूरत पड़ने पर लोकल डॉक्टैर लगा जाता है।
अब सारी बातें साफ होने लगी हैं। इस परिवार के लिए बद्री प्रसाद न पहले कोई मायने रखते थे, न अब रखते हैं। जीते हैं या मरते हैं इनकी बला से। एक बेसुध काया है जो घर के एक कोने में पड़ी हुई है। उसके नाम पर अच्छी।-खासी पेंशन भी आती है और मेडिकल सुविधा के नाम कुछ राशि ऊपर से भी।
मैं देख रहा हूं कि इस सारी बातचीत के दौरान उमा जी बिल्कु ल चुप बैठी रही हैं। मेरा अगला सवाल दोनों से ही है - क्यात आपको नहीं लगता कि बद्री प्रसाद जी को किसी खुली और हवादार जगह में लिटाया जाना चाहिये।
जवाब उमा जी ने दिया है लेकिन ये मेरे सवाल का जवाब नहीं है। बता रही हैं - मौसम जब अच्छाव होता है तो हम उन्हें व्हीैल चेयर पर बिठा कर बाहर लाते हैं ना। तब उन्हेंै बहुत अच्छाम लगता है। मुस्कुजराते हैं तब और सबको पहचानते हैं। कुछ खिलाते हैं तो खा भी लेते हैं।
अब इस सवाल को दोहराने का कोई मतलब नहीं है।
मैं गौरव को बताता हूं - आप लोग म्यूकजिक थेरेपी के बारे में तो जानते होंगे। स्टतडीज बताती हैं कि इस तरह के मरीजों को बेशक मामूली-सा ही सही, संगीत सुनने से फायदा होता है। कम से कम उनकी तनी हुई शिराओं को आराम पहुंचता है। आप लोग कोशिश कर सकते हैं, एक अच्छात-सा म्यूमजिक सिस्ट म हो और उस पर मास्टंर्स के गायन और वादन की सीडी..!
नीरज ने मेरी बात आगे बढ़ायी है। कहा है - सर ठीक कह रहे हैं। म्यूसजिक ऐसी हालत में मरीज पर अच्छान असर डालता है। मेरे साथ चलना। मैं अच्छाे कलेक्शहन दिलवा दूंगा।
गौरव तुरंत बोला है - हम बजाते हैं ना हनुमान चालीसा पापा के लिए।
अब इस मामले में भी कहने-सुनने के लिए कुछ भी नहीं बचा है। किन मूर्खों से बात‍ कर रहा हूं मैं। मेरा गुस्साे फिर सिर उठाने लगा है। मैंने विषय बदला है - आप तो मुंबई कभी-कभी आ पाते होंगे, पढ़ाई वगैरह के कारण, तो वह जवाब देता है - हां, बहुत बार तो नहीं, लेकिन कभी-कभी ही जाना हो पाता था। बता रहा है वह - मैंने एनीमेशन को कोर्स पुणे से किया था और दो तीन-महीने जॉब भी मुंबई में किया, लेकिन जमा नहीं, इसलिए भोपाल आ गया था। मैं हैरान हुआ कि देश भर का लगभग 70 प्रतिशत एनीमेशन का काम मुंबई में होता है और इन जनाब को जमा नहीं।
अगला सवाल मैं उमा जी से पूछता हूं - आप भी तो शायद कम ही जाती रही हैं वहां। वे निश्चिंजत भाव से बताती हैं - हां, कम ही जा पाते थे हम मुंबई। हर बार नौकरी का कोई न कोई लफड़ा रहता ही था।
मैंने बेशरमी से पूछ ही लिया है- मैंने बद्री प्रसाद जी को अक्सकर अकेले ही रहते देखा है। एक बार वे खुद भी बता रहे थे कि वे पूरी जिंदगी अपने परिवार के साथ कुल मिला कर दो बरस भी नहीं रह पाये हैं! ये सच है क्यात?
उमा जी को इस चुभते सवाल की उम्मीअद नहीं थी। जवाब गौरव ने दिया है। सरासर झूठा जवाब - दरअसल अंकल, पापा को अकेले रहना ही अच्छाब लगता था। वे तो हमारे आने से डिस्टरर्ब ही हो जाते थे।
- लेकिन जब वे दो महीने के लिए पैर के इलाज के लिए अस्पगताल में थे तब भी आप में से कोई नहीं आया था?
इस बार भी जवाब गौरव ने ही दिया है, जरा तुर्शी में आ कर - नहीं अंकल, ऐसा नहीं था, हम सब ज़रूर आते लेकिन पापा ने ही हमें खबर नहीं दी थी। हमें तो बहुत देर से पापा की बहन से पता चला था कि पापा अस्पलताल में हैं और वे पापा की देखभाल के लिए नागपुर से वहां पहुंची थीं। हमें खुद खराब लगा था कि पापा ने हमें न बता कर अपनी बहन को बताया। जब तक हम पहुंचते पापा को घर लाया जा चुका था।
- लेकिन उस वक्त तो शायद आप वहीं थे जब आपके पापा ऑफिस से घर नहीं आये थे और रात भर भटकते रहे थे।
-हां, हम दोनों भाई तब पापा के पास मुंबई में ही थे। ऑफिस बंद होने के बाद जब ड्राइवर उन्हेंआ लेने के लिए गया था तो पापा ऑफिस में ही थे। वह उनका ब्रीफकेस ले कर नीचे आने लगा तो पापा ने कहा था - मैं दस मिनट में नीचे आ रहा हूं। ब्रीफकेस खुद लेता आऊंगा, लेकिन जब एक घंटा बीत जाने के बाद भी पापा नीचे नहीं आये तो उन्हें देखने के लिए ऊपर गया था, पापा का केबिन बंद था और वे कहीं नहीं थे। ड्राइवर परेशान हो कर घर आया था कि पापा कहीं किसी और के साथ न आ गये हों। उस दिन हम बहुत परेशान हुए थे। सब जगह ढूंढा था और पापा रात को बारह बजे लौटे थे। उन्हेंग बिलकुल भी याद नहीं था कि वे इतने समय तक कहां थे।
अरे, गौरव तो बद्री प्रसाद जी के गुम होने की अलग ही कहानी बता रहा है। हमारी खुद की देखी और भोगी घटना तो अलग ही थी। पूरा ऑफिस इस घटना का गवाह था।

किस्साट कुछ इस तरह से था। उन दिनों उनकी पोस्टिंग वर्ल्डै ट्रेड सेंटर वाले ऑफिस में थी। घर लोवर परेल स्टे शन के पास था। घर से मिनिमिम फेयर पर टैक्सीी की दूरी पर वर्ली नाका से एसी बस मिल जाती थी जो सीधे ऑफिस तक जाती थी। इस बस के कारण वे दोनों तरफ लोकल ट्रेन की तकलीफों से बच जाते थे।
उस दिन पता नहीं क्या। हुआ, ऑफिस से वापिस आते समय वे वर्ली नाका पर बस से उतरना भूल गये और बस के आखिरी स्टॉाप अंधेरी में लोखंडवाला तक चले गये। बस के अंतिम पड़ाव से वापिस आने का एक ही तरीका था कि उसी बस में वापिस आते। आये लेकिन इस बार भी बस से उतरना भूल गये और वापिस वर्ल्डए ट्रेड सेंटर जा पहुंचे। बस की ये आखिरी ट्रिप थी और रात के ग्यासरह बजने को आये थे। संयोग से उन दिनों उनके बच्चेे मुंबई आये हुए थे। पिता के लिए कम और तफरीह के लिए ज्यायदा। मोबाइल का युग तब तक इतने बड़े पैमाने पर शुरू नहीं हुआ था। बद्री प्रसाद जी के पास तब मोबाइल नहीं था, होता भी तो कोई फर्क नहीं पड़ता क्यों कि खुद उन्हेंह अपना मोबाइल बजने के बारे में पता नहीं चलता था।
बच्चें जब बहुत परेशान हुए तो बद्री प्रसाद जी की डायरी में से देख कर दो-एक परिचित अधिकारियों को फोन किया। बद्री प्रसाद जी की हालत उन दिनों बहुत अच्छीम नहीं चल रही थी। बेचारे अधिकारी अपनी कार ले कर ऑफिस गये, वाचमैन से कह सुन कर ऑफिस खुलवाया, एक-एक केबिन, बाथरूम खुलवा कर देखा, इस बीच बच्चेस सभी अस्पातालों वगैरह में फोन करके पूछ चुके थे। बद्री प्रसाद जी कहीं नहीं थे। इस बीच कालोनी में भी सबको खबर हो चुकी थी। बद्री प्रसाद जी संस्थारन के वरिष्ठ अधिकारी थे इसलिए सबका परेशान होना लाजमी था।
उस रात बद्री प्रसाद जी अपना ब्रीफ केस झुलाते हुए रात ढाई बजे घर लौटे थे और उन्हें कुछ भी याद नहीं था कि वे अब तक कहां थे।

भूलने की आदत तो उन्हेंा शुरू से ही थी लेकिन शुरू-शुरू में ये भूलना आम तौर पर वैसा ही होता था जैसा हर आम आदमी के साथ होता रहता है। मसलन कोई चीज़ रख कर भूल जाना या बैंक से पैसे निकालना भूल जाना और मजबूरन दोस्तोंा से उधार लेना। लेकिन धीरे-धीरे ये रोग बढ़ने लगा और वे भूलने की लम्बीआ-लम्बीच ईनिंग्सा खेलने लगे। कभी ऑफिस पहुंच कर याद आता कि शायद प्रेस बंद करना भूल गये हैं तो कभी गैस बंद करना या फिर ताला बंद करना। कितनी ही बार ऐसा हुआ कि वे चर्चगेट से बोरिवली तक वापिस सिर्फ ये देखने के लिए गये कि प्रेस या गैस या फिर ताला ठीक से बंद करके आये थे या नहीं। चीजें रख कर भूल जाने में तो उन्हेंा जैसे महारत थी।
एक बार एक बहुत ही ज़रूरी केस देख रहे थे। मंत्रालय से आया पत्र सामने रखा था। तभी फोन की घंटी बजी। किसी सीनियर ऑफिसर का फोन था। उस अधिकारी ने कोई फोन नम्बरर बताया होगा जिस पर बद्री प्रसाद जी को बात करनी थी। आसपास और कोई कागज़ न देख कर बद्री प्रसाद जी ने वही पत्र उलटा किया और उसके दूसरी तरफ नम्बिर लिख दिया। फोन वापिस रखने पर देखा कि मंत्रालय वाला पत्र गायब है। खूब ढूंढ मची। ऐसे स्टाफफ की भी शामत आ गयी जो सुबह से उनके केबिन में नहीं आया था। मज़े की बात, वे अपनी मेज़ पर रखे कागजों पर किसी को हा‍थ नहीं लगाने दे रहे थे कि कोई वहीं देख कर खोज ले। कई घंटे बाद अचानक ही कागज पलटा तो खत सामने था। खैर, किसी तरह केस निपटाया गया और वह पत्र दूसरे कागजों के साथ संबंधित डेस्कत पर चला गया। शाम को अचानक उस फोन नम्ब र की दोबारा ज़रूरत पड़ी तो फोन नम्बपर गायब था। इस बात की कल्प ना करना मुश्किल नहीं है कि उस दिन उस फोन नम्बरर ने बद्री प्रसाद जी को कितना रुलाया होगा।
ऐसा ही एक और किस्सा याद आ रहा है मुझे। एक बार बद्री प्रसाद जी को व्या्ख्याीन देने के लिए कहीं बाहर जाना था। पावर पाइंट प्रेजेंटेशन बना लिया था लेकिन पेन ड्राइव में सेव नहीं कर पा रहे थे। तभी उनके केबिन के सामने से कुछ स्टा्फ सदस्यल कैंटीन की तरफ जाते दिखायी दिये। बद्री प्रसाद जी ने उन्हेंक बुलाया और मदद के लिए कहा। उनमें से टाइपिस्टा साखरे ने अपना टिफिन बद्री प्रसाद जी की मेज पर रखा और पीसी पर काम करने लगा। इतने में बद्री प्रसाद जी ने अपनी मेज के कागज़-पत्तनर संभाल कर अल्मापरी में रखने शुरू किये। वैसे ही उन्हेंइ जाने की देर हो रही थी। इस सफाई अभियान में साखरे का टिफिन बॉक्सर गायब। जब उसने पेन ड्राइव बद्री प्रसाद जी को थमायी तो देखा, टिफिन बॉक्से कहीं नहीं है। बद्री प्रसाद जी से पूछा कि कहीं कागजों के साथ अल्मासरी में तो नहीं रख दिया है। वे साफ मुकर गये कि उन्होंहने कोई टिफिन बाक्से देखा ही नहीं। सबने लाख कहा कि वे सब लंच के लिए कैंटीन जा रहे थे और कि टिफिन साखरे के हाथ में था और वह आज मटन करी ले कर आया है। बद्री प्रसाद जी सबको हक्का बक्काफ छोड़ कर चल दिये! उस दिन साखरे को घर से मटन करी लाने के बावजूद कैंटीन के खराब खाने से गुज़ारा करना पड़ा।
कुछ दिन बाद की बात है बद्री प्रसाद जी जब भी अपनी अल्मा री खोलते, उन्हें बदबू का भभका लगता, वे कागज वगैरह निकाल कर जल्दीप से अल्माअरी बंद कर देते। कई दिन तक ये चलता रहा। वे अल्माभरी खोलते और बंद करते रहे। बदबू झेलते रहे। एक दिन वे छुट्टी पर थे और एक जरूरी फाइल उनकी अल्माहरी से निकाली जानी थी। चपरासी ने दो अधिकारियों की मौजूदगी में अल्मा री खोली। एक बार फिर तेज बदबू का भभका। तलाश करने पर मिला कई दिन पहले बद्री प्रसाद जी द्वारा बंद किया गया मटन करीवाला टि‍फिन बॉक्स । पूरे टि‍फिन बॉक्सद मे फफूंद लगी हुई थी। ‍

भूलने की आदत से उन्हेंि व्यूक्तिगत रूप से तो परेशानियां होती ही थीं, वे कई बार संस्थाून के लिए परेशानी का सबब बन जातीं। तब उनके लिए जवाब देना भारी पड़ जाता था।
चेन्नैी में एक बहुत ही महत्वएपूर्ण प्रशिक्षण कार्यक्रम था जिसका उन्हेंज उद्घाटन करना था। इसी कार्यक्रम में दोपहर बाद उनका एक सत्र भी था। सब कुछ तय हो चुका था। पता नहीं कैसे हुआ कि अपनी चेन्नै विजिट के बारे में उन्होंउने वहां दूसरे संस्थाछनों में कार्यरत कुछ मित्रों से बात की। उन मित्रों ने भी बद्री प्रसाद जी की मौजूदगी का फायदा उठाने के मकसद से अपने यहां उनके व्यायख्याकन रख लिये और बद्री प्रसाद जी की सहमति भी ले ली। सहमति देते समय बद्री प्रसाद जी ने अपने कार्यक्रम का समय चेक करने की भी ज़रूरत नहीं समझी। ट्रेनिंग कार्यक्रम के उद्घाटन से पहले ही दोनों संस्थाकन वाले उनके मित्र गाडि़यां ले कर आ गये। अजीब स्थिति हो गयी। तीनों जगह बद्री प्रसाद जी ने एक ही समय दे दिया था। किसी तरह अपना कार्यक्रम निपटा कर वे दूसरे कार्यक्रम के लिए लपके। दूसरे से तीसरे के लिए और तीसरे से वापिस जब वे अपने कार्यक्रम में सत्र लेने के लिए आये तो पूरी तरह अस्तर-व्यकस्तर थे। उन्हें याद नहीं था कि अपना ब्रीफकेस किस कार में छोड़ आये हैं और दूसरे संस्था नों से मिले गिफ्ट या बुके किस कार में रखे थे। सबसे बड़ी तकलीफ की बात ये रही उस दिन कि उन्हेंि बिलकुल भी याद नहीं आ रहा था कि इस सत्र में व्या ख्यांन किस विषय पर लेना है। जब उन्हेंद सत्र के विषय के बारे में बताया गया तो उनकी तैयारी नहीं थी सत्र लेने की। बहुत खराब अनुभव रहा था उस दिन उनका और जवाब देना भारी पड़ गया था।
अनंत किस्सेथ हैं बद्री प्रसाद जी के जीवन से जुड़े। वे बेशक बहुत भले आदमी थे, कभी किसी का अहित नहीं चाहा, किया भी नहीं, लेकिन अपनी इन्हीं आदतों के कारण कभी भी बहुत लोकप्रिय या सफल अधिकारी नहीं बन पाये थे। वरिष्ठाता बेशक उनके हिस्सेन में आयी लेकिन वरिष्ठरता के साथ जुड़ा सम्मासन उन्हें कभी नहीं मिला।
बातचीत का विषय एक बार फिर बदलने की नीयत से मैंने उमा जी से पूछा है - आपकी शादी कब हुई थी?
वे याद करने की कोशिश करती हैं- नवम्बनर 1975 में।
-प्रेम विवाह था क्याी आप लोगों का?
- नहीं, मैं तब दिल्लीा में बीएड कर रही थी, बद्री प्रसाद जी की बड़ी बहन भी मेरे साथ पढ़ रही थी। उसी ने मुझे पसंद किया था और एक बार छुट्टियों में अपने साथ अपने घर ले गयी थी। तब ये भी वहीं आये हुए थे। सबकी सहमति से ही तब विवाह हुआ था।
-बद्री प्रसाद जी तो शायद नागपुर की तरफ के रहने वाले हैं, आप कहां की हैं?
-मैं छिंदवाड़ा की तरफ की हूं।

मैंने यहां आते समय मैंने नीरज को बताया था कि 1992 के आसपास मैंने एक कहानी लिखी थी - फैसले। एक अधिकारी मुंबई में अपनी नौकरी के पहले दिन से ही अकेला रह रहा था। पहले वाजिब कारण थे कि उसके पास संस्था न की ओर से मिलने वाला घर नहीं था। वह खुद इधर-उधर गुज़ारा करके रह रहा था। परिवार कभी-कभार ही ला पाता। इस बीच उसकी पत्नी ने टाइम पास के लिए पहले तो एमए ज्वाजइन कर लिया था, फिर कोई काम चलाऊ नौकरी भी पकड़ ली थी। इस बीच दो बच्चे भी हो चुके थे। तो मैडम का आना अलग-अलग कारणों से टलता चला गया था। और जब साहब को पंद्रह बरस के इंतज़ार के बाद सुकूनभरा फ्लैट मिला था तो भी वे उसे घर नहीं बना पाये थे। मैडम ने अब आने से साफ इनकार कर दिया था। कभी स्थालयी होने का बहाना तो कभी हैड बनने का चांस।
मेरा कथा नायक उन्हेंड समझा-समझा कर हार जाता है लेकिन वे नहीं आतीं। अंत में वह यही तय करता है कि अब भी वे नहीं मानीं तो वह तलाक ले लेगा।
मेरी उस कहानी के कथा नायक बद्री प्रसाद ही थे।
नीरज ने तब एक बात कही थी कि आपकी कहानी तो वहीं ठिठकी रह गयी लेकिन आपका असली कथा नायक आगे निकल गया। अच्छाा-बुरा जैसा भी जीवन उसने जीया, अब इतने बरसों के बाद फिर एक चुनौती की तरह आपके सामने है और कह रहा है कि न तो कहानी जीवन के नक्शेन-कदम पर चलती है और न ही जीवन कहानी के सांचे में ढल कर चला करता है। अब हिम्मकत है तो लिखो आगे की कहानी। बेशक मेरी कहानी तब इसी वाक्य के साथ खत्मह हो गयी थी कि अगर उमा अब भी नहीं मानी तो वे तलाक ले लेंगे, लेकिन जीवन के कथा नायक को तो सचमुच अपना जीवन जीना था और जीया भी।

असली जिंदगी में बद्री प्रसाद जी बेहद कमज़ोर निकले थे। वे हताश-निराश हो गये थे। डर उनके जीवन का स्थांयी भाव था। तलाक के बारे में सोचने के बाद भी कुछ नहीं कर पाये थे, बेशक कार्मिक विभाग में जा कर नामिनेशन फार्म से बीवी का नाम कटवा कर अपनी विधवा बहन का नाम लिखवा आये थे। लेकिन कुछ ही अरसा बीता था कि ये दांव भी उलटा पड़ गया था। कार्मिक विभाग से बुलावा आया था कि ऑफिस के रिकार्ड से अनुसार आप शादीशुदा हैं। आपका न तो तलाक हुआ है और न ही आपकी पत्नीऑ की मृत्युे हुई है। संस्था न के नियमों के अनुसार आप अपनी पत्नी को उसके हक से वंचित नहीं कर सकते। मजबूरन उन्हें अपने नामिनेशन में बदलाव करना पड़ा था।
पता नहीं कैसे ये खबर उमा जी तक पहुंच गयी थी। फिर तो जैसे तूफान आ गया था। उमा जी दनदनाती हुई आयीं थीं और बद्री प्रसाद की सात पीढि़यों का तर्पण कर गयीं थीं - उनकी हिम्मनत कैसे हुई कि वे उनके होते किसी और को नामिनी बना लें। कितना अजीब संयोग है कि मैं अरसे बाद अपनी कहानी के आगे की घटनाओं को अपनी आंखों के सामने घटना देख रहा हूं।

इस पूरे अरसे में यानी मुंबई में बद्री प्रसाद जी के प्रवास के पूरे छत्तीेस बरस के अरसे में उनकी पत्नी और बच्चेर उनके पास या वे अपनी पत्नीक-बच्चोंस के पास मुश्किल से दो बरस के आसपास यानी पांच-सात सौ दिन रहे होंगे। ये बात मुझे बार-बार याद आ रही है और इस तरफ इशारा कर रही है कि बद्री प्रसाद जी के जीवन में जो भी बुरा घटा, उसकी पृष्ठाभूमि में उनका यही अकेलापन रहा होगा। भयंकर अकेलापन और उससे भी ज्याोदा मुंबई का तोड़ देने वाला खालीपन उनके जीवन में इतने गहरे प्रवेश कर गया था कि वे ताउम्र अकेलेपन और खालीपन से मिलीं दूसरी बीमारियां भी झेलते रहे।

संयोग से छोटी जाति के होने के कारण एक स्थाहयी डर जीवन भर उनके साथ लगा रहा और उनकी मुसीबतें बढ़ाता रहा। बॉस का डर, डॉक्टडर का डर, कुछ गलत फैसले न हो जायें, इस वजह से नौकरी जाने का डर, ये डर और वे डर। वे कभी खुल कर अपनी बात नहीं कह पाये। चाहे घर हो या ऑफिस, डर उनके कंधे पर वेताल की तरह बैठा रहा। जिस वर्ग और जिस दुनिया से वे आये थे, वहां की नियति ही डर थी। कभी खुल कर हँस पाना भी जिनके नसीब में नहीं होता, वे उसी वर्ग से ताल्लु क रखते थे। हमेशा पिटते आये थे सो यहां आ कर बेशक पिटे नहीं, लेकिन जिन स्थितियों का उन्हें् सामना करना पड़ा, वे पिटने से भी बदतर थीं। वे अपने काम में माहिर थे। अगर रिज़र्व कोटे से उन्हें दो तीन पदोन्नेतियां न भी मिलीं होतीं तो भी वे अपनी लियाकत से वहां तक पहुंचते ही। जब वे सीनियरटी और पदोन्न‍ति के चलते विभागाध्येक्ष बने तो उनके सबसे सगे दोस्ते और सलाहकार ही उनके सबसे बड़े दुश्मदन बन गये। आसपास कोई बात करने वाला, सुख दु:ख शेयर करने वाला ही न रहा। अकेले तो वे पहले ही थे, अब किसी से संवाद की स्थिति भी न रही।

डर, लगातार भूलने की आदत और महत्वबपूर्ण बैठकों में अपने विभाग के हित की बात कह न पाने की उनकी हालत देख कर एक बार उनके वरिष्ठक अधिकारी ने साफ-साफ कह दिया कि खबरदार मेरे केबिन में आये या किसी बैठक में नज़र आये। वह वरिष्ठे अधिकारी संयोग से ब्राह्मण था। ऊपर वाले का डर तो था ही, सहारा देने के नाम पर उनके नीचे काम कर रहे दूसरे ब्राह्मण अधिकारी ने पलीता लगाया - आप चिंता न करो, बद्री प्रसाद जी, हम हैं ना, सब संभाल लेंगे। नीचे वाले अधिकारी चतुर थे। जानते थे कि जब तक बद्री प्रसाद हैं, हेड ऑफ डिपार्टमेंट बनने का चांस‍ मिलने से रहा। तो यूं ही सही, दो-ढाई बरस तक वे ही बद्री प्रसाद की जगह निर्णय लेते रहे और उनसे हस्ता क्षर कराते रहे। कहने को बेशक वे विभागाध्ययक्ष थे, सारे के सारे निर्णय या तो ऊपर वाले लेते या नीचे वाले। हर महत्वरपूर्ण बैठक के दिन उन्हें् छुट्टी लेकर घर बैठने पर मज़बूर किया जाने लगा। इतनी उपेक्षा उनके हिस्सेव में आने लगी थी कि लोग बताते हैं कि उन दिनों उन्हें ऑफिस के वाश रूम में फूट-फूट कर रोते देखा जा सकता था।
लेकिन एक बात ये भी थी कि जब बद्री प्रसाद जी अपने फितूर के चलते अपने आपको किसी मामले में फंसा लेते या कुछ ऐसा कर बैठते कि न उगलते बनता न निगलते, तो उनके अधीन काम करने वाले उच्चं वर्ग के ये अधिकारी ही संकट मोचन बन कर आते। और ऐसा अक्सतर होता ही रहता। बद्री प्रसाद जी अक्स र कुछ ऐसा कर बैठते कि वरिष्ठ तंत्र की भौंहें तन जाती, हाय तौबा मच जाती। जवाबदेही के लिए ऊपर वाले बद्री प्रसाद जी को तलब करते। बद्री प्रसाद जी तब मुंह छुपाये फिरते और मजबूरन नीचे वाले अधिकारी किसी न किसी जुगत से उन्हेंत बचाने में कामयाब हो ही जाते। बेशक दस बातें सुननी पड़तीं। सब कुछ ऐसे ही चलता रहता था।
कभी-कभी उनके जीवन में बहार भी आ जाती लेकिन इस बहार की भी उन्हेंत बड़़ी कीमत चुकानी पड़ती और वे पहले से ज्याकदा अकेले हो जाते। उन दिनों कम्यूउन् टर में यूनिकोड फॉंट की नयी-नयी लहर थी। अब तक पूरी दुनिया में सभी भाषाओं के लिए स्थातनीय रूप से विकसित फॉंट ही प्रयोग में लाये जा रहे थे जिनकी अपनी तकलीफें थीं। माइक्रोसॉफ्ट ने मानक फॉंट विकसित कर लिये थे जो आगे चल कर बहुत बड़ी क्रांति करने वाले थे। अभी इनमें शुरुआती दिक्क्तें थीं और इन्हेंि बाजार में उतारने की कोशिशें चल रही थीं। मैं संस्थाीन के जिस विभाग में था वहां वेबसाइट और न्यूेजलेटर का काम होता था। यूनिकोड फॉंट वेबसाइट पर डालने के बारे में सोचा जा सकता था लेकिन चूंकि पेजमेकर अभी तक यूनिकोड फॉंट स्वीोकार नहीं करता था इसलिए इसके लिए हां कहने में मेरी अपनी दिक्क तें थीं। न्यूकजलेटर के लिए यूनिकोड में मैटर प्रेस को नहीं भेजा जा सकता था। कुछ और भी तकनीकी समस्या एं थीं जिन्हें फॉंट खरीदने से पहले निपटाया जाना था। बड़े पैमाने पर हिंदी में ये फॉंट प्राइवेट वेंडरों के जरिये बहुत ऊंची कीमत पर बेचे जा रहे थे। वेंडर चाहता था कि एक बार हम हां कर दें तो वेबसाइट यूनिकोड में कन्व र्ट कर दी जायेगी और तब पूरी इंडस्ट्री में मैसेज जाता और उनके लिए प्राडक्टि बेचना आसान हो जाता।
दूसरी तरफ बद्री प्रसाद जी संस्थान के उस विभाग के मुखिया थे जहां से इस आशय का एक पत्र पूरे उद्योग की तरफ जाता और वेंडर की चांदी हो जाती। सबकी निगाह मेरी तरफ थी लेकिन मैं इतने महंगे प्राडक्ट‍ की खरीद से पहले हर तरह की तसल्ली कर लेना चाहता था। मेरी बेरुखी देख कर वेंडर ने अपनी सेल्स् गर्ल्स‍ को बद्री प्रसाद जी के पास भेजना शुरू कर दिया। वे जा कर सुबह-सुबह उनके केबिन में बैठ जातीं और यूनिकोड फांट का राग अलापना शुरू कर देतीं। सदियों से भूखे-प्यानसे बद्री प्रसाद को एक-साथ दोनों ही लड़कियां भाने लगीं और वे भी उन्हें दिन भर बिठाये रखने लगे। अब उनके आते ही केबिन के बाहर की बत्तीअ लाल हो जाती और चाय और स्नै‍क्सर के दौर चलते रहते। ऐसी बैठकों का समापन अक्सतर ऑफिस के सामने बने एसी रेस्तभरां में शानदार लंच के साथ होता। इसमें दोनों लड़कियां तो होती हीं कभी मूड आये तो बद्री प्रसाद जी किसी कलीग को भी शामिल कर लेते। लड़कियों को भला क्या एतराज हो सकता था। पूरे उद्योग में यूनिकोड की धारा बद्री प्रसाद के हस्ता क्षर वाले पत्र से ही बहनी थी। इस मामले में अड़चन सिर्फ एक ही थी कि मेरे विभाग की हरी झंडी उनका काम आसान कर देती जो कि मैं नहीं कर रहा था। इसलिए मुझसे नाराज़गी लाज़मी थी।
संयोग कुछ ऐसे बने कि वह कम्पहनी ही बंद हो गयी और माइक्रोसाफ्ट ने अपनी नीति बदल कर यूनिकोड फांट बेचने के दूसरे हथकंडे अपना लिये। इसके बाकी जो परिणाम हुए सो हुए, एक परिणाम ये ज़रूर हुआ कि बद्री प्रसाद जी यूनिकोडमय हो गये और हर मीटिंग में, हर मंच से, हर मुलाकात में और हर ब्रीफिंग में यूनिकोड की ही माला जपने लगे। वे अक्सीर भूल जाते कि उन्हेंी व्यामख्या न देने किसी और विषय पर बुलाया गया है लेकिन वे बात शुरू ही यूनिकोड से करते। बड़ी विचित्र स्थिति सामने आ जाती कि माइक्रोफाइनांस के सेमिनार के उद्घाटन भाषण में वे यूनिकोड फांट पर बोलना शुरू कर देते। ऐसा एक दो नहीं, हर बार होने लगा। बेशक बाद में उन्हेंं प्रोटोकॉल के चलते बुलाया तो जाता था, भाषण नहीं देने दिया जाता था।
आलेख :अज्ञेय की कथा नारी : रमेश खत्री
इससे दु:खद स्थिति और क्याो हो सकती थी कि माइक्रोसाफ्ट की उदार नीतियों के चलते भारत में यूनिकोड फांट को आये और लोकप्रिय हुए कम से कम सात बरस बीत चुके थे और इसमें बद्री प्रसाद जी का योगदान बहुत कम ही रहा था, वे अपनी सेवा निवृत्ति के समय दिये जाने वाले अंतिम विदाई भाषण में यूनिकोड और केवल यूनिकोड पर भाषण देते रहे थे।
उनके मन में गहरे तक घर किये बैठे डर का ये आलम था कि वे आजीवन ज़रूरी और गैर-ज़रूरी कारणों से डरे ही रहे। कई बार तो उनके डर इतने बेबुनियाद कारणों से होते थे कि सामने वाले को झल्लािहट होने लगती थी कि वे इन डरों से उबर क्योंै नहीं जाते। बेशक उनका बीपी नार्मल था और उन्हेंक डाइबीटीज भी नहीं थी लेकिन फिर भी वे डॉक्टबर के पास जाने से हमेशा कतराते। कोई भी रोग हो जाये, टालते रहते थे। मुझे तो लगता है कि अगर वे अपने डर, असुरक्षा भावना, भूलने की भयंकर बीमारी वगैरह को लेकर किसी अच्छेी डाक्टटर के पास गये होते या ले जाये गये होते तो वे ज़रूर चंगे हो जाते। लेकिन अपनी सारी तकलीफें छुपाये रखना ही उन्हेंड माफिक आता था।
पैर के जख्मे वाले मामले में भी ये ऐसा ही हुआ। अगर ऑफिस वालों ने उनके पैर से खून टपकता न देख लिया होता और उन्हें एक तरह से जबरदस्तीा उठा कर अस्पीताल भर्ती न करवाया होता तो तय था, गैंगरीन की वजह से उनका पैर ही काटने का नौबत आ जाती।
अस्पसताल में ही उन्होंबने डाक्‍टर के सामने पहली बार माना था कि पैर का ये जख्मय उन्हें साल भर से था। ऑफिस वाले भी उन्हेंं लंगड़ाता देख कर समझा-समझा कर हार चुके थे कि वे ढंग से अपना इलाज क्यों नहीं कराते। केबिन में अकेले होते ही वे अपना जख्मीस पैर खुजाना शुरू कर देते और किसी को आते देखते ही पैंट नीचे कर लेते। बताने वाले बताते हैं कि उनके मोजे जख्मा से चिपक गये थे और कई बार वे बिना मोजे बदले ऑफिस आते थे। लेकिन न किसी को बताते थे और न ही इलाज कराते थे। वे डरते थे कि कहीं डाक्टार दस बीमारियां और न बता दे। पैर वाले जख्म के कारण उन्हें पूरे दो महीने अस्प ताल में रहना पड़ा था और इस पूरे अरसे में खबर किये जाने के बावजूद उनके बीवी-बच्चेक उनके पास नहीं आये थे। अलबत्ता , गांव से उनकी विधवा बहन और एक भतीजा आ कर ज़रूर रहे थे। पता चला था कि वही भतीजा आज भी नौकर की हैसियत से उनके पास रह कर उनकी सेवा कर रहा है।

ऐसा बहुत कम होता था कि उनका आत्मप सम्मा न ज़ोर मारता और वे अपने बलबूते पर कुछ करना चाहते। कभी-कभार सफल भी हो जाते लेकिन अधिकतर मामलों में उन्हेंा मुंह की खानी पड़ती। वे पहले की तुलना में और कमज़ोर हो जाते। उनके विभाग में दूसरे केन्द्र से एक अधिकारी ट्रांसफर हो कर आया था। उसका ध्यालन ऑफिस के काम में कम और अपनी आध्याभत्मिक शक्तियों के प्रदर्शन में ज्याादा लगता था। कुछ रटे-रटाये श्लोनकों और धार्मिक ग्रंथों से उद्धरणों के बल पर वह अपनी दुकानदारी चलाये रहता। ऑफिस के नीचे जिस दुकान से वह पान खाता था, वहां पर भी उसने इन्हींह हथकंडों के बल पर मुफ्त पान का जुगाड़ कर रखा था। ऑफिस के काम से जहां भी जाता, पहले लोगों का भविष्यह बताना शुरू कर देता, बाद में काम की बा‍त करता। वह डींग हांकता था कि वह हजारों मील दूर से भी शक्तियों का आह्वान कर सकता है और इन शक्तियों के बल पर किसी की भी मदद कर सकता है। इन तथाकथित शक्तियों के बल पर उसने ऑफिस में इतने चेले चांटे बना लिये थे कि उससे वरिष्ठ एक महिला अधिकारी ने अपना ट्रांसफर रुकवाने की गुहार करते हुए सबके सामने इन योगीराज के चरण स्पषर्श कर लिये थे।
जब उसने देखा कि विभागाध्यनक्ष हर तरह से अक्षम, लुंज-पुंज और डरे हुए हैं तो वह अपना रक्षा कवच ले कर उनकी मदद करने जा पहुंचा। बद्री प्रसाद जी की मदद करने के कई फायदे थे। काम से छुट्टी, किसी से डरने की ज़रूरत नहीं और अब ट्रांसफर का कोई डर नहीं। दूसरों पर रौब डालने में भी ये तरकीब काम आने वाली थी। बद्री प्रसाद जी उसके झांसे में आ गये थे और उसके कहे अनुसार ही अब सारे केस निपटाये जाते। वही उन्हेंए बताता कि किस बैठक में न जाना बेहतर रहेगा और किस केस पर किसा तरह का निर्णय लेना या न लेना उनके हित में रहेगा। रहेगा। कई दिनों तक परोक्ष रूप में योगीराज ही ऑफिस चलाता रहा। जब कुछ बेहद संगीन गलत फैसले हो गये और रिपोर्ट ऊपर तक पहुंची तो योगीराज का दूसरे सेक्शोन में ट्रांसफर कर दिया गया। बद्री प्रसाद जी अड़ गये कि वे योगीराज को रिलीव नहीं करेंगे। तना तनी इतनी बढ़ गयी कि खुद बद्री प्रसाद की जी नौकरी पर आ बनी। मैनेजमेंट उनसे वैसे ही खफा था लेकिन मामला कहीं दलित उत्पीनड़न का न बन जाये, इसलिए चुप था लेकिन अब बद्री प्रसाद जी के कुछ फैसले संस्थाान के हितों के खिलाफ जाने लगे तो आर या पार का फैसला लिया गया। तब कहीं जा कर योगीराज बाहर हुए।
कोई अंत नहीं है बद्री प्रसाद जी के किस्सोंा का। यहां बद्री प्रसाद जी के घर पर बैठे हुए कितनी ही बातें बेसिलसिलेवार याद आ रही हैं। अब उमा जी और गौरव जिस तरह‍ से हमें झूठ की एक अलग ही दुनिया में ले जा रहे हैं, हमें नहीं लगता, हम चाह कर भी बद्री प्रसाद जी की बेहतरी के लिए कुछ करवा पायेंगे।

मैं और नीरज वापिस लौट रहे हैं। पता है मुझे अब इस तरफ कभी आना नहीं होगा। बद्री प्रसाद जी से यही आखिरी मुलाकात है। देर-सबेर हमारे पास बद्री प्रसाद जी के न रहने की खबर ही आयेगी और हम ऑफिस में दो मिनट का मौन धारण कर उन्हेंे अपनी श्रद्धांजलि देंगे, उनके बारे में अच्छीस-अच्छी बातें करेंगे, उनके लिए अफसोस जाहिर करेंगे और इस तरह से अपने कर्तव्यह की इतिश्री समझ लेंगे। और इस तरह बद्री प्रसाद जी हमारी स्मृसतियों में से हमेशा के लिए चले जायेंगे।
नीरज का भी यही मानना है कि वह बेशक यहां से तीन गली छोड़ कर रहता है, शायद ही वह दोबारा यहां आने की हिम्मनत जुटा पायेगा।

समाज में ऐसे व्यक्तियों की कमी नहीं है, जो अपनी अभिलाशाओं को जो किसी कारण साकार न हो सही हो उसे कल्पना जगत में साकार करने का प्रयास करते हैं । शायद इसीलिये उनका स्वभाव अन्र्तमुखी हो जाता है । वे भले बहिर्मुखी होने का प्रयास भी करते हो पर अपने आपको ऐसा बना पाने में समर्थ नहीं हो पाते । अज्ञेय ने भी ऐसे ही नारी चरित्रों को अपने उपन्यासों के प्रश्रय दिया, जिनके अचेतन मन में दमित अभिलाशाओं की ज्वाला धधकती रहती है । वे इस ज्वाला का शमन करना चाहती हैं और करती भी हैं ।
नारी और तद्विशयक समस्याएं अज्ञेय के प्रायः सभी उपन्यासों में प्रमुख रूप से चित्रित हुई है । उन्होंने नारी के अन्र्तमन में झांकने का और उसकी अन्तःपरतों को उघाड़ने का प्रयास किया है । इसी के तादात्म में युगीन संदर्भ में नारी संबंधी नैतिकता.अनैतिकता, प्रेम.विवाह, यौन.स्वातंत्र्य आदि प्रष्नों को उठाकर नए नारी मूल्यों की स्थापना की जो उसके जीवन की सार्थकता, उसके व्यक्तित्व विकास, उसकी पूर्णता, आत्म.तुष्टि में सहायक बने । उनकी नारी पत्नीत्व की अपेक्षा नारीत्व, विवाह की अपेक्षा प्रेम और समाज की अपेक्षा व्यक्ति की महत्व को मानते हुए परम्परागत सामाजिक मान मर्यादाओं की स्पष्ट रूप से अवहेलना करती है ।
अज्ञेय के साहित्य में नारी पूर्ण स्वतंत्रता की हिमायती दिखायी देती है । अज्ञेय नारी को मात्र नारी ही मानते हैं उसे नाते रिष्ते में समेटने को वे कतई तैयार नहीं । उनपके कथा साहित्य में नारी का व्यक्तित्व और अस्तित्व ही प्रमुख है, उन्होंने युगीन चेतना से संपृक्त ऐसी सजग और प्रबृद्ध नारी का अवतारणा की जो सतत नारीत्व की प्राप्ति मेकं संलग्न रहती है । नारी के व्यक्तित्व विकास में बाधक समाज सम्मत गतानुगति नैतिकमान मूल्य, परम्पराएं, धारणाएं और विधि निषेध उनकी दृष्टि में मूल्यहीन हैं । समाज व्यक्ति के निजी जीवन का निर्णायक नहीं है, इसलिए समाज का हस्तक्षेप अवांछनिय है । इससे उसके व्यक्तित्व विकास में बाधा पड़ती है । ‘षेखरः एक जीवनी’ में रेखा के माध्यम से वे कहते हैं, ‘मेरे कर्म का, सामाजिक व्यवहार का नियमन समाज करे, ठीक है, मेरे अंतरंग जीवन का दृनहीं । वह मेरा है । मेरा यानि हर व्यक्ति का निजी ।’
नेमीचन्द्र जैन का कहना है, ‘रेखा जैसी नारी हिन्दी कथा साहित्य में दूसरी नहीं है, वह हमारे आज के समाज के ‘अमानवीय नीति विधान के विरूद्ध तीखे किन्तु ऊपर से षान्त विद्रोह की मुर्ति है ।’ रेखा को पुरूष से कटुता मिली और समाज के नीति विधान से कष्ट ।’
दरअस्ल, अज्ञेय की स्त्री पुरूष में अपनी सार्थकता खोजती है, यथा - ‘एक बार मैंने मान से कहा था, क्या मेरे लिए लिख सकते हो.....यह दावा नहीं था कि मैं तुम्हारे जीवन का अर्थ और इति हूँ । अपने को अंत मानने का दुःसाहस मैंने नहीं किया......।’ (नदी के द्वीप)
‘मेरे लिए यह समूचा श्रीमतीत्व मिथ्या है, कि मैं तुम्हारी हूँ केवल तुम्हारी, तुम्हारी ही हुई हूँ....तुम्हीं मेरे गर्व हो, तुम्हारे ही स्पर्ष से ‘सबल मम देह मन वीणा तन बाजे....।’ (नदी के द्वीव)
‘किसी तरह, कुछ भी करके, अपने को उत्सर्ग करके आपके ये घाव भर सकती तो अपने जीवन को सफल मानती ।’ (गौरा.नदी के द्वीप)
उपरोक्त दृष्टान्तों से स्पष्ट है कि अज्ञेय की नारी प्रकल्पना उसे पूर्ण स्वतंत्रता से मंडित नहीं करती । उसमें पुरूष मोह है, जो स्त्री को सदैव आश्रित (मानसिक संसार में तो अवश्य ) देखना चाहता है । इतना अवष्य है, अज्ञेय ने नारी को ‘नैतिक रूढि़यों’ के बंधन से, परम्परागत संस्कारों की बाध्यता से अवष्य मुक्त किया है । उनके रचना संसार में स्त्रीयाँ ‘साइमन द बुआ’ की षब्दावली में ‘सत्त आस्था में जीने वाली ही हैं , उनकी चरितार्थता का केन्द्र पुरूष ही है, पर हाँ इतना जरूर है िकवे भारतीय समाज की स्त्री को स्वतंत्रता के निकट लाते हैं और देषकाल की अग्रगामी चेतना को प्रकट करते हैं ।
चुंकि अज्ञेय का दृष्टिकोण भावुकताग्रस्त और रोमानी आदर्षवाद है, इसलिए उनकी रचनाओं में प्रेम का अंकर काफी कुछ अलौकिक और अषरीरी किस्म का है । उनका मानना है, ‘जीवन में स्त्री का कोमल संस्पर्ष मात्र जीवन की समूची गति और सीमा को बदल सकने में सक्षम है, जीवन में उसके होने भर से लगता है आप.पास, चारों ओर हर सिंगार फूल रहे हैं......‘स्त्री केवल स्त्री ही नहीं है, संसार की कुल सुंदर और मधुर वस्तुओं की प्रतिनीधि है ।’ (हरसिंगार 332)
अज्ञेय ने अपने कथा साहित्य में प्रेम की अनन्यता, तन्मयता और निष्काम समर्पण की भावभूमि पर स्त्री पात्रों की सर्जना की है । इनका प्रेम आत्मपीड़ा से भीगा हुआ है, सामाजिक संस्कारों, बंधनों और परम्परागत नैतिक मूल्यों का उल्लघंन करती ये नारियाँ अपने प्रिय के लिए आत्मविसर्जन करने में जीवन की उन्मुक्ति, सार्थकता, सिद्धि देखती हुई पाइ जाती है ।
‘शेखरः एक जीवनी’ की नायिका षषि जीवन की मूल प्रेरक शक्ति प्रेम को मानती हैं । प्रेम को जीवन में निरन्तर प्रवाह से साधक मानते हुए उसकी उच्चता को प्राप्त करते एक मात्र रास्ता यही है प्रेमी को बंधनहीन करके जीवन के उच्च षिखर पर पहुंचा जाये । तो वहीं शशि प्रेम को पवित्र आत्मिक अनुभूति के रूप में पाप की कलुषता से परे स्वीकारती है । वह षेखर से किए जाने वाले समाज द्वारा अमान्य अपने प्रेम को पाप नहीं मानती है ।’
स्वछन्द और निद्र्वन्द प्रेम ही उसका विष्वास है, ‘तुम में मेरा वह जीवन है जो मैं हूँ, जो मेरा है.....और वह मूर्त नहीं है, इसलिए कम सच नहीं है, कम जीता नहीं है । शेखर तुम मुझे बहिन, माँ, भाई, बेटा कुछ मत समझो, क्योंकि मैं अब कुछ नहीं हूँ । एक छाया हूँ ।......और अमूर्त होकर मैं तुम्हारा अपना आप है, जिसे तुम नम नहीं होने दोगे ।’ (षेखरः एक जीवनी 169)
दअस्ल शशि , नारी के निष्काम, अनन्य और निस्वार्थ प्रेम की प्रतीक है । वह प्रिय की उन्नति और निर्मिति में स्वयं टूट कर भी अपने प्रिय को निरन्तर आगे बढ़ने की प्रेरणा देती है ।
तो वहीं दूसरी ओर रेखा भी प्रेम को जीवन की मूल प्रेरक षक्ति मानती है । उसका विष्वास है कि प्रेम बिना जीवन अधूरा है । प्रेम ही जीवन के अजस्र प्रवाह में सहायक है । वह स्वछन्द प्रेम में विष्वास रखती है और उसकी उन्मुक्तता में जिप्सी बन जाती है । वह गाती है, ‘लव मेड ए जिप्सी आउट आफ मी ।’ वह प्रेम में किसी भी प्रकार के बंधन मानने को तैयार नहीं, उन्मूक्त भोग को वह अत्यन्त स्वाभाविक भाव से ग्रहण करती है । प्रेम में वह यौन वर्जनाओं के पक्ष में नहीं है, अपने विवेक और संयक को नकारते हुए अपने प्रिय के साथ यौन तृप्ति में ही जीवन की सिद्धि देखती है ।
शशि और रेखा की भांति गौरा भी अपने प्रेमी के उन्नयन के लिए सर्वस्व समर्पण करने वाली, एकनिष्ठ प्रेम की भावना से समन्वित नारी के रूप में हमारे सम्मुख उपस्थित होती है । उसका प्रेम निष्काम, निव्र्याज और आत्मसमर्पण से युक्त है । प्रेम के विभिन्न सौपानों से गुजरते हुए ही उसकी यह भावना अन्त में स्वस्थ्य एवं षुद्ध रूप में आभासित होती है ।
षेखरः एक जीवनी’ की शशि नैतिक मर्यादाओं ओर सामाजिक बन्धनों का बौझ उठाने को प्रस्तुत नहीं । वह अपने मौसेरे भाई षेखर के यौनगर्भित प्रेम को पाप नहीं वरदान के रूप में ग्रहण करते हुए कहती है, ‘तुमने जो दिया है, उसमें लज्जा नहीं है । वह वरदान है, यह भी मैं बिना लज्जा के देखती हूँ । वरदान में अस्वीकार का विकल्प नहीं है ।......मैं विवाहिता हूं । अपना आप मैंने स्वेच्छा से दिया है,.....। अपने इस प्रेमाचरण ओर यौनाचरण द्वारा शशि उस नई नैतिकता का निर्माण करती है जिसमें सामाजिक नाते रिष्ते और नैतिक वर्जनाएं बेमानी और निस्सार हो जाते हैं ।
षेखरः एक जीवनी की शशि अपने आचरण से विवाह के परम्परागत आदरश पर इतना तीखा आघात नहीं कर पाती है जितना कि वह नदी के द्वीप की रेखा । रेखा एक प्रबुद्ध, सजग और विद्राहिणी नारी है जो विवाह के अस्तित्व को मित्या मानते हुए अपने स्वैच्छाचरण द्वारा अनचाहे वैवाहिक सम्बन्ध को बेमानी बेमानी और निस्सार सिद्ध करती है । वह पहले पति हेमेन्द्र के समझौता न कर पाने पर उसे निःसंकोच भाव से छोड़ देती है । और खुले आम पतिव्रता धर्म का खण्डन करती है । भुवन से प्रेम करती है और उसके साथ यौन सम्बन्ध में जीवन की तृप्ति का अनुभव करती है । किन्तु अपने प्रेमी भुवन कें साथ हाथ पीले नहीं कर पाती और डा.रमेष की जीवन संगीनी बनकर परिस्थितियों से समझौता कर लेती है ।
अपने अपने अजनबी की तरूणी योक कहती है, ‘कह दो. सारी हरामी दुनिया से कह दो, अन्त में मैं हारी नहीं, मैंने जो चाहा सो किया, मर्जी से किया, चुनकर किया । मैं मरियन ईसा की माँ....ईष्वर की माँ मरियम....जिसको जर्मनों ने वेष्या बनाया ।’
षषि की दृष्टि में तो प्रेम ही सर्वोपरी है । वह प्रेम को बंधनहीन मानती है । वह कहती है, ‘मेरा निष्चय है कि जहां तक मेरा वष है, वह मेरा प्यार नहीं होगा जो तुम्हें बन्दी बनाने का यत्न करेगा.....शेखर मेरा तुम पर अगाध स्नेह है, पर मैं चाहती हूँ कि तुम जानो कि मैंने तुम्हें बांधा नहीं, बांधती नहीं न अब जब मैं हूँ और न पीछे ।’ (शेखर एक जीवन )
दरअस्ल, षषि नारी के निष्काम, अनन्य और निःस्वार्थ प्रेम की प्रतीक है । वह पिय की उन्नति और निर्मिति में स्वयं टूटकर भी प्रिय को निरन्तर आगे बढ़ने की सतत् पे्ररणा देती है । वह अपने चरित्र के माध्यम से समाज की मान मर्यादाओं को तोड़कर नए नैतिक मूल्यों की स्थापना करती है ।
आज का बौद्धिक व्यक्ति यौन नैतिकता विषयक रूढ़ विचारधारा को व्यक्तित्व विकास में बाधक मानक उसका घोर विरोध करता है । उसका सबसे अधिक विद्रोह नैतिकता की इस गतानुगतिक धारणा और विध निषेध के प्रति है । वह नैतिकता को ष्षरीर से नहीं मन से जोड़ता है । ‘नदी के द्वीप’ की रेखा इसी बौद्धिकता का प्रतिरूप् है । वह निर्बाध, मूक्त और स्वच्छन्द जीवन जीने की कामना सामाजिक मान्यताओं की अवहेलना करती हुई जीवनोपलब्धि में संलग्न रहती है । वह अपने और भुवन की सम्पूर्णता के लिए यौन अनुभूतियों को भीगती हुई नैतिक स्वच्छन्दता पर बल देती है ।
रेखा अपने प्रेमी के उन्नयन के लिये अपने अंह को त्याग कर आत्मपीड़ा का रास्ता चुनती है । वह अपने प्रेमी के विकास में सहयोगी है और प्रेमी की उन्नति ही उसके जीवन का ध्येय है । वह भुवन के जीवन की खुषी के लिए अपनी खुषियों को न्यौछावर कर देती है क्यों कि भुवन ही उसके सपनों का संसार ओर उसकी आषाओं का केन्द्र है, ‘वह सब की सब समप्रित है, बंधन मुक्त है....भुवन, भुवन, मेरे भुवन, मेरे मालिक......।’ (नदी के द्वीप 187) साथ ही उसका ध्येय अपने प्रेमी भुवन के जीवन को विकसित और उन्मुक्त करना है, अवरूद्ध करना नहीं । वह अपने प्रेमी से चाहती है केवल पे्रम.प्रेम की गरमाई, जो उसके प्यासे मन को तुष्टि दे सके । तभी तो कहती है, ‘न...मैं कुछ मांगूगी नहीं ।.......लेकिन भुवन, मुझे अगर तुमने प्यार किया है, तो प्यार करते रहना...मेरी यह कुंठित बुझी हुई आत्मा स्नेह की गरमाई चाहती है कि फिर अपना आकार पा सके, सुंदर, मुक्त, उध्र्वाकांक्षी.....।’ (नदी के द्वीप 162)
बहरहाल हम पाते हैं अज्ञेय नारी को पुरूष की स्फूर्ति, चिरन्तन प्रेरणा और पूरक उपादान के रूप में देखते हैं । जहां एक ओर व्यक्ति स्वातंत्रता के धरातल पर समाज सम्मत नैतिक मूल्यों और विधि विधानों का स्पष्टतया विरोध करती हैं तो वहीं दूसरी ओर प्रेम जैसी स्निग्ध और कोमल अनुभूति के लिए उसका प्रिय के जीवन और व्यक्तित्व में आत्मलय हो जाने यथा स्वयं को न्यौछावर कर देने में ही नारी जीवन की सार्थकता मानती हैं । अज्ञेय के रचना संसार में नारियाँ अपने जीवन की सार्थकता, सफलता और सिद्धि अपने प्रेमी के उन्नयन और उसके निर्माण में ही मानती है यही उनके जीवन का अभिष्ट है, उसे नारीत्व की गरिमा है और आत्मोपलब्धि भी यही है ।

डायरी : प्रशान्त महासागर पर आरती के थाल सा थाईलैंड : संतोष श्रीवास्तव

थाईलैंड की यात्रा के लिए मैंने पैंतीस साहित्यकारों, पत्रकारों के साथ कोलकाता के नेताजी सुभाष चंद्र बोस अंतराष्ट्रीय हवाई अड्डे से 16 दिसम्बर को उड़ान भरी । बैंकाक तक उड़ान ढाई घंटे की थी । विषाल पंखों से आकाश को नापते विमान की खिड़की से झांकता समंदर का स्थिर, षांत और नीला जल बिना हिले डुले बस हमें ताके जा रहा था । मानो कह रहा हो- मैं अपने हृदय में कितने द्वीपों को धारे हूं, बस तू यात्रा करता रह मुसाफिर.....।
विमान के भीतर स्क्रीन पर थाईलैंड से भारत की दूरी, तापमान और नक्षा उभर रहा था । भारतीय समय से 1.30 घंटे आगे है वहां का समय । अब हमें घड़ी के कांटे थाईलैंड के समयानुसार घुमाने हैं । मैं अपनी सोलह देषों की लम्बी, छोटी उड़ानों को याद कर रोमांचित थी और एक अनदेखी, अनचीन्ही दुनिया में प्रवेष करने ही वाली थी अपनी प्रिय सखी सुमीता केषवा और अन्य साहित्यिक बंधुओं के साथ ।
धीरे धीरे समन्दर के वक्ष पर उभरा आरती के थाल सा सजा थाईलैंड द्वीप जिसके उत्तर में बर्मा पूर्व में लाओस, कंबोडिया, दक्षिण में मलेषिया जैसे पर्यटन के लिए मशहूर देश हैं । पिछले साल मैंने अन्तर्राष्ट्ीय पत्रकार मित्रता संघ, भारत सरकार की पहल द्वारा एक प्रतिनिधि की हैसियत से जापान की यात्रा की थी और बैंकाक से ही टोकियो के लिए उड़ान ली थी । तभी से यह द्वीप मेरी नज़रों में बस गया था । आज इस चाहत को अंजाम दिया है जयप्रकाष मानस और उनकी संस्था ने । थाईलैंड में पिछले दिनों आई बाढ़ के अवषेष विमान की खिड़की से साफ दिख रहे थे । थोड़ी देर को मन विचलित हुआ....फिर षांत । वक्त का यही तकाज़ा था ।
बैंकाक के सुवर्णभूमि अंतराष्ट्रीय हवाई अड्डे से हम लक्जरी बस द्वारा पटाया के लिए रवाना हुए । मुम्बई से जब चले थे तो पटाया में हमारे तीन दिन के प्रवास को लेकर बड़ी सरगर्मी थी । पटाया एक ऐसा षहर है जिसे लेकर सबके मन में बड़ी ही रंगीन धानणाएं उपजती है कि पटाया सेक्स का खुला बाज़ार है....कि पटाया में उत्तेजित कर देने वाली बाॅडी मसाज होती है....कि पटाया की वाकिंग स्ट्रीट में शराब और शबाब छक कर लेने का खुला आमंत्रण है.....बस जेब गरम हो और जन्नत ही जन्नत । पर कोई भी शहर बिना वजह सज्जित नहीं होता । बरसों पहले इहस सुनसान द्वीप पर सीधी सादी, भोली भाली मोन्स और खेर्स जनजातियां निवास करती थीं जो जंगलों से कंदमूल एकत्रित कर, धान उगाकर और समुद्री भोजन पर निर्वाह रकती थीं । विष्वयुद्ध के दोरान इस द्वीप पर अमेरिकी सैनिकों ने अड्डा बनाया और यहां की लड़कियों को अपनी हवस को षिकार बनाकर ढेर सारी धन दौलत दी । धीरे धीरे इस संस्कृति की जड़ें गहरी होती गई । आज यह विष्व का ऐसा बड़ा देष है जहां सेक्स के द्वारा ‘ईजी टू अर्निग’ का फार्मूला अपनाने में अन्य देष भी नहीं हिचकते, फिर चाहरे खुद की बीवी ही क्यों न हो......फिर हम पटाया को ही क्यों गुनहगार मानें ?
थाईलैंड की पूरी इकानामी स्त्री प्रधान है । इस बात की गवाह भी पटाया नगरी । बस की खिड़की के शीशों के उस पार बाज़ार, बड़े बड़े माल, होटल, फुटपाथ पर लगा बाज़ार, फलों की दुकानें, मछली तलती ठेलों को सम्हाले हर ओर स्त्रियां ही स्त्रियां कार्यरत थीं । पुरूष तो नही के बराबर ही दिखे । मुझे अपना पूर्वोत्तर भारत याद आया जहां स़्त्री सत्ता यानी मातृसत्ता है और बाज़ार को ‘माइती बाज़ार’ कहते हैं । थाईलैंड विष्व का 51 वां ऐसा बड़ा देष है जिसकी आबादी 64 मिलियन है यहां 75 प्रतिषत थाई 14 प्रतिषत चाइनिज, 3 प्रतिषत मलय और बाकी मोन्स, खेर्स जनतातियों के लोग हैं । ये जनजातियां आज भी घने जंगलों में निवास करती थाईलैंड की धरोहर कहलाती हैं । वैसे मुसलमान, जुईष, सिक्ख, हिन्दू भी काफी संख्या में रहते हैं । बौद्ध धर्म के अनुयायी 95 प्रतिषत हैं । मुख्य भाषा थाई है । अंग्रेजी न तो कामकाज की भाषा है न बाजार की । करेंसी यहां की भाथ है । एक भाथ 1.77 पैसे भारतीय मुद्रा का है । खैलों में रग्बी, गोल्फ और फुटबाल बड़े लोकप्रिय है ।
रूम एलाटमेंट के बाद हम अपने अपने रूम में एक घंटे सफर की थकान जो मेरे लिए तो थकान थी ही नहीं, उतारते रहे । मेरी जिगरी दोस्त सुमीता मेरी रूम पार्टनर थी । और क्या चाहिए ? एहसास कुछ ऐसा कि आज मैं उपर, आसमाँ नीचे, आज मैं आगे ज़माना है पीछे....।
भारतीय रेस्तराँ में डिनर के बाद कुछ लोग पटाया की रात्रि सैर के लिए निकल गये । मैं सुमीता के साथ वापिस होटल में आ गई । खिड़की के षीषों का परदा हटा देर रात तक पटाया को रोषनी में नहाया देखते रहे । आसमान के सितारे उस जगमगाहट के आगे फीके लग रहे थे । अक्सर रात के पहर में मैं अवसाद से घिर जाती हूँ और तब अपना होना व्यर्थ लगता है पर षीषों के पार की दुनिया व्यर्थ महसूस नहीं हो रही थी बल्कि कानों में फुसफुसा रही थी, ‘जि़न्दगी न मिलेगी दोबारा.....।’

17 दिसम्बर २०११

सख्त हिदायत थी कि कुद इस तहर तैयार हों कि जैसे तैराकी के लिए जा रहे हों यानि कि थोरो आयलैंड की सैर में भीग भी सकते हैं । मैं जूते पहन ही रही थी कि सुधीर शर्मा पे ड़ोर बेल बजाई । दरवाज़ा खोलते ही हैरान, ‘आप समन्दर में जा रही हैं...ये जूते बिल्कुल नहीं चलेंगे ।’ लेकिन मुझे कोरल्स देखने समन्दर के अन्दर जाना ही नहीं है पिछली बार अंडमान निकोबार में जो तजुर्बा हुआ था, वो मैं भूली नहीं थी । उसने जो उत्पात मचाया था सो आज भी रोंगटे खड़े कर देता है । लेकिन सुधीरजी का कहा टालू भी कैसे ? वो मेरे षुभ चिंतक, प्रादेशिक नातेदार जो हैं, ‘लीजिये, ये उतार दिये जूते, स्लीपर्स पहन लेती हूं । सुमीता के पास स्लीपर्स नहीं थे । समन्दर के किनारे बस से उतरते ही स्लीपर्स, हैट आदि बेचने वालों की भीड़ थी । सुमीता ने स्लीपर्स खरीदे और हम कोरल आयलैंड जाने के लिए एक छोटे जहाज की ओर बढ़ गये । जहाज की सीढि़यों पर कदम रखते ही पास ही खड़े फोटोग्राफर ने कैमरे की ओर ध्यान दिलाते हुए फोटो खींच ली । हम सबसे आगे ओपन डेक पे बैठे जहाज प्रषांत महासागर के नीले विस्तार में सफेद लहरों का कोलाज बनाता आगे बढ़ रहा था । हवा तेज़....... थपेडे़दार, मानो डुबो ही देगी समंदर में । समंदर भी चंचल हो रहा था । लाइफ जैकेट सबने पहन ली थी । लिहाजा कोरल आयलैंड जाना स्थगित करना पड़ा । समुद्र के बीचों बीच खड़े दूसरे जहाज में हमें उतरना था.....एक छोटे से ब्रेक के लिए । जहाज के लम्बे चैड़े डेक पर बैंचेज़ पड़ी थीं । हमारे हाथ पर काले रंग सें जहाजका नम्बर आदि लिखा गया जैसे टैटू हो । दो दिन तक नहीं छूटा वह टैटू.....सुधीर शर्मा बोले, ‘आई लव यू।’
‘लड़की ने लिखा हे न....खुश हो लीजिये आप ।’ मैं कब चुकन वाली थी ।
बे्रक के बाद हम वापिस जहाज में आये । गाइड ने बताया कि ‘अब हम साक आइलैंड जा रहे हैं । जो पोला सेलिंग के लिए मशहूर है ।’
ज्हाज खुबसूरत हरे भरे द्वीप पर रूका जहां नारियल, सुपारी और समुद्र के तटीय इलाके में होने वाले सदाबहार पेड़ों की खुशनुमा छाया में ढेर सारी आरामकुर्सियां पड़ी थी । तट पर सफेद बालू में पैर धंस रहे धंस जाते थे वाॅटर सर्फिग के लिए स्कूटर, वाॅटर ग्लाइडिंग आदि की राइढ्स थी और विदेशी सैलानियों की भीड़ , दरख्तों पर चिडि़या फुदक रही थी । चहचहाहट हवा में बरपा थी । एक घंटा मजे में गुजर गया । खाली कुर्सियां बैठने के लिए लुभा तो रही थीं पर आधा घंटे बैठने की कीमत पचास भाथ । कुछ अमीरजादे आराम फरमा रहे थे । हमारी तो गाढ़ी कमाई थी....बैठे कैसे ? बैठना हम भूल गये । मानस जी अपने संगी साथियों के साथ अन्र्तध्यान थे । जाते समय हनुमान जी की तरह प्रगट हो गये, ‘कैसी लगी ये जगह संतोष जी ?’
मैं मुस्कुराई... जर्रानवाज़ी कोई उनसे सीखे । क्या मजाल जो कोई उपेक्षित महसूस करे । उन्होंने सबको अपनी आत्मीयता से बांध रखा था । सबसे सीधे साधे थे वर्मा जी, उन्हें यह कहने में जरा भी संकोच नहीं था कि वे पहली बार हवाई जहाज पर बैठे है ।
जब हम वापिस लौटे तो हम सबकी तस्वीरें खूबसूरत फ्रेम में जड़ी सौ भाथ में तैयार थीं । कमाई का अच्छा साधन है ये । मेरी तस्वीर देखकर सुधीर सक्सेना ने कमेंट पास किया, ‘जान ही ले ली आपने ।’ मानस जी ने तस्वीर हाथ में ली.....‘तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो , है कौनसा ग़म छफपा रहे हो ।’ समंदर का रेतीला तट हमारे कदमों से कम इन चुलबुले संवादों से अधिक कसमसा उठा ।
सिटी टूर के बाद हमने लंच लिया और उसी दौरान विक्की ने बताया कि ‘यहां का टिफ्नी षो जरूर देखिए थाई कल्चर का बेहतरीन परफामेंस है वहां ।’ प्रवेश टिकिट सात सौ भाथ....षो सात बजे षुरू होगा । पार्किंग प्लेस पर साढ़े छः बजे मिलना तय हुआ । कुछ लोग शापिंग के लिए चले गये । हम दोनों सड़कों पर, पार्क में चहलकदमी करते रहे । समय कब बीत गया पता ही नहीं चला । टिफ्नी षो एक ओपेरा में बहुत ही रौनकदार हाॅल में होता है । हमें बाल्कनी में बैठना था इसलिए लिफ्ट से उपर आ गये । मेरे बाजू में सुधीर शर्मा और सुमीता के बाजू में हमारे ग्रूप का सबसे हंसोड़ व्यक्ति अखिलेष जिसकी बेसिर पैर की बातें सबको हँसाती थीं । विभिन्न देशों के नृत्य प्रस्तुत किये गये....कलाकार बेहद मंजे हुए, मंच सज्जा और परिधान सज्जा के क्या कहने । भारता का जब ‘डोला रे डोला’ नृत्य प्रस्तुत किया गया तो सभी ने जमकर तालियां बजाई । टिफ्नी षो सभी देषों की सुस्कृति को एक में समेटने का अद्भुत प्रयास है । ष्षो की समाप्तिके पष्चात् नृत्य सुंदरियाँ बाहर के खूबसूरत उधान में दर्षकों के संग सौ भाथ में फोटो खिंचवा रही थीं । ओपेरा का स्थापत्य दर्शनीय था ।
डिनर के बाद सुधीर षर्मा, अखिलेष, संदीप तिवारी और सुमीता के साथ मैं मानस जी को मना थपा कर वाॅकिंग स्ट्ीट ले आई । तेज आर्केस्टा, नीग्रो ड्म छलकते जाम और उत्तेजक हुस्न.....लम्बी सड़क उसी से भरी । षोरोगुल का सैलाब....खंबा पकड़कर उत्तेजब नृत्य करती हसीनाएं ...वह क्या नृत्य था ? न बााबा.....नृत्य जैसी कला काष्षर्मीन्दा नही करूंगी वे भड़काउ झटके थे जो पुरूषों को लुभाने के लिए किये जा रहे थे । न कहीं कला थी और न कलाकार । सुधीर षर्मा यह कहकर अखिलेष के साथ चले गये कि ‘मैं तो मसाज पार्लर जा रहा हूं......मेरी बीवी का फोन आये तो बताना मत कि मैं वहां पर हूं ।’
‘हम तो बता देंगे कि आप शराब में धुत्त....बाडी मसाज करवा रहे हैं ।’
वे हाथ जोड़कर चले गये । सुधीर शर्मा और संदीपजी थिरकने के मुड़ में थे । मानसजी खामोश , मैं और सुमीता अपनी लेखनी के लिए दिमाग में मैटर फीड कर रहे थे ।

18 दिसम्बर २०११

आज का दिन चिर प्रतीक्षित दिन था क्योंकि आज सम्मेलन होने वाला था । हमें चूंकि वापिस होटन नहीं लौटना था इसलिए साडि़यां मैंने और सुमीता ने बैग में रख ली थीं ताकि सम्मेलन के लिए चेंज कर सकें । बदली भरे.....धूप छांव की आँख मिचैली वाले दिन की शुरूआत हमने नोंग नच बाटेनिकल गार्डन से की । पटाया फिशिंग, बंजी जंप और टिफ्नी षो के लिए तो प्रसिद्ध है ही यहां की जेम फेक्ट्री भी सैर करनें लायक है । जेम फेक्ट्री में प्रवेश करते ही एक जगर मगर हीरों भरी दुनिया मुसाफिर को आवाज़ देती है । जॅस गैलरी में तो आंखें ही चैंधिया गईं । दीवारों पर हीरे जवाहरात से बनी पेंटिंग्स, स्क्ल्पचर्स देखते ही बनते थे । मोर इतना खूबसूरत कि आंखें उस पर से हटने का नाम की ले रही थीं । हैंड क्राफ्टिंग ज्वेलरी देखने लायक थी । राषि के हिसाब से नगों का भंडार था पर सब कुछ बहुत महंगा ।
लंच के लिए हम ‘मुंबई मैजिक’ भारतीय रेस्तरां में आये । यहीं के काॅन्फ्रेन्स हाल में सम्मेलन होना था । जब तक हाल,स्टेज सजा चिकार डा. नायडू की पेटिंग दीवारों पर टांगी गई तब तक हम उपर के कमरे में चेंज के लिए आ गये । सभी महिलाएं भी भारतीय परिधान साड़ी में थीं ।
कार्यक्रम तीन सत्रों में हुआ । पहले सत्र के अध्यक्ष मंडल में मैं भी थी । गीताश्री, संदीप तिवारी और सुधीर सक्सेना के सम्मान समारोह के बाद हिन्दी के वैष्विक स्तर पर खुलकर चचार्र हुई । कई पुस्तकों का विमोचन भी किया गया । दूसरे सत्र में मुझे और सुमीता केशवा को सृजनश्री सम्मान से सम्मानित किया गया । तीसरा सत्र काव्य संध्या का था । अचानक सुधीर शर्मा ने घोशणा की कि इस सत्र का संचालन संतोष श्रीवास्तव करेंगी ।
आज पटाया में आखिरी रात थी । हम किसी ऐसी जगह की तलाश मेंथे जहां अलका सैनी जी डिस्को कर सकें और कैंव फायर हो, पर कहीं जगह नहीं मिली । गीताश्री और मुझसे वोकिंग स्ट्रीट के बारे में सुन समीा श्रीवास्तव ने वहीं जाने की इच्छा प्रकट की । विकी की दोस्त हमें गाड़ी से वाकिंग स्ट्रीट तो छोड़ गई पर सीमा जी ने अंदर जाने से इंकार कर दिया । मानस जी की नाराजी झेल मैं सुमीता और समीजी के साथ वाकिंग स्ट्रीट की रंगीनी में प्रवेश किये बिना ही बैरंग वापिस लौटा आई ।
ष्षहर कहीं सन्नाटे कहीं रात की रंगीनियों में डूबा था । सपनों की गलियों में मन ढोलक की थाप बन मचल पड़ा था । जि़न्दगी की हकीकत यही है चार दिनों का खेल हो रब्बा बड़ी लम्बी जुदाई......।
लेकिन जुदाई लम्बी नहीं है क्योंकि मानसजी ने घोषणा कर दी थी पाँचवे अंतराष्ट्रीय सम्मेलन की जो जून 2012 को ताषकंद में होगा ।
सुबह बैंकाक के लिए निकलना है । नींद आने का नाम नहीं ले रही थी । सपने पलकों पर मचल रहे थे और पटाया रात के आगोष में था ।
अलविदा पटाया । एक एहसास कि पटाया तुमनें मुझे जिया या मैंने तुम्हें ? जिन सड़कों पर मैं चली हूं, मेरे नक्षे पा तुम्हें मेरी याद दिलायेंगे...जिन हवाओं में मैंने साँसें ली हैं उनकी खुषबू से तुम लबरेज रहोगे.....रहें न रहें हम महका करेंगे....अलविदा पटाया ।
बैंकाक का चुम्बकीय प्रवाह अपनी ओर खींचे ले रहा है । इस दर्षनीय ऐतिहासिक शहर को देखने के लिए लम्बा अरसा चाहिए , इतना वक्त कहां है जि़न्दगी के पास ? बैंकाक सांस्कृतिक घरोहर को संजोए है । यहां का ग्रांड पैलेस, मैजिक आफ डिनर क्रूज चाओ फराया पर्यटकों के बीच आकर्षण का केन्द्र है । ओल्ड सिटी ख्तानाकोसिन, चायना टारउन, पन्द्रह सौ साल पुराना रेन फाॅरेस्ट सांध्य मंदिर, बौद्ध मंदिरों को अपने में समेटे बैंकाक थाईलैंड की पोलेटिकल कॉमर्शियल , इंडस्ट्यिल और कल्चरल हब है जो राजधानी होने का रूतबा रखती है । फुकेट, क्रेबी, छिआंग माई और कोन्सेमयू जैसे टूरिस्ट गंतव्य है, राजषाही है ं राजा राम नवम है । हिन्दू संस्कृति चहुओर...बोद्ध धर्म तो है ही, तमिल मंदिर, दुर्गा, गणपति, हनुमान इनके मंदिर और मूर्तियां भी हैं । मंदिरों के पास गेंदे के फूलों के छोटे छोटे गजरे बिकते हैं जो केवल कलाई तक ही आते हैं । कई थाई युवक चुवतियां माथे पर तिलक लगाये दिखे । यहां रामलीला, षकुंतला-दुष्यन्त, विष्वामित्र मैनका जैसे पौराणिक नाटकों को खेलने वाली नाटक मंडलियां भी हे । भारतीय सुस्वादु भोजन परोसते भारतीय रेस्तरां जहां थाई लोगों की भीड़ जुटी रहती है । अच्छा लगा, हर जगह भारत का अस्तित्व झलक रहा था । हम गौरवान्वित थे । होटल ‘फर्मा सार्ठलाम’ में हमारा काफिला रूका । शानदार होटल, सुविधाओं से पूर्ण कमरें । रिलैक्स होने के लिए इतना काफी था । भूख जोरों की लगी थी । अतः लंच के लिए नजदीक के भारतीय रेस्तरा में गये । खाना अच्छा स्वादिष्ट था । और उससे भी ज्यादी अच्छी खाना परोसने वाली लड़की थी जो शक्ल से थाई दिख रही थी लेकिन जिसका नाम सोनिया था । खाने के बाद मैंने पूछा, ‘मीठे में क्या है ?’
‘जी, सिंवई खीर.... दस मिनिट लगेंगे ।’ उसकी प्यारी सी मुस्कान क्या मीठे से कम थी ? दस मिनिट कौन इंतजार करता ? उसके बाद हम जितनी भी बार वहां खाना खाने गये, पहले वह मीठा परोस लाती । कहती, ‘मेम मीठा पहले ।’
लंच के बाद हमने बौद्ध मंदिरों के दर्षन किये । बेहतरीन स्थापत्य....शान्ति....वाअ इन में थी और वाअ हुआलम्पोंग में भी । भारत के सिद्धार्थ जब बुद्ध हुए तब शांति पाई लेकिन जिन सवालों की खोज में उन्होंने राजपाट, पत्नी, परिवार त्यागा उनके उत्तर तो आज तक कोई पा न सका । सिद्धार्थ ने जीवन से पलायन किया गार्हस्थ्य धर्म का पालन नहीं किया, पलायन क्या हल है ? और जि़न्दगी की मुष्किलों का समना करो ईष्वर न जो ड्यूटी दी है उसे पूरा करो, उसमें जो आनंद है वह कहीं नहीं ।
रात को मेरे कमरे में महफिल जुटी । अलका सैनी का डिस्को आवाज़ दे रहा था । पहले सबने गीत गाये । लतिका दीदी के चुलबुले गीत ने हम सबमें जोश भर दिया । फिर क्या था मैंने और गीताश्री ने खूब नाचा । मेरे कत्थक पर आधारित सूफी नृत्य ‘मेरा इष्क सूफियाना ’ और ‘रंगरेजवा, कौन से पानी में मिलाया तूने कौन सा रंग ’ की सबने सराहना की । मगन होकर नाची मैं । सुधीर सक्सेना अभिभूत, ‘कितनी ढेर सारी कलाएं है आपने । आपके इस रूप से तो मैं परिचित ही न था ।’ मानस जी दीवार के उस पार, पल पल की खबर थी उन्हें । पर दर्षन दुर्लभ ।
गज़लों, गीतों, कविताओं और नृत्य से रंगारंग वह रात ठिठकी सी खड़ी रह गई । रौषनी के समंदर में ढूबा बैंकाक रात की पनाह खेज रहा था ।
20 दिसम्बर 11
आज सुमीता ने बेड टी बनाई थी, ‘उठ कितना सोती है ?’
उसने मुस्कुराकर चाय का प्याला मेरी ओर बढ़ाया । मैंने कम्बल में दुबके ही चाय खतम की । हमें तैयार होना था सफारी वल्र्ड और मरी पार्क के लिए । नाश्ते के बाद काफिला बढ़ा । हमारे गाइड को, ‘चलो चलो, नीचे उतरो ’ हिन्दी में बोलना आता था । बाकी वह माइक पे क्या बोलता था, समझ से परे था । वह हंसता तो हम भी हंस देते । भाषा भले ही शब्द प्रेषित नहीं कर पा रही थी पर भव जरूर समझा देती थी । दिवाकर भट्ट अपनी राजकुमार जैसी अदा में बोले, ‘जानी, मरीन पार्क आ गय ।’
मरीन पार्क कई एकड़ भूमि पर फैला विषाल उद्यान था । जिसकी हरीतिमा और रंग बिरंगे पत्ते दूर से ही लुभा रहे थे । यहां जल थल के पाणियों को मानवीय कारनामों के लिये प्रषिक्षित करके उनके षो दिखाये जाते हैं । सबसे पहले एलिफेन्ट शो हुआ । बल्कि हमने हाथ भर की दूरी पर खुले में बैठ षेर और उसके बच्चे को देखा । षेर जंजीरों से बंधा चट्टान पर दुबका बैठा था । उसके बगल की चट्टान पर उसका बच्चा बोतल से चुकुर चुकुर दूध पी रहा था । सैलानी उसके संग फोटो खिंचवा रहे थे । 85 भाय में । सील षा, मंकी षो, डाल्फिन षो, अद्भूत सीला तो दर्षकों के गालों का चुम्बन लेते हुए पोज़ दे रही थी 200 भाय में । बहुत खूब कमाई का जरिया भी । मुझे तो सील का हर करतब के बाद अपने पतव9ार मुना पंखों से तालियां बजाना बहुत लुभाता रहा । समुद्री जीवों के अद्भूत बारनामे जहां हमें चकित किये थे वही हालीवुड स्टाइल में फिल्मी स्टंट देखकर बिन बारिख हम लथपथ स्टंट ग्राउंड से पानी तेज बौछार मुझे ओर सुमीता को सिर से पांव तक षराबोर कर गई । सुधीरे षर्मा कब चूकने वाले थे । गाने लगे, ‘एक लड़की भीगी भागी सी....।’
ओह ! भीगे कपड़ों में ही हमें लंच लेना पड़ा । जो एक विषाल हाल में था । असल में वह हाल कम बड़ा पार्क जैसा नज़र आ रहा था । जहा चिनार के नकी पेड़ पूरे माहोल को जंगल का लुक दे रहे थे ।
लंच के बाद हम जू गये । हमें लगा पैदल चलना होगा और कटघरे में जानवरों को देखना होगा । पर हमारी बस पूरे सफारी को बैठे बैठे ही हमें दर्शन करानेलगी । शेर, चीता, भालू, नीलगाय, बारहसिंगा, हिरन, जिराफ, हाथी, साइबेरियन फ्लेमिंग पक्षी जिनकी पीली चोंच और गुलाबी सफेद पंख थे । सभी तरह के जानवर जंगल में स्वच्छंद विचरण कर रहे थे । मानस जी सहयात्रियों को जानवरो की उपाधि से विभूषित कर रहे थे । किसी ने पूछा और चिरैया कौन है ?’
‘आई है न कोयल और मैना मुम्बई से ।’
ब्स में ठहाके गूंज उठे । सफारी पार्क से सड़क पर आते ही हम ष्षाॅपिंग के लिए इंदिरा मार्केट की और बढ़ने लगे । गीताश्री मुड में थी । हम लोग अन्त्याक्षरी खेलने लगे । नये पुराने फिल्मी गानों से हमने वो समां बांधा कि अलसाये लोग भी फ्रेश नज़र आने लगे ।
इंदिरा मार्केट में हमें तीन घंटों के लिए बस ने पार्किग प्लेस पर छोड़ा । हमने शापिंग फुटपाथ से शुरू की । मुम्बई के फैषन स्ट्रीट जैसा ही मार्केट था । इलैक्ट्ानिक सामान और सूती कपड़े अच्छे थे । कुछ खरीदा, कुछ देखा लौटे तो सखी, समब्न्धियों के लिए खरीदे उपहारे के थैले हमारे हाथ में थे । बस चली तो मानसजी ने रात को डिनर के बाद कवि गोष्टी के आयोजन की बात तो की पर सभी थके थे । नींद के आगोष में जाते देर नहीं लगी ।

21 दिसम्बर २०११

आज विदाई की अंतिम बेला थी । मधुर सपनीली यादों में डूबी मैं एयरपोर्ट की ओज जाते हुए भीगी पलकों से बैंकाक को अलविदा कह रही थी । तभी विकी का हाथ कंधे पर, ‘आपके लिए ये प्रेमभरी सौगात ।’ कत्थई रंग का कपड़े का नन्हा सा हाथी ।
सुवर्णभूमि एअरपोर्ट बहुत खूबसूरत स्थापत्य का जगमग रोषनियों वाला, चमकते फर्ष वाला हवाई अड्डा है । लगभग आधा किलोमीटर के दायरे में समुद्र मंथन का दृष्य है । एक तरफ असुर दूसरी तरफ देवता बीच में भगवान विष्णु और षेषनाग...भ्रम हुआ क्या मैं भारत में हूं ? जैसे हम उमंग भरे आये थे, वैसे ही उमंग भरे लौट रहे हैं । इस आने जाने के बीच सपनों की एक नदी लगातार छः दिन तक बही । आयोजकों के प्रयास ने उसमें साहित्य, संगीत और अनबूझे पलों के कोरल, मोती भरें । मैं थाईलैंण्ड में अपना भारत जीकर लौट रही हूं और साथ ले जा रही हूं थाईलैंड को जो मेरे मन के समंदर में दीप सा जड़ गया है ।

......