Monday, September 20, 2010

अपनी बात:जीवन चटक रंगों का केनवास


मनुष्य की स्मृति वह सागर है जिसमें बून्द बून्द जीवन रस संचयित होता रहता है और वहां बन जाती है मीठे पानी की झील, जिससे हमारा सामाजिक व्यवहार, रिश्त-नाते और तर्क वितर्क के असंख्य विन्यास पैदा होते हैं, अतीत हमारे चिंतन को संवारता है तो तर्कसंगतता और तथ्यपरकज्ञान चिंतन और विचारों को धार देती है और हम सत्य असत्य, न्याय अन्याय तथा अच्छे बूरे के दृष्टिकोण को विकसित करते है । आदमी अपने संस्कारगत आचरण के वशीभूत ही अपने दृष्टिकोण को विकसीत करता है, यह दिगर बात है कि संवेदना और सौंदर्यबोध उसे आम इन्सान से विशिष्टा की ओर ले जाने में सहायता करते हैं । आदमी के विवेक सम्मत ज्ञान को संवेदना भेदती है और महत्वकांक्षा उसमें गुणात्मक वृद्धि करती है, जब दायरों को तोड़ने की बारी आती है तो स्मृति का यही जखीरा जीवन की उलझी हुई पहेलियों को सुलझाने में मदद करता है और तब यथास्थिति के किले को भेदने की कवायद शुरू हो जाती है ।
निस्सदेह मानव मस्तिष्क अपनी संवेदनशीलता, चिंतनपरकता, कल्पनाशीलता तथा तार्किकता के तालमेल से अनुभूतियों का ऐसा वितान खींचता है जो सामाजिक धरातल पर नव आकृति का निर्माण कर सके । जिसमें चटक रंग हो मानवता के, प्रेम के और आपसी सद्भाव के । इन्हीं रंगों के तालमेल से निर्मित होती नवसंस्कृति निर्मात्री है हमारे कल की ।
बहरहाल, जुलाई 10 का अंक आपके सम्मुख है इसमें समाहित है, कथाकार लवलीन की डायरी ‘ज़िन्दगी के बरअक्स’, जीवन सिंह ठाकुर की कहानी ‘बदलते परिदृश्य’, नोबल पुरूस्कार प्राप्त पोलिश कवि चेस्लाव मिलोष की कविताएं , श्रीकांन्त चैधरी का व्यंग्य ‘धर्म का फंडा’ और एक आलोचनात्म आलेश ‘शमशेर के काव्य की मूल संवेदना’ पुस्तक समीक्षा ‘शहर की अंतरंग यात्रा का दस्तावेज : राग भोपाली ’ आशा है अंक आपके लिए पठनीय होगा, आपकी प्रतिक्रियाएं तो हमेशा की तरह मिलेगी ही ।
अगले अंक के साथ आपसे जल्दी ही भेंट होगी ।

रमेश खत्री



डायरी:लवलीन:ज़िन्दगी डायरी के बरक्स


3.4.1989

देर रात तक उपन्यास पढ़ती रही । करीब दो बज गए । अनायास ही भूख लग आई । तेजी से पेट में खालीपन महसून होने लगा । खुद पर ही हंसी आई कि इतनी रात गए कुछ बना पकाकर खाने की तव्रतर इच्छा हो रही है । बिस्किट, ब्रेड, नमकीन से ही काम चलाया जा सकता था । लेकिन कुछ पकाने की इच्छा प्रबल हो उठी । तय कि बेजीटेबल नूडल्स बनाए जाएं । गैस के ऐ बर्नर पर नूडल्स उबालने रखे । सब्जियां काटने तक मुस्कुराती रही ं सिर्फ अपने लिए इतनी मेहनत । मुझे लोगों को व्यंजन बनाकर खिलाना अच्छा लगता है । लेकिन रूटीन में सुबह शाम नियमित स्प से नाश्ता खाना बनाना अप्रिय रहा है । रूटीन से कोफ्त होती है । मित्रों सखियों रिश्तेदारों के चेहरे पर तृप्ति भरी मुस्कुराहट देखकर लगता है रसोई में की गई मेहनत का पुरस्कार मिल गया । नूडल्स अच्छे बने थे । सब्जियों और मसालों का अनुपात एकमद सही सटीक ।
खाते खाते ख़याल आया कि ज़िन्दगी भी सब्जियों और मसालों को पकाने की कला होती तो मेरी ज़िन्दगी भी ताजी खुशगवार और सुस्वादु होती । पकी हुई और डिलिशियस ! लेकिन अफसोस की ज़िन्दगी को बनाने पकाने सिझाने की कला पर मनुष्य का अख्तियार ही नहीं है । आप नियामन नहीं हो सकते । बहुत से फैक्टर काम करते हैं जिस पर आपका वश नहीं चलता । आप धनिया और टमाटर हरी मिर्च अदरक की तरह उत्प्रेरक नहीं चुन सकते । उन्हें सिझाने पकाने की आग की मियाद नहीं तय कर सकते । ज़िन्दगी तो अप्रत्याशि संयोगों, घटनाओं, दुर्घटनाओं पर निर्भर है । सब कुछ इतना निर्मम, दुर्गम, अपरिभाषेय, अमूर्त और अगम्य है । आप बस बेलगाम धारा में बह ही सकते हैं ।



आलेख:रमेश खत्री:शमशेर के काव्य की मूल संवेदना




आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने चिंतामणि में कहा है, ‘जिस प्रकार आत्मा की मुक्तावस्था ज्ञानदशा कहलाती है, उसी प्रकार हृदय की मुक्तावस्था रसदशा कहलाती है । हृदय की इसी मुक्ति साधना के लिए मनुष्य की वाणी जो शब्द विधान करती आई है, उसे ही कविता कहते हैं ।’
किन्तु शमशेर बहादुर सिंह की कविताओं के बारे में बात करने से पहले हमें अपने मस्तिष्क में यह अच्छी तरह से बैठा लेना होगा कि ‘उनकी कविताओं में दुरूहता का प्रश्न आरंभ से उठाया जाता रहा है ।’ उनकी कविताओं पर चर्चा करने वाले का यह भी अहम कर्तव्य बन जाता है कि वह उन कविताओं की दुरूहता की व्याख्या करे । और उनके शिल्प और प्रयोगों के बारे में विभिन्न कोणों से विवेचना की जाये । और इसके बरअक्स जो मिलाजुला चित्र तैयार हो वह ‘नई कविता’ और उसके नयेपन के सवालों से जूझता हो । यह निर्विवाद है, ‘शमशेर ने कविता के छनद, लय, शब्दावली सबमें बहुत से नये प्रयोग किये हैं । उन्होंने ऐसे नये प्रतीकों और बिम्बों का सृजन किया है जो कविता के अभ्यस्त पाठकों को चुनौति की तरह लग सकता है ।’ (विवेक के रंगः 68)
अक्सर यह देखा जाता है कवि की निजी अनुभूतियों का प्रभाव उसके काव्य पर पड़ता है और यह भी सही है काव्य में संवेदनाएं जितनी अधिक आन्तरिक जुड़ाव से क्रमबद्धता लिये हुए होंगी वह उतना ही जनसामान्य की अनुभतियों का वाहक बन सकेगा । कवि की रचना प्रक्रिया मेंे अपने आस पास के घटनाक्र का महŸाी योगदान होता है । समय और व्यक्ति की सोच, परिस्थितियां और उनसे जुड़ाव आदि का भी रचना पर प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रभाव पड़ता है । स्वअनुभूत घटनाएं रचना की संवेदना को गहन और विशाल बनाती है, ‘ओ मेरे घर@ ओ है मेरी पृथ्वी@सांस के एवज में तूने क्या दिया मुझे@ ओ मेरी माँ ।’ (इतने पास अपने)
शमशेर की कविताओं में संवेदानाओं के असख्य स्त्रोत उनके जीवन में घटित त्रासदियों के कारण संभव हो पाया । सर्वप्रथम उनकी जननी जन्मदायिनी मां का इस लोक से चले जाना और फिर सेवा शुश्रूषा के बाद भी पत्नी का साथ छोड़कर इस लोक से विदा हो जाना शमशेर को पूरी उम्र सालता रहा । और वे पृथ्वी में मां को लताशते रहे । उनकी खोज ता उम्र जारी रही । और वे प्रकृति के कतरे कतरे में उन्हें तलाशते रहे । यह अलग बात है कि जब वे प्रकृति से दो चार होते हैं तो उनकी कल्पना को पंख लग जाते है और प्रकृति उनकी कविताओं में नाचने लगती है, ‘धूप कोठरी के आईने में खड़ी हंस रही है@पारदर्शी धूप के पर्दे मुस्कुराते@मौन आंगन में मोम सा पीला बहुत कोमल नभ@एक मधुमक्खी हिलाकर फूल को उड़ गई. ’ (कुछ और कविताएं )


कविताएं:चेस्लाव मिलोश


(1980 में साहित्य के लिए नोबल पुरूस्कार प्राप्त पोलिश कवि, निबंधकार, अनुवादक चेस्लाव मिलेश पोलैंड की अन्तरात्मा के कवि माने जाते हैं आपकी कविता पोलैंड के राष्ट्यि जीवन में घट रही यातनापूर्ण स्थितियों और उसके प्रति संघर्ष को अभीव्यक्ति प्रदान करने वाली कविता है जो जीवन के बहुआयामी पक्ष को समाहित किये हुए है : इन कविताओं के अनुवाद है श्री हरिमोहन शर्मा संपादक )

तैयारी

अभी एक साल है तैयारी के लिए
जल्द ही काम करना शुरू करूंगा अपनी एक महत्वपूर्ण पुस्तक पर
जिसमें हमारी शताब्दि उजागर होगी-जैसा कि वह थी
सूरज अच्छे और बुरे आदमी पर उगेगा
बस’न्त और पतझड़ बिना चूके आएंगे
दलदली झुरमुट में चिड़ियां बनाएंगी घोंसला मिट्टी से
और लोमड़ियां सीखेंगी अपना कपटी स्वभाव

यह होगी विषय वस्तु और परिशिष्ट- इसी तरह सेनाएं
बर्फीले मैदानों के आर पार दौड़ेंगी, शाप देती चिल्लाती
तरह तरह की आवाजों वाले कोरस में ; टैंक की तोप सड़क किनारे बढ़ती
झुटपुटे में चलती, चजी जाती निगरानी बुर्ज और
न्ुकीली तारों वाले सैनिक कैम्प में ।

नहीं यह कल नहीं होगा- पांच या दस सालों में !
टब मांओं के बारे में ज्यादा सोचता हूं मैं
और पूछता हूं औरत से पैदा होनेवाला आदमी क्या है ?
वह संकुचित होता खुद बचाता अपना सिर
जब उसे भरी भरकम जूतों से मारी जाती है ठोकर
गोली के निशाने पर रखा जाता है, दौड़ाया जाता है
वह जलता है चमकती लौ में
एक बुलडोज़र उसे फेंक देता है खाई में
डसका बच्चा अपना टैडी बीयर लिपटाए हर्षोंल्लास में मग्न
मैंने अभी तक नहीं सीखा है कि कैसे बोलना चाहिए मुझे शान्ति से


विश्व के अंत का गीत

जिस दिन खत्म होती है दुनिया
मधुमक्खी मंडराती है तिपतिया फूल पर
मछुआरा बांधता है चमकते जाल को
समुद्र में उछलती हैं खुश खुश डॉल्फिनें
गौरेया फदकतीं रिमझिम फुहार में
और सांप की दिखती केंचुल सुनहरी

जिस दिन खत्म होती है दुनिया
औरतें गुजरती हैं खेतों के बीच से
छाते उठाए हुए
पियक्कड़ निंदासा चरागाह के किनारे
कुंजड़े लगाते हैं आवाज़ गलियों में
और पीले पाल वाली एक नाव आती है टापू के पास
हवा में लरजती है वायलिन की धुन
और गूंजती जाती तारों भरी रात में

और जिन्हें था इन्तजार
बिजली के गरजने तरजने का
वे हो जाते हैं निराश !
और जिन्हें था इन्तजार
शकुनों का या देवदूतों की तुरही का
उन्हें नहीं आता विश्वास
कि यह हो रहा है अभी, बिल्कुल अभी ।

जब तक निकलते रहते चांद और सूरज
जब तक मंडराता है भौंरा गुलाब पर
जब तक पैदा होते रहते गुलाबी शिशु
कोई नहीं करता विश्वास- कि यह हो रहा है अभी ।

सिर्फ सफेद बालों वाला एक बूढ़ा
जो शायद हुआ होता पैगम्बर
किन्तु है नहीं वह पैगम्बर क्योंकि
उसे दूसरे ढेर से काम हैं
कहता है टमाटर बटोरताः
कोई और अन्त नहीं होगा इस विश्व का
कोई और अन्त नहीं होगा इस विश्व का ।


कहानी: बदलते दृश्य: जीवन सिंह ठाकुर




कमरे की सीलन आघा फीट और ऊपर चढ गई थी । नीलिमा की खांसी और उसका दम फूलना बढ़ गया था । दिनेश अदंर ही अंदर बुरी तरह परेशान रहात कि डाक्टरों की दवाएं पता नहीं क्यों असर नही कर रही है । बार बार डाक्टरों का यह परामर्श कि ‘आप किसी बड़े विशेषज्ञ को दिखाइये ।’ दिनेश, नीलिमा से कहता, ‘वैसे कुछ खास नहीं है लेकिन बड़े डाक्टर को बता लेते हैं ।’ नीलिमा जानती थी कि बड़े डाक्टरन को दिखाने का मतलब है महिने के पन्द्रह दिन अभावों को बुलाना है । कभी वो ही टालती कि ‘रहने दो दवा तो धीरे धीरे ही असर करती है । बड़ा डाक्टर क्या कर लेगा ? दवा तो वो भी देगा । दवाओं में फर्क क्या है......?’ दिनेश जवाब देने को होता िकवह कुछ सोच के कुछ परेशान होकर चुप रह जाता.....फिर नीलिमा हरा टाविल दिनेश के हाथ में देते हुंए कहती, ‘चलो छोड़ो, जाओ हाथ मुंह धो आाओ । मैं तब तक चाय बनाती हूं ।’ दिनेश को पांच जगहों से फटे उस टॉवेल के निकलते रेशे खसकते जान पड़ते । मुंह पोछते वक्त कुछ छेद बड़े हो जाते.....टॉवेल दिखाते हुए दिनेश कहता, ‘यार नीलिमा तुम्हारा भी जवाब नहीं.....सात महिने से वह खरीदा हुआ टॉवेल पेटी में पटक रखा है, निकाल लो न ! आखिर कब तक धरे रहोगी ? क्या नये क्वार्टर में जाए बिना उसका मुहुर्त नहीं आएगा ?’ नीलिमा प्याला आगे बढ़ाते हुए कहती, ’देखो न कोई ठीक ठाक चीज़ घर में है । फिर क्वार्टर मिलेगा तो आपपड़ौसय के लाग भी बड़े लोग होगें । वहीं नया टॉवेल निकालेगें तो ठीक रहेगा ना ! क्वार्टर कभी तो मिलेगा ही । पड़ौस की भाभी बता नहीं थी.....कुछ नए मकान बन रहे हैं, कुछ खाली होने वाले हैं ।’ दिनेश खीज पड़ता, ‘बस....बस....हो रहे हैं खाली.....अपने लिए ही दुनिया के लाग लाइन लगा के खड़े हैं न !’ नीलिमा सकपका जाती फिर कुछ नहीं बोलती.....कुछ काम में लग जाती ।
चाय पीते हुए दिनेश शासकीय आवास के बारे में सोचता रहता । पिछले दिनों जब क्वार्टर खाली हुआ था तब उसे पता चला जब तक किसी खाद्य अधिकारी के परिचित को एलॉट हो गया था । उस दिन बड़ी खीझ के साथ वह कलेक्टर से मिला था । उसने हमेशा की तरह अप्लिकेशन देते हुए कहा था....‘सर क्वार्टर खाली हुआ था और आपने कहा था कि प्रायरटी....मुझे दी जाएगी ।’ कलेक्टर साहब ने आग्नेय नेत्रों से देखा तो वह सर से पांव तक सिहर गया था । लेकिन कलेक्टर ने अपनी सदाशय के पोस्टर लगा दिये......ठीक है.....मैं खुद इस केस को दूखूंगा, अबकी बार जब भी खाली होगा या नये क्वार्टर बनेगें.....आई विल बी त्रेइ टू अलॉट.....’ दिनेश ने तमाम तरह की हिम्मत जुटा कर कहा था, ‘सर ! आप तो जानते ही हैं कि मैंरे जैसे लोगों का परित्यक्ता से विवाह करके घर बार भी छूट जाता है । बहुत सी दिक्कतें हैं । हम दोनों के घर छूट गये....वहां भी घर क्या था । बस रिश्ते थे । मकान नहीं था । बस शुरूआत ही करनी थी.....शुरूआत है सर......हमारे पास कुछ भी नहीं है......फिर मुख्यमंत्री जी का बयान भी आया था कि.....वह अपना वाक्य पूरा भी नहीं कर पाया था कि बीच ही में कलेक्टर ने टोंकते हुए कहा था....‘देखो वे क्या कहते हैं, क्या करेगें इसे मुझे मत बताइये.....इस आशय के कोई आर्र्डर्स नहीं है । तुम्हें यहां कुछ कहने की आवश्यकता नहीं है । जाइसे हम देखेगें ....।’ साहब ने उसकी अर्जी पर कुछ लिखा था और कागजों के ढेर के हवाले कर दिया था । वह नमस्ते करके बाहर आयाा था । जहां काफी लोग अपनी बारी का इंतजार कर रहे थे......चाय का प्याला उसने ज़मीन पर रखकर उसने नीलिमा से पूछा, ‘शाम की टेबलेट ले ली ?’ नीलिमा ने कचवाई हुई निगाहों से देखा....दिनेश समझ गया.....। नाराजी भरे स्वर में बोला, ‘क्या यार तुम नीलिमा तुम भी....गोली तो टाइम से लिया करो वर्ना ठीक कैसे होगी ?’ नीलिमा ने बडे ही ठण्डे लहजे में कहा, ‘लेलूंगी बाबा..... कहां टाईम चला गया....गोली.....गोली....गोली ही तो खाना है खा लूगीं.....।’ दिनेश ने घुसैल निगाहों से नीलिमा को देखा लेकिन उसके चेहरे की बेचारगी के सामने सारा बलिष्ठ घुस्सा चित्त हो गया...वह मुस्कुरा पड़ा था....उस दिन दिनेश को दोपहर के वक्त युसूफ ने आकर बताया, ‘यार सिविल लाइन के दो क्वार्टर खाली हुए हैं और पांच नये क्वार्टर ज़िला प्रशासन को मिल गये हैं ।’ दिनेश को लगा कि युसूफ ने उसे दस लाख के इनाम की खबर सुनाई हो । उसने उत्साह में भर कर युसूफ को गले लगा लिया, ‘यार तुम्हारे मुंह में घीं शक्कर...अब की बार मुझे क्वार्टर मिलेगा ही । सारे अफसरों को मालूम है, कलैक्टर स्वयं जानते है और मेरी ढेरों अर्जियां वहां पड़ी है ।’ युसूफ ने उसके कंधे दबाते हुए कहा, ‘इंशा अल्लाह जरूर मिलेगा......’ दिनेश ने तत्काल आधे दिन की छुट्टी की अर्जी लिखी । युसूफ को देते हुए कहा, ‘यार बड़े बाबू को दे देना । मैं जाऊँगा तो सत्रह बात पूछेगें और बहस में देर हो जायेगी ।’ दिनेश ने जैसे दौड़ता हुआ आॅफिस से बाहर निकला । उसे पता ही नहीं चला कि आफफिस का गेट, मोटर स्टेण्ड, रेल्वे क्रासिंग, टॉकिज चैराहा कब गुजर गया । वह हांपता हुआ कलैक्टर के गेप पर था । उसने नज़रें दौड़ाई । वही शफी अहमद जमादार खड़ा था । राधेश्याम उंघता हुआ बैठा था । होमगार्ड का जवान छगनलाल दीवार से सटा खड़ा हुआ था.....शफी अहमद, दिनेश को देख कर मुस्कुराया । दिनेश को सकुन मिला कि वह उसे पहचानता है .....वह सीढ़ियां चढ़कर बरांडे में पहुंचा.....शफी से पूछा.....‘काका,.....साहब अन्दर ही हैं ?’ ......शफी ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया, ‘साहब लंच के लिए गए थे अभी लौटे नहीं हैं ।’ उसने पलटकर देखा.....पोर्च में कलैक्टर साहब की चाकलेटी कार नही थी । पोर्च खाली पड़ा था । वह वहीं पड़ी हुई बैंच पर बैठ गया । जहां से सामने का रोड़ साफ नज़र आता था । जिस पर सायकिलें, आटोरिक्श, कार, स्कूटरों का आना जाना लगा था । शफी जमादार पर्दे के पास से हटकर दिनेश के पास बैठ गया । बड़ी ही दफ्तरी विनम्रता से बोला, ‘कहिये, आज साहब से क्या काम आन पड़ा ?’ दिनेश ने शफी की तरफ देखा.....जहां रूआब से तनी लेकिन खामोश निगाहें थी । होठों पर बोलने के बाद की चुप्पी थी......‘हुऽऽऽ बात ये है कि मैं मकान के बारे में मिलने आया था....’ शफी बोला, ‘हाँऽऽऽ क्वार्टर अलाटमेंट की मीटिंग शाम को है.....ऐसी चर्चा डिप्टी कलेक्टर साहब कर रहे थे । लेकिन कलेक्टर साहब नहीं होगें होगें तब तक मीटिंग कैसे होगी ?’ दिनेश ने शफी से पूछा, ‘काका आपको पता है ?’ शफी बोला, ‘मुझे इतना तो पता नहीं है हां अन्दर साहब के पी.ए. हैं उनसे मिललो ।’ दिनेश उत्साहित हो उठा । शर्ट ठीक किया बालों पर हाथ फेरा, रूमाल से चेहरा साफ किया ।वह शफी की ओर देख कर मुस्कराया जैसे नाटक में उसकी भूमिका का क्रम आ गया हो । पर्दा हटा कर अंदर घुस गया । बड़ा हॉल जगमगाता हुआ । फिर एककमरा जहां पर्दा लटक रहा था । दिनेश ने आहिस्ते से पर्दा हटाया, टेबलपर एक तख्ती रखी थी......कुंतबिहारी.....दिनेश ने गर्दन लम्बी करके कहा, ‘मैं आई कम इन.....’ उन्होंने गर्दन झुकाए हुए ही कहा, ‘यस....’ दिनेश अंदर दाखिल हो गया और टेबलके सामने खड़ा हो गया......‘नमस्ते सर !’ कुंजबिहारी ने गर्दन उठाई......आश्चर्य से जैसे फटपड़े ‘अरे आप.....दिनेश बाबूऽऽऽ बेठिए.....आप दिनेश चंद्रपिता रमणलाल व्यवसाय शासकिय सेवा । आपने क्वार्टर के लिए आवेदन किया है, आपको शासकीय आवास चाहिए, कलेक्टर साहब ने कहा है कि प्रथम वरीयता आपको दी जाएगी.....पत्नी आपकी बीमार है ।’ कुजबिहारी एक सांस में ही बोल गए.....दिनेश को लगा, ‘वाकई उसका मामला कण्डाग्र है । कुछ बताने की जरूरत ही नहीं फिर भी उसे लगा कि कुंज बिहारी उसे नये सिरे से बोलने ही नहीं देना चाहते हैं । वह कुट आगे सोचता इसके पूर्व ही कुंज बिहारी ने बताया दिनेश बाबू अलॉटमेंट की मीटिंग साहब के आने के बाद ही होगी । वैसे भी आपका केस सभी को मालूम ही है, ‘यू डांेट वरी ’ दिनेश....ने कुंज बिहारी के अदब से हाथ जोड़े और कुर्सी से उठ गया । अच्छा चलता हूं फिर भी मेरा निवेदन है कि आप थोड़ा ख्याल रखिएगा । कुंज बिहारी मुस्करा दिये, ‘अरे यार दिनेश बाबू आप भी सरकारी कर्मचारी हैं और मैं भी....ख्याल की क्या बात है....मैंने आपकी फाइल पर बड़िया टिप्पणी लगा दी है.....’ दिनेश अंदर से अपार संतुष्ट होते हुए पुनः नमस्ते कह कर बाहर आ गया । शफी काका लोगों से घिर बतिया रहे थे । पोर्च खाली था । दिनेश सीढ़ियां उतर गया ।





पुस्तक समीक्षा:शहर की अंतरग यात्रा का दस्तावेज :रमेश खत्री



हिन्दी के प्रसिद्ध व्यंग्यकार शरद जोशी के चुनिंदा व्यंग्योंं का संग्रह विगत दिनों ना राजकलम प्रकाशन दिल्ली से ‘राग भोपाली’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ । 315 पृष्ठीय इस वृहद पुस्तक में शरद जी के महत्वपूर्ण 84 व्यंग्य लेखों का गुलदस्ता है । जो शहर भोपाल के इर्द गिर्द रचे गये थे जिन्हें संकलित किया है उनकी पुत्री नेहा शरद ने ।
इस पुस्तक में संकलित व्यंग्य आलेखों से गुजरते हुए लगता है हम दो दशक पूर्व की परिस्थितियों से गुजर रहे होते हैं । यह यात्रा ऐसे रास्तों से होकर गुजरती है जहाँ पर कई पेचों खम हैं, उन्माद की कई सीढ़ियाँ हैं, अपनत्व की कई झाकियाँ हैं, मिठास में घुले कई धोखे हैं, बिम्बों में लिपटे कई सवाल हैं और फैंटेसी में समाये कई तीर है, जो समय रहते वार करते है सीधे निशाने पर । इन सबका साबका पड़ता है इस इक्कीसवीं सदी में जहाँ पर बाज़ारवाद अपने पूरे उफान पर है और इसने अपनी गिरफ्त में हर खास औ’ आम को ले लिया है । ऐसे समय इन आलेखों में जीवन की उर्जा के दर्शन होते हैं । और अपनत्व की सौंधी महक नथुनों में भर जाती है, जिसके सहारे हम निकल पड़ते हैं भोपाल की अंतरंग गलियों की यात्रा पर । पुस्तक का पहला ही लेख ‘भोपाल रात की बाहों में’ की पहली पंक्ति हैं ‘क्या है ख़ाँ, कि यों किसी साले ने ट्रे पर सजा कर ऊपर उठा दिया हो !’ चाकू की तरह खुलता है और हमारे जे़हन में भोपाल की भोगोलिक स्थिति से रूबरू करवा देता है । वैसे भोपाल तालों का शहर है, और उसके लिये कहा जाता है, ‘ताल में ताल भोपाल ताल, बाकि सब तल्लईयाँ, रानी में रानी कमलापति, बाकि सब गध्धईयाँ ।’
जब कोई व्यंग्यकार किसी शहर को देखता है तो वह उसको किस नज़र से देखता है इसकी बानगी इस समीक्ष्य पुस्तक में देखने को मिलती है, उसकी नज़र के विभन्न पहलू यहाँ वरक वरक में बिखरे पड़े हैं, ‘स्तर अलग.अलग हैंं । तबादले के ही नहीं ऊँचे स्तर हैं, जहाँ ऊँचे काम होते हैं । प्रश्न यही है कि आप किस स्तर पर उपयोगी हैं । जिस स्तर के आप भोपाली हैं, उस स्तर के व्यक्ति दूर ज़िलों के आएँगे ।’ (गरज के मारों का तीर्थ) तो वहीं दूसरी ओर जोशीजी की नज़र भोपाल के अन्तर मन का सूक्ष्म रूप से मुआइना करती हुई दूर तक निकल जाती है, ‘न्यू मार्किट में कॉफी हाउस के इर्द.गिर्द स्पिरिट’75 की रंगीन चहल.पहल है । पुलिस परेड ग्राउंड से एम.ए.सी.टी. तक युवकों के समूह आते.जाते नज़र आते हैं । स्टेडियम पर गावस्कर, घावरी, पटौदी खेल रहे हैं । वहाँ भी भीड़ है दर्शकों की ऐसे में अपने छोटे से घर के अहाते में बैठ स्तंभ लिखना किसे अच्छा लग सकता है ।’ (इस बसन्त में भोपाल.35)
कोई व्यंग्यकार जब किसी के लिए दुआ भी करता है तो उसमें से भी व्यंग्य की बू आने लगती है, ‘हे बादल, ऐसे बरसो कि इस वर्षा में राज्य का रंग बदले, फुहार हो, जनता को फुहेरी आए और नेता की चप्पलें घिसें, टूट जाएँ ।’ (बादलों, बरसो!.50) ये किस तरह की दुआएँ हैं इसका आकलन तो पाठकों को ही करना होगा । बारीक इतनी कि अन्दर की तहों को खगाल कर बाहर निकाल दे, ‘मैंने कॉफी हाउस में एक सरकारी चमचे से जिज्ञासा व्यक्त की थी कि क्यों भई, तुम लोगों ने श्रीकांत और शानी के पहले हरिशंकर परसाई को शिखर सम्मान क्यों नहीं दिया ? वह झट से बोला, परसाई को सागर विश्व विद्यालय में चेयर मिल तो गई । ढाई हज़ार वेतन और बंगला । साल.भर का टोटल लगाओ तो, इक्कीस हज़ार से ज्यादा हो जाते हैं । अब उपर से शिखर पुरूस्कार भी दें ? वाह !’ (पुरूस्कार का गंदला जल.81)
समीक्ष्य पुस्तक में संग्रहित व्यंग्यों में आम जन जीवन की धड़कनें सुनाई देती है ।‘वैसे भी शरद जोशी तो मध्यमवर्गीय जीवन की जीजिविशा तथा महानगरीय जीवन की त्रासदी को बारीकी से उकेरने वाले चित्रकार रहे हैं । उनकी लेखनी के कई कई चित्र इस पुस्तक में बिखरे पड़े हैं कुछ बानगी देखिये, ‘मेरे नगर की वे सब हीरोइनें जो तिरछी माँग काढ़ती थीं, पहली बार जिन्होंने सैंडिल पहनने का साहस किया था, पत्रिकाएँ ऐसे पढ़ती थीं, जैसे किसी क्रान्ति में भाग ले रही हो ! वे सब अब बूढ़ी माँ के रोल में दिखाई दे रही है ।’ (कान पर रखकर क़लम निकले), या फिर, ‘सूखा पीड़ित हो, बाढ़ पीड़ित या गैस पीड़ित. आदमी का दर्द रूपये बटोरने में और बटोरा हुआ रूपया सुविधाएँ बढ़ाने के काम आता है । आदमी के दर्द से उसका कोई सरोकार नही । भोपाल में गैस पहले लिक्विड में बदली । लहर उठी और वातावरण भीग गया । अब लिक्विड या द्रव्य ठोस में बदल रहा है । एयरपोटे और कई ख़ूबसूरत सॉलिड इमारतें ।’ (पीड़ा से सुविधा तक) एक अन्य चित्र देखें, ‘बच्चों की बातों को सम्मान से कोई नहीं देखता और इसी कारण प्रायः सामने वाले को यह कहकर टाल दिया जाता है, ‘क्या बच्चों जैसी बातें कर रहे हो ?’ पर अहसाना ने मुहावरा उलट कर रख दिया कि अब मैं किसी बड़े से बात करते समय कह सकता हूँ, ‘क्या तुम बच्चों जैसी बात करना नहीं जानते ?’ (अहसाना)

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