यांत्रिकता के चलते पुस्तक संस्कृति का लगातारह्रास हुआ, इसे पुनः स्थापित करने के लिहाज से अभी 24 से 26 नवम्बर तक राजस्थान हिन्दी ग्रंथ अकादमी ने एक बड़ा आयोजन ‘पुस्तक पर्व ’ नाम से किया । इस तीन दिवसीय आयोजन में हिन्दी के कई लब्ध प्रतिष्ठित साहित्यकारों और विचारकों से मिलने का अवसर मिला । कई सत्रों में हुए विचार विमर्श जिमनें प्रमुख, ‘लोकतांत्रिक सरकार और सांस्कृतिक नीति’ अशोक वाजपेयी, के.के.पाठक, रघु शर्मा, राजाराम भादू - संयोजन दीप्तीमा शुक्ला एवं नीमल बागेश्वरी । ‘सृजन और समय’ क्षमा शर्मा, ऋतुराज, केशुभाई देसाई संयोजन अनिता नायर ।
‘जल लंगल और ज़मीन’ रोजेन्द्र सिंह,
हरिराम मीणा, कविता श्रीवास्तव- संवादी रमेश मीणा । तो कहानी वाचन में सरबत
खान, चरण सिंह पथिक, राधेश्यान तिवारी, सुधा अरोड़ा, रश्मि भार्गव, मनोज
कुमार शर्मा, असद अली असद- संयोजक संदीप अवस्थी । ‘दिल की जुबां से कहिए’
कीर्ति कपूर, रेणू अगाल, कैलाश कबीर, उषा उपाध्याय, संवादी मृदुला भसीन
एवं रेनू सैनी । ‘सृजन और समय’ के दूसरे संत्र की अध्यक्ष्यता डा. हेतु
भारद्वाज ने की और इसमें समय की फांक को अपने सीने में दबाये की गई सृजन
यात्रा के विभिन्न चित्र उकेरे गये शोध आलेखों का वाचन किया डा. लक्ष्मी
शर्मा, अजय अनुरागी, डा. संदीप अवस्थी, रमेश खत्री इत्यादि ने । तो उधर
अशोक वाजयेयी से संवाद किया दुष्यंत ने ।
25 नवम्बर को ‘बात आगे बढ़े तो बात बने’ स्त्री विमर्श के अन्तर्गत सुधा अरोड़ा, चन्द्रकांता, ममता शर्मा, मनीषा पांडेय से संवादी नीलिमा टिक्कू, सीमा शर्मा । तो वहीं दूसरी ओर ‘हाशिये से आगे का सच’ दलित विमर्श में विष्णू सरवदे, जयप्रकाश कर्दम, मीना नकवी, श्याम लाल से संवादी रमेश वर्मा थे । ‘उत्तर आधुनिकतावाद, इतिहास लेखन एवं साहित्य’ सुधीश पचैरी, प्रो. लाल बहादुर वर्मा, सी. पी. देवल, से संवादी अनुराधा राठौड़ थी । तो वहीं भौजन के बाद सोशल मीडिया और ब्लागिंग की दुनिया में अविनाश दास, के.के. रत्तू, श्याम सखा श्याम, चंडीदत्त शुक्ल से संवादी संजय मिश्रा थे । वरिष्ठ कवि नंदकिशोर आचार्य से संवाद किया राजाराम भादू और आदिल रजा ने । कविता पाठ में विनोद पदरज, प्रेमचन्द गांधी, ऋतुराज, सरस्वती माथुर, रमेश खत्री, गार्गी मिश्रा, चंचला पाठक, अमित कल्ला, चण्डीदत्त शुक्ल इत्यादि इसकी संयुक्त रूप से अध्यक्ष्ता की हरीश करम चंदाणी, मीठेश निर्मोही ने ।
इसी तरह 26 नवम्बर को एक सत्र में कम कीमत की अच्छी किताबें, शब्द और रंगमच का अंतर, कथाकार एंव उपन्यासकार कुसुम अंसल से नीमिला टिक्कू और दिनेश चारण का संवाद तथा लोकप्रिय बनाम क्लासिक फिक्शन में आर डी सैनी से मनीषा पाण्डेय का संवाद । तो संवेदानिक मान्यता की राह में राजस्थानी भाषा में चन्द्रप्रकाश देवत, अर्नुन देव चारण, मालचन्द तिवाड़ी, भरत ओला से संवादी दुलाराम साहरण एंव मदन गोपाल लडढा । इक्कीसवी सदी में का अंत में विनोद भारद्वाज, चिन्मय मेहता, राजेश व्यास से संवादी ममता चुर्वेदी एंव अमित कल्ला थे । हिन्दी के वरिष्ठ कवि और साप्ताहिक शुक्रवार के संपादक विष्णु नागर से संवाद किया हरीश करणचंदाणी ने ।
कुल मिलाकर यह कि इस तीन दिवसीय पुस्तक पर्व में लेखकों की आवाजाही रही तो वहीं दर्शकों की कमी कुछ खली हालांकि उसे भरने की कोशिश की काॅलेज के छात्रों नें लेकिन इस सबके बीच कहीं बहुत छूट गया वास्तविक पाठक् जो इस तरह के साहित्य का वास्तविक हकदार है । साथ ही यह भी कि आने वाल समय में पुस्तक पर्व का आयोजय नई बुलंदियों को छुएगा ।
बहरहाल, इस अंक को हम विलंब से आपके सम्मुख प्रस्तुत कर रहे हैं जिसके लिए हमें खेद है । इस अंक में प्रभात त्रिपाठी की पांच कविताएं हैं इसके साथ अर्चना ठाकुर की कहानी ‘अनकही’, सरोजनी साहू की ओडि़या कहानी ‘बलाकृता’ जिसे अनुवादक हैं दिनेश कुमार माली साथ ही हिन्दी के बड़े कवि विजेन्द्र की डायरी के अंश, और साथ में मनीषा कुलश्रेष्ठ के कहानी संग्रह केयर आफ स्वात घाटी की समीक्षा तो है ही इसके साथ में है डा. मजीद शेख का आलेख ‘दलित चेताना’ भी इसी अंक में आपके सम्मुख है ।
साथ ही अनुरोध भी कि अगले अंक में आप अपनी रचनाओं से इसे समृद्ध करने का प्रयास करेंगे ।
रमेश खत्री
25 नवम्बर को ‘बात आगे बढ़े तो बात बने’ स्त्री विमर्श के अन्तर्गत सुधा अरोड़ा, चन्द्रकांता, ममता शर्मा, मनीषा पांडेय से संवादी नीलिमा टिक्कू, सीमा शर्मा । तो वहीं दूसरी ओर ‘हाशिये से आगे का सच’ दलित विमर्श में विष्णू सरवदे, जयप्रकाश कर्दम, मीना नकवी, श्याम लाल से संवादी रमेश वर्मा थे । ‘उत्तर आधुनिकतावाद, इतिहास लेखन एवं साहित्य’ सुधीश पचैरी, प्रो. लाल बहादुर वर्मा, सी. पी. देवल, से संवादी अनुराधा राठौड़ थी । तो वहीं भौजन के बाद सोशल मीडिया और ब्लागिंग की दुनिया में अविनाश दास, के.के. रत्तू, श्याम सखा श्याम, चंडीदत्त शुक्ल से संवादी संजय मिश्रा थे । वरिष्ठ कवि नंदकिशोर आचार्य से संवाद किया राजाराम भादू और आदिल रजा ने । कविता पाठ में विनोद पदरज, प्रेमचन्द गांधी, ऋतुराज, सरस्वती माथुर, रमेश खत्री, गार्गी मिश्रा, चंचला पाठक, अमित कल्ला, चण्डीदत्त शुक्ल इत्यादि इसकी संयुक्त रूप से अध्यक्ष्ता की हरीश करम चंदाणी, मीठेश निर्मोही ने ।
इसी तरह 26 नवम्बर को एक सत्र में कम कीमत की अच्छी किताबें, शब्द और रंगमच का अंतर, कथाकार एंव उपन्यासकार कुसुम अंसल से नीमिला टिक्कू और दिनेश चारण का संवाद तथा लोकप्रिय बनाम क्लासिक फिक्शन में आर डी सैनी से मनीषा पाण्डेय का संवाद । तो संवेदानिक मान्यता की राह में राजस्थानी भाषा में चन्द्रप्रकाश देवत, अर्नुन देव चारण, मालचन्द तिवाड़ी, भरत ओला से संवादी दुलाराम साहरण एंव मदन गोपाल लडढा । इक्कीसवी सदी में का अंत में विनोद भारद्वाज, चिन्मय मेहता, राजेश व्यास से संवादी ममता चुर्वेदी एंव अमित कल्ला थे । हिन्दी के वरिष्ठ कवि और साप्ताहिक शुक्रवार के संपादक विष्णु नागर से संवाद किया हरीश करणचंदाणी ने ।
कुल मिलाकर यह कि इस तीन दिवसीय पुस्तक पर्व में लेखकों की आवाजाही रही तो वहीं दर्शकों की कमी कुछ खली हालांकि उसे भरने की कोशिश की काॅलेज के छात्रों नें लेकिन इस सबके बीच कहीं बहुत छूट गया वास्तविक पाठक् जो इस तरह के साहित्य का वास्तविक हकदार है । साथ ही यह भी कि आने वाल समय में पुस्तक पर्व का आयोजय नई बुलंदियों को छुएगा ।
बहरहाल, इस अंक को हम विलंब से आपके सम्मुख प्रस्तुत कर रहे हैं जिसके लिए हमें खेद है । इस अंक में प्रभात त्रिपाठी की पांच कविताएं हैं इसके साथ अर्चना ठाकुर की कहानी ‘अनकही’, सरोजनी साहू की ओडि़या कहानी ‘बलाकृता’ जिसे अनुवादक हैं दिनेश कुमार माली साथ ही हिन्दी के बड़े कवि विजेन्द्र की डायरी के अंश, और साथ में मनीषा कुलश्रेष्ठ के कहानी संग्रह केयर आफ स्वात घाटी की समीक्षा तो है ही इसके साथ में है डा. मजीद शेख का आलेख ‘दलित चेताना’ भी इसी अंक में आपके सम्मुख है ।
साथ ही अनुरोध भी कि अगले अंक में आप अपनी रचनाओं से इसे समृद्ध करने का प्रयास करेंगे ।
रमेश खत्री
डायरी :
अन्तर्यात्रा’ :;विजेंद्र
10 दिसम्बर 1971
अँधेरा गाढ़ा है । मैंने ऊँगली गढ़ा कर उसे पहचानने की पहल की । मैं डरा घनी परछाइयाँ हर तरफ विचार वस्तु की अर्थवान छाया ही है ।
हर तरफ अँधेरा है । आदमियों की टूटी खण्डित कतारें घरों में समा रही है । आम आदमी को घर एक सुरक्षित स्थान है । कहते हैं ‘सर पर छत तो रोटी भाये’ घर हमें स्थायित्व का बोध कराता है ।
हवा तेज हुयी है । पेड़ों की पत्तियों से दिशा ज्ञान होता है । वे सूर्य की रोशनी की ओर उन्मुख हैं । अँधेरा वे भी नहीं चाहती ।
पेड़ धूप में अपनी जड़ों को नम किये खड़े रहते हैं । भूगोल में निर्धारित सीमायें बदल जाती है । अब तक जहाँ लाल फूल खिलता था । वहीं बैंजनी का कटान दिखाई देता है । खेत की कमाई के बाद किसानों का दल उसकी रखवाली को सजग है । गरीब फूँस की झोपड़ी डाल कर खेत रखाता है । बड़े बड़े फार्म हाउसों पर एक्सेशन रहते हैं ।
11 दिसम्बर 1971
किसान को कभी चैन नहीं । वह एक लेखक की तरह ही अपने खेतों की तैयारी के लिए बेचैन रहता है । खेत जब उखटने लगता है तो उसे जान लेवा चिंता सताती है ।
उसटा लगते ही पता लगता है कि सूखापन, ‘हरेपन’ से कितना भिन्न है और अलग है ।
जो बलवान हैं अपने रीति रिवाज़ों, आस्वाद और कलाभिरूचियों को चलाने और जनता पर थोपने के लिए कमर कसते हैं । धरती उपजाऊ बने यह चिंता हमस ब की है । खरपतवार निकालने से धरती किसान के अनुकूल होती है ।
वर्षा होना अब मुहावरा बन चुका है । वर्षा जल की ही नहीं हाती वह फूलों की भी होती है । लोगों केे जंगल में घन बरसता है । वह खून की भी होती है । खून की होली निराला ने खेली थी -
खून की होली जो खेली
युवक जनों की है जान,
खून की होली जो खेली।
पाया है लोगों में मान
खून की होली जो खेली
यह कविता 1946 के छात्रों के देषप्रेम को व्यक्त करने निमिŸा उनके सम्मान में लिखी गई थी ।
इन दिनों बिना सिर धड़ ही धड़ ज्यादा दिखाई देते हैं । ऐसा वक्त आता है जब कवि अकेला होता है । उस समय वह अपने को तुच्छ समझौतों से अलगाना चाहता है । जब जनता जागती है तो वह हितों और हकां के लिये लोक युद्ध की चुनौती देती हैं । यानी वह किसी सेना के बल पर न लड़कर स्वयं को संगठित कर लड़ती है । उसके साथ श्रमिक भी होते हैं ।
कई बार बिजली की रोशनी तो दूर लालटेन की हल्की टिमटिमाहट भी मयस्सर नहीं होती ।
ब्लैक आउट में दराजों से छन कर आने वाली रोषनी को भी पर्दे खींचकर छिपाना पड़ता है ।
मैं जनतंत्र का नागरिक हूँ । जो कविता में नहीं कह पात उसे गद्य में कहूँगा । हमारी समस्याओं हल चुंगयों की खाली भैंसा गाढि़यों में नहीं है ।
मेहतरों को समाजिक प्रतिष्ठा सिर्फ कागजों में मिलती है । पर अब वे बहुत सजग हैं । जानते हैं अपना हक वे ले के रहेंगे । फिर समय आने पर उन कागजों को भी गड्ढे में गाढ़ ऊपर से आग जला देते हैं ।
उपजाऊ निमान की सिफ्त है धान की खेती को आगे बढ़ाना !
मेरा घर तुम्हारे नक्षे में अंकित है, हृदय में नहीं ।
13 दिसम्बर 1971
मुझे इन्तज़ार है । रोषनी जाने को है । फिर अँधेरा, अँधेरा ! इस छोटे से कस्बे में अच्छे लैम्प भी नहीं मिलते । दुकानदार जबड़ा फाड़े बैठे हैं । श्रमिकों की गांठ कटती है, रात में युद्ध में ! भी गरीब मरता है, बाढ़, सूखा और महामारी में जैसे ! आँखें अँधेरे को फोड़कर उधर जाती है जहा रोशनी है । ठंड लगातार हड्डफोड़ हो रही है । पेड़ सुन्न हैं । एक सरदार पीला चेहरा लिए मुझे घुमकर देखता है ! जब पूछा तो हँस पड़ा, मुझे बड़ा अजब लगा । देखते देखते अँधेरे में खो गया । पर उसका घूरना और एकदम पीला चेहरा दोनो मुझे विचलित किये हैं ।
बच्चे जिनके बदन पर सिर्फ एक मैंली कुचैली कमीज है- छोटे छोटे ढाबों, चायघरों और होटिलों में गिलास, प्लेटे, थालियाॅ साफ कर रहे हैं । पहले सुखमज करते हैं । बाद में साफ पानी से धोकर कपड़े से पौंछते हैं । उनकी उँगलियाँ ठंड से सिकुड़ गई है । पर चलती हैं तेज तेज । उनके चेहरे पर व्यंग्य हँसी है । वे मुझे चाय पीते देखकर निगाह नीचे करते हैं । जानते हैं जेब में पैसे है - बदन पर ऊनी लबादे ।
उनकी नाक फिचफिचाती है ।
जब बर्तन साफ इकर लिये तो एक पत्थर के कोयलो की भट्टी धधका रहा है । मैंने जब नाम पूछा तो पहले षरमाया फिर तपक से बोला, ‘मोहन’! डसे युद्ध का एहसास नहीं है । बिल्कुल फुरसत नहीं जो बातों को सुने । उसे देर रारत तक इसी तरह बर्तन मलते मलते मलते गड़ी-मुड़ी सो जाना है ।
अब मैं चला ! लिहाफ गद्दों में भरक कर सोऊँगा, लजीज खाना खाकर ।
वे जो ऊसर में खड़े हैं हाथ बाँधे फावड़े चलाकर आये हैं । कविता से श्रमक क्या संबंध? भाषा का क्रियाशील से क्या जुड़ाव ? दोनों को गति और ताप क्रिया से ही मिलते है ।
मैं घुमने निकला हूँ । बकेला हूँ । फसल है दोनों तरफ । सरसों फूली है । बल्कि अब उसमे फलियां छटने को हैं ।
जब पास आया तो लगा कि वे थोड़ी दूर पर एक बाँध की दरार मूँदकर आये हैं, फिर दूसरे आदेश के लिए प्रस्तुत हैं । यहाँ छाँह कहाँ । पल भर सुस्ताने को खड़े हो गये हैं । इन्हें क्या पता कचचा लोहा और कोयला धरती की उर्वरकोख में छिपा है ।
लगता है आगे खेत गलत ढंग से विभाजित है । इतने छोटे छोटे टुकड़ों में बाँटने की क्या जरूरत-जितनी धरती छोटे टुंकड़ों में बटेगी उतने ही धनी धनपति होंगे । और गरीब गरीब । खेतिहर खेत विहिन । श्रमिक बेकार !
बहुत सी ज़मीन यूं ही ठलवा पड़ी है । कुछ पर बुषुमार है जो उसे दूसरों से कराते हैं । बहुत भूमि हीन होकर गाँव छोड़ भाग गये - ! न्याय कहाँ हैं ? भूमि सुधार आज तक नहीं हो पाये ।
चक्कलस समय को खाती है । मेरी रचनात्मक उर्जा को भी ! वे जो कारखानों की पारियों से छूट कर आये हैं उनके चेहरों पर थकान है । फिर ठहाका मारते हैं । सन्नाटा टूटता है । क्रियाषी जीवन जीने की ताक है और उससे सोच गतिषील और पैना होता है । इन्हीं लोगों के हाथ की बनी चीज़े बाजार में आती है जिन पर लोग भारी मुनाफा कमाकर व्यापारी मोटे होते हैं । मुझसे कोई कान में कह रहा है -
अब ये करो और चूको मत
अब इसे बदल दो
अच्छी शक्ल देने को
अभी और सूर्ख होने दो
ये कतरने उधर फेंक दो,
देखो, ध्यान से कि
नट बोल्ट ठीक से नहीं कसे गये ।
ये उन्ही के ताकतवर हाथ है
जो वे कचरे को उठाकर
एक तरफ़ फैकते हैं
और माल गाड़ी के डिब्बे
तैयार हो जाते हैं ।
15 दिसम्बर 1971
पहाड़ तोड़ना और पत्थर को पीसना - ये काम श्रमिकों के मजबूत और सधे हाथ करते हैं - कवितायें नहीं । जंगलों से लकड़ी काटनाप- पहाड़ों पर रास्ता बनाना यह काम कंधे उचकाने वाले - रंगीन मिजाज लोग नहीं करते ! उन लोगों को ताकतवर होने दो जो मुझे जिन्दा रहने का जरूरत की चीजों को निर्मित करते हैं- उन तरीकों को सोचो जो हमें अपने पांव पर खड़ा होना सिखा सकें ।
सिर और सोच की हिफाजब करना बहुत जरूरी है । ये दोनों चीज़ें बहुत नाजुक हैं और मुझे लोगों से भिन्न और अलग बनाती हे ।
ये ताँगे वाले अपनी सुविधा की परवाह ने कर अपने पेट की चिंता करते हैं । अच्छी गिजा, अपने काम में मुस्तैदी से खून बनने में इजाफा होता है । अच्छी से मतलब जिसे मैं सहजता से पचा सकूँ । सेहत पहली चीज़ है । मै। अस्वस्थ होकर कोई रचनात्मक काम स्वतः स्फूर्तता से नहीं कर पाता !
मुझे तो अच्छा भोजन मयस्सर है । पर हजारों लाखों तंगदरत हैं । जिन के चेहरे पर पीलापन देख रहा हॅू वह कुदरती नहीं है । खून की कमी से ऐसा हुआ है । जलवायु की तासीर जानने को हर वक्त धरती के संपर्क में रहना जरूरी है ।
अच्छे बीजों की तलाष में किसान बहुत ज्यादा वक्त जाया नहीं करता ! हट्टा कट्टा इंसान निडर भी हो जरूरी नहीं । खोदा पहाड़, निकली चुहिया ! वाली कहावतों में बड़ी मार्मिक ध्वनि होती है - गहन अनुभाविक सत्य !
जितना धीरज रख रहा हॅू उतने ही अच्छे खनिज भण्डारों का पता लगता जा रहा है । चट्टानें मुझे प्रेरित करती हैं । पर झरनों से ताकत मिलती है । बिना चट्टानों के झरने का वजूद क्या ?
कई बार अपने को अँधेरे में छिपाकर महफूज महसूस करता हूँ ।
इतना उजाला भी किस काम का जो डर लगने लगे । मध्यम रोषनी में खूबसूरत चेहरे की खूबसूरती और बढ़ जाती है ।
बाचाल और बातों के कुलावे मारने वाले लोग इन दिनों खुष हैं । बातों से भी पेट भरने लगा है । देश का आर्थिक संकट पाल में सड़ गये आम की तरह है जो अपने चैंप से दूसरों को भी सड़ा देगा !
भाषा का इस्तेमाल एक हद तक किया जाता है ।
भण्डारों में ऊपर तक बोरिया चुनी होने पर भी गल्ला नसीब नहीं । सड़ भले जाये । पर इन्सान को नसीब न हो ?
पर वे बोलते नहीं, बस इशा\रा करते हैं । अच्छे प्रतीक क्रियाषील जीवन से चुने जाते हैं । कविता में सामान्य शब्द भी प्रतीक बनता है यदि उसमेंमेताफोरिकल भंगिमा है । लफ्फाजी जीवन और रचना दोनों में लचर चीज़ है । यह हमारे व्यक्तित्व को क्षीण बल बनाती है । इच्छाशक्ति को तोड़ती है । नक्कालों से दूर रहें तो बेहतर है ।
अन्याय के विरूद्ध श्रमिक और छोटे किसान जब संगठित होंगे तब नयी संवेदना का बीज फूटेगा ।
17 दिसम्बर 1971
जो मिट्टी कमाते हैं उन्ही के हाथों में बल्लम और फरसे होते है । मुझे उनसे डर लगता है पर ऊपर से रौब मारता हूँ ।
आज जो कविता लिखी जा रही है वह उनसे दूर हैं । मेरा सौंदर्यबोध उनके सामने सिमिटा सकुचा खड़ा है ! उनके दुस्साहसिक कार्यकलाप इन कविताओ में चित्रित नहीं ! दरअसल उसके लिए बड़ा काव्यमन चाहिये । उनमंे साहस है । कुव्वत है-अटूट धैर्य है । उनसे झड़पें होती है । शासन तंत्र अन्दर अन्दर डरता है । खून खराबा ! इस दिखावटी भाषा में ये सब कैसे कह पाऊँगा । डरता हॅूँ कहीं पाँव कीचड़ में न सन जाये । च्नतम चवमजतल का हिमायती होता जा रहा हूँ ।
जनतुत्र की कविता यह नहीं है । मुझे दरअसल पउचनतम चवमतजल लिखनी चाहिये । मुझे गढ़ लीखे, बेहड़ और पहाड़ चढ़ने होंगे । घने वनों से गुजरना होगा ।
जो नफासती शब्द मैं इस्तेमाल करता हूँ वे इनके जिस्मानी मोड़ों से नहीं जन्में । परकीय , फूल, हवा, आकाश , चिडि़या में सब उनके लामबंद होने को नहीरं बताती ! पूरी पूरी बरसात लोग अपने सिर पर झेलते है । पूरी सर्दी नंगे पाँव कटती है ।
इनके हाथ पहाड़ काटते हैं । लोहा भी पकाते हैं । नंगे बदन ऋतुओं को सहने के लिये इनकी खाल मजबूत ढाल का काम करती है ।
एक दिन गिरधर की लठिया हाथ में लेकर देखी । उसका वनज मैंने हाथ में महसूस किया । दिन भर प्षुओं को चराता है । घना और अखड्ड जहाँ चाहे निकल जाता है । है तो पतला दुबला पर ललकारत बड़ी तीखी है । हर प्षु उसकी आवाज पहचानता है ।
मैंने कभी उसे खिरनी घाट पर देखा । कभी गोपालगढ़ और कभी पुरोहित मुहल्ले में । चेहरा धूप में पककर तँबई हो गया है ।
यह मेरा चरित्र है । नया काव्यनायक । घने की मिट्टी अलग से बोलती है । काली मिट्टी है । चिकनाहट लिये । हमारे बदायूँ में इसे ‘चीका’ मिट्टी कहते हैं । इसकी अजब तासीर है । पर क्या बात है कि यहाँ आम के कुल छः पेड़ हैं ! बोर देखने को आँखें तरसती है । मैं आम, जामुन, अमरूद और फालसे जैसे फलों के बीच पला बड़ा हुआ । यहाँ देखे बबूर, बेटिया, खडि़हार, करील, हींस, पापड़ी, कदम्ब.....वन के वन हैं ।
ग़रीब लोगों के बच्चे कहाँ पढ़ पाते हैं ! थोड़े संभले कि छोटे छोटे झाबे ले लेते हैं । छोटी छोटी संदूकचियाँ और पालिष की डिब्बियाँ ।
18 दिसम्बर 1971
यह इलाका ब्रज का है । लोग जब ब्रज भाषा बोलते हैं तो जैसे कविता रची जाती हो । यह रीति कालीन कवियों की ब्रज भाषा नहीं है बल्कि सूर की भाषा के बहुत करीब की भाषा है ।
सुबह सुबह स्त्रीयाँ गोबर लेने को भैंस का नाम पुकारती है । जिसने पहले देखा पुकार वही उसेक लेगी । कैसा अनुषासन है । संकेत भर से स्वामित्व तय होता है । फिर उस पर कोई नज़र तक नहीं डालता । यह नैकिता संस्कारों से पैदा होती है । उसे हमने मानवीय जीवन की व्यवहारिक गरिमा से पाया है ।
मैं जहाँ से गुजरा पत्थर से फुके कोयलों के ढेर दिखाई दिये । बच्चें के झुण्ड निकलते हैं । छोटी छोटी उपयोगी चीजें कचरे के अम्बार से बीत लाते हैं । जो हम छूते नहीं वे उसमें से रत्न खोजते हैं । उनकी आँखें तेज है जो उपयोगी चीजों को फौरन पहचानती है । उँगलियाँ बहुत ही क्रियाषील -उनका विवेक व्यवहार है । परिस्थितियों ने उन्हें कठिनाईयाँ तो दी पर जीवन जीने के लिये विवेक भी ं। वे जानते हैं कि उनके लिए फिलहाल इस सड़े गले समाज में कोई सामान्य जगह नहीं है ।
उनके लिए स्कूल कहाँ है ? अस्पताल कहाँ है ? हालात ऐसे हैं कि अपराधी बनने को हम विवष है !
इलाका बिल्कुल वीरान है । दूर दूर तक सन्नाटा । छितराई विषखपरी खरपतवार को देखती है । कुकुभाँगरा खड़ा है । कुकुरमुत्ता एक निहायत ही कमजोर प्रजाती है । लोग उसे उखाड़कर उसकी सब्जी बना के खा जाते हैं । पर निराला ने उसे अमर कर दिया ।
कविता में मनुष्य जीवन के साथ वस्तुयें भी जीवित रहती है । कुकुभँागरा बहुत ही कडि़यल और मजबूत खरपतवार है । वह न तो मारने से मरती है । न उगाने से उगती है । प्रकृति के नियामों की तरह वह धरती के साथ है । कितनी ही आँखें चुराओ इस धरती पर कुकुरभाँगरा तो दिखेगा ही ।
कहते हैं इसे काढ़ा बनाकर पीने से कुकरखांसी चली जाती है । एक दिन अब्दुल्ला से जंगल में घूमते हुये भेंट हो गई । वह हट्टा कट्टा दुस्त दुरूस्त युवक है । रंग साँवला, आँखें बड़ी पर कुछ बेरूखी सी । भ्रम पैदा करती है कि अबदुल्ला बड़ा अंहकारी है । पर ऐसा कतई नहीं है । जब बात करता है तो बिल्कुल कच्ची ब्रज बोलता है । ऊपर का होठ थोड़ा कटा हुआ है । एक आँख कुछ बैठी सी । पर वह उसे महसूस नहीं होने देता । पढ़ा लिखा नहीं है । दर्जा चार पास किया है गाँव के स्कूल से ।
उसका एक दल है । उसमें पाँच छः जने हैं । ये लोग बहुत पहले मरे पषुओं की हड्डियाँ और पंजर बीनते हैं । उन्हें इकट्ठा करके ट्क में भरते हैं । ये सब मिलकर जंगल मथते खँगालते रहते हैं । अबदुल्ला की आँखें लाल है । होठ पर एक दाँत चढ़ा हुआ है । नाक भिंची है । उसकी खाल सदा खुष्क दिखाई देती है । एक चैखाना तहमद पहने रहता है । वह तेल में चिकटा है । लगता है तेल लगाकर कसरत करता है । उसके गले में छोटी सी सोने की गड़ेली पड़ी है ं। कमीज में चाँदी के बटन टके हैं । भारी भारी मुंडा जूता पहनता है ।
बड़ा वफादार आदमी है । मालिक उस पर पूरा भरौसा करता है ।
अबदुल्ला को जब जब देखा उससे दो चार बातें जरूर की । मैं ‘दिनकर प्रेस’ जाता । वहाॅ से ‘ओर’ छपता था । वहीं अबदुल्ला और उसके दल के लोग रहते थे । जब वह अपने अनुभव बताता तो लगता जिन्दगी के ताजा चित्र सामने मुर्त हो रहे हैं ।
उन लोगों का सारा सामान और बारदाना बरामदे के एक कोने में पड़ा रहता । कनस्तरों के कुदों में लगी लकडि़या...छोटे छोटे डिब्बे, पोटलियाँ, चिथड़े और अधजली लकडि़यों का चूरा ये सब बेतरतीब खाली जगह में भरा रहता ।
भले ही वे खुद कितने ही गंन्दे रहे, गन्दगी में रहें-पर जो श्रम वें करते हैं उससे अजब पवित्रता का भाव झलकता है । श्रम कभी गंदा नहीं होता कदाचित इसी अर्थ में शरीर गंदा होने पर हमारी आत्मा गंदी नहीं होती ।
19 दिसम्बर 1971
संसार विपुल है । जीवन प्रचुर ! कोई भी नियम इसे बाँच कर नहीं बाँध पाता । कविता में वह हर बार बंधकर भी छूट जाता है । भाषा ने संससा, जीवन और प्रकुति को पुनः सर्जित करने के लिए ही खेजी है । अक्षर शब्दों की नसे हैं - उन्ही में उर्जा का रस बहता है । शब्द बाह्म जगत के ध्वनि संकेत । अगर मेरा इरादा वस्तु स्थिति में हस्तक्षेप करने का है तो शब्द मेरा साथ देगा । इसी लिये ह रवह रचना जो सामान्य जन की अथक क्रियाषीलता से प्रेरित है वह वस्तु स्थिति में सार्थक हस्तक्षेप है । अर्थात् वह मुझे वहाँ नहीं रहने देती जहाँ मैं रहना चाहता हूँ।
इन दिनों कवितायें नमक, मिर्च, हल्दी से सटी खड़ी होती है । रसायन बनने से पहले जो रूप् रस का था वह अब नहीं रहा । बीज नष्ट होकर ही अंकुर बना है । रूपान्तरण की प्रक्रिया कभी रूकती नहीं । वह स्थगित होस कती है । अवद्ध हो सकती है ।
ये पौधे मुंह झपकाये खड़े मेरी ओर देखते हैं । घास कूड़े कबाड़ में दब गई है । गोबर के चिन्ह दिखाई दिये घरो के दरावाजों पर । बिटौरां पर चढ़ी घीया, तोरई और कद्दू की बेलें हैं । इन मेंड़ों, मुडेरों पर बचरी और कट्टैया एक साथ उगती है । दोनों में कोई बैर नहीं - जबकि खसलत बिल्कुल अलग और भिन्न है ।
मैं इन से सीखूँ !
मैं जब गाँव के पास से गुजरा तो भूसे की बोगियाँ देखीं । उनके बुर्जो पर काले तले की हडि़या औधी धरी है । अभी अभी एक नव युवती अपने केश खोले भैरों पर खीर चढ़ाकर गई है उसे कुत्ते खा रहे हैं । कहते हैं भैरों कुत्तों का स्वामी है ।
भैरों की गठिया है श्मशान के पास । वहा बड़े बड़े बालों वाला स्वामी हर युवती को कनिया कर देखता है । बिना मागे भभूत का टीका लगाता है । आँखों में उसके रसिकता झलकती है । नवयुवतियाँ उसको बड़ा आदर देती है । गोद के बच्चों को भभूत चटाता है । उसके माथे पर बड़ा सिन्दूरी टीका लगा है ।
एक दिन सुना उसे एक बलात्कार के जुर्म में पुलिस पकड़ ले गई ।
उसका झबरा कुत्ता अब यों ही मारा घूमता है ।
वे लोग डँग के गाँव से चलकर रातो रात इस कस्बे के अस्पताल में आये हैं । किसी का सिर फूटा है । किसी के पैरों की हड्डियाँ टूटी है । गाँवे में जबरदस्त बलवा हुआ । दो आदमियों की मौत हुयी । उनकी लाषें रखी हुयी है । हुजूम जूड़ा है ।
पुलिस लेन देन की फिराक में है । मरखना बैल खड़ा खड़ा सिर झौड़ता है । गाड़ी में जुतते ही मुतान हिलाता है ं। जाड़े की रातों में गाँव के लोग अलाव लगाते हैं । यह वह जगह है जहाँ एक दूसरे अपना मन खोलते हैं । चकल्लस होती है ।
20 दिसम्बर 1971
कभी कभी हिटलर का नाम आता है । कभी स्टालिन का । कभी कभी मलिका विक्टोरिया का । कई बूढ़े और अनुभव तपे लोगों ने कहा ‘इस से अंग्रेज अच्छे थे ।’ फिर कुछ बोले, ‘हमारे जमीदार अच्छे थे ।’ दरअसल वर्तमान का दुख हमें अपने अतीत में ले जाता है चाहे वह कितना ही बुरा क्यों न हो । ये वे लोग हैं जिन्हें हरबार लाकतंत्र में रामराज के हरे बाग दिखाये जाते हैं । पर मिलते हैं सूखे पत्ते । ईट पत्थर ! उन्हें पता नहीं कि हमारा साम्राज्यवादी अतीत कितना बुरा रहा है ।
कारण बहुत है - पर इस सहज टिप्पणी से आज की व्यवस्था के प्रति गहरा असंतोष तो झलकता ही है । यानी हमें रोटी पानी, सुरक्षा चाहिये बातों का लोकतंत्र नहीं ।
मेरे पास खड़े किसान ने बुदबुदाया, ‘आज इस बीहड़ में कोई धीर बँधाने वाला नहीं है ।’ कानी चिरैया भी नहीं ! सब आपा धापी में लगे हैं । अपने अपने घर मरते हैं । किसान मजूर में तो मरे !’ कुछ पंक्तियाँ कौधी -
अपने हाथ पाँव की हिफाजत को खड़े हैं
उम्मीद के सहारे
बड़ी बड़ी चोटों को
सहे खड़े हैं -
अपने पेट की खातिर
भारी भारी सामान
होने को खड़े हैं -
क्या खड़े रहना ही
हमारी तकदीर है ।
महामारियाँ कह कर नहीं आती । यहाँ हर बार सूखा है । अकाल है । भुखमरी है । छल है । कपट है । बेइमानी है । सिर कटना बहुत मामूली बात है - यहाँ कत्लेआम अनहोनी बात नहीं है ।
लोकतंत्र अभी कच्चा है । आजादी अभी अधूरी है । अभी संघर्ष शेष है । लड़ाई बराबर लड़नी है । किसी भी क्रांति की प्रक्रिया सतत है ।
गाँव के गाँव उजड़ गये । उजाड़ दिये । लोगों के खेत छीन लिये गये । या उन्हे इस हालत में ला दिया गया िकवे उन्हें छोड़कर भाग जाये । बड़े बड़े भूस्वामियों ने कटजा किया हुआ है । सोचता हॅू -
वे पथ कहाँ है
जिन के दोनों तरफ
पकी फसल लहराती थी
वे सदाबहार नदियाँ
जिनमें नहा कर
मन फूल की तरह खिला था । अब वे -
पतली चीर दिखाई देती है
मैली कुचैली
जैसे अस्पताल से
पट्टियाँ फेंक दी गई हो ।
मैं उन उपजाऊ तटों को
कहाँ खोजूं ! कहाँ कहाँ -
मुक्ति मिलने से पहले
यह युद्ध नई जि़न्दगी की आमद है -
जहाँ तहाँ लोगों ने
समुद सोख बेल को बाहर खींचकर
पानी बचाया है -
पूरे जाड़े चले खाई की गंदगी का खलात खलाते ।
लोग थक गये है । चिकनी चुपड़ी भाषा बोलने वाले लोग जब घास मण्डी में जाते हैं तो उन्हे कोफ्त होती है । उनकी भाषा सकुचाती है । उनके किताबी मुहावरे बगलें झाँकते हैं । जहाँ भी खड़े होकर सुनो घसेरों की जुबान से आॅच की झल्ल फूटती है । श्रम से जुड़ी भाषा में बड़ी शक्ति होती है ।
फूँस फाँस जलकर स्वाह....राख में वे अपना बचा कुचा सामान खोज रहे हैं । खेती बाड़ी में तपा षरीर काम देता है । क्या कवि को भी ऐसे नहीं तपना पड़ता । कविता बड़ी कठिनाईयों में पैदा कीि गई उपज है । मुझे बिवाई फटे पाँव और ठेकें पड़े हाथ दिखाई दिये ।
यह पूरा जनपद फसलों से अन्नमय है । सरसो झबराई खड़ी है । महावट के इंतजार में हैं किसान । सैराबी चाहिये । फिर नई निकोर निखरी धूप । ओ कवि .....तुम्हारे बहुत से नेक इरादो पर फफूँद लगने का कारण है ठेेठ निकम्मापन !
अफसरी छौकने से कविता नहीं आती ! धूर्त कवि नहीं हो सकता । हमें अपने ज्ञान को निखारते रहना चाहिये । जब चित्त भूमि में बहुत सारी खरपतवार उग आती है तो रचना क्षीणबल होती है । ये खिले अनाम पौदे अंगुल अंगुल धरती से ऊपर उठ कर जैसे गोद में आने को हुमसते हैं । उसी मिट्टी का मैं हूँ । उसी के ये करोड़ो साहसी जन जिन्होने यह सुन्दर संसार रचा है । बड़े बड़े टीले ढहा दिये । पुराने गुम्बद तोड़ डाले । मैंने उन्हें साॅझ के धुँधलके में मोटी मोटी रोटियाॅ प्याज और दरौटी चटनी से खाते देखा ।
धूप में जो रंग काला हुआ है वह पक्का है । किसी मुसीबत में साहस जा न खोये वह सच्चा योद्धा है । वही कवि जन संघर्षों को कह पात है जिसने तुच्छताओंसे पुक्तिपाली हो । सुख के मोटे मोटे गद्दों ने मेरी रीढ़ कमजोर की है । शब्दों की दुनियाँ में वहीं जिन्दा रहेगा जिसने धरती को जी जान से कमाया हो । एक रूपक को जाने कहाँ कहाँ भटकना पड़ा है । जब तक कविता में ध्वनि नहीं बेअसर है ।
दुरूह कविता हमारे उलझे मन को और उलझाती है ।
10 दिसम्बर 1971
अँधेरा गाढ़ा है । मैंने ऊँगली गढ़ा कर उसे पहचानने की पहल की । मैं डरा घनी परछाइयाँ हर तरफ विचार वस्तु की अर्थवान छाया ही है ।
हर तरफ अँधेरा है । आदमियों की टूटी खण्डित कतारें घरों में समा रही है । आम आदमी को घर एक सुरक्षित स्थान है । कहते हैं ‘सर पर छत तो रोटी भाये’ घर हमें स्थायित्व का बोध कराता है ।
हवा तेज हुयी है । पेड़ों की पत्तियों से दिशा ज्ञान होता है । वे सूर्य की रोशनी की ओर उन्मुख हैं । अँधेरा वे भी नहीं चाहती ।
पेड़ धूप में अपनी जड़ों को नम किये खड़े रहते हैं । भूगोल में निर्धारित सीमायें बदल जाती है । अब तक जहाँ लाल फूल खिलता था । वहीं बैंजनी का कटान दिखाई देता है । खेत की कमाई के बाद किसानों का दल उसकी रखवाली को सजग है । गरीब फूँस की झोपड़ी डाल कर खेत रखाता है । बड़े बड़े फार्म हाउसों पर एक्सेशन रहते हैं ।
11 दिसम्बर 1971
किसान को कभी चैन नहीं । वह एक लेखक की तरह ही अपने खेतों की तैयारी के लिए बेचैन रहता है । खेत जब उखटने लगता है तो उसे जान लेवा चिंता सताती है ।
उसटा लगते ही पता लगता है कि सूखापन, ‘हरेपन’ से कितना भिन्न है और अलग है ।
जो बलवान हैं अपने रीति रिवाज़ों, आस्वाद और कलाभिरूचियों को चलाने और जनता पर थोपने के लिए कमर कसते हैं । धरती उपजाऊ बने यह चिंता हमस ब की है । खरपतवार निकालने से धरती किसान के अनुकूल होती है ।
वर्षा होना अब मुहावरा बन चुका है । वर्षा जल की ही नहीं हाती वह फूलों की भी होती है । लोगों केे जंगल में घन बरसता है । वह खून की भी होती है । खून की होली निराला ने खेली थी -
खून की होली जो खेली
युवक जनों की है जान,
खून की होली जो खेली।
पाया है लोगों में मान
खून की होली जो खेली
यह कविता 1946 के छात्रों के देषप्रेम को व्यक्त करने निमिŸा उनके सम्मान में लिखी गई थी ।
इन दिनों बिना सिर धड़ ही धड़ ज्यादा दिखाई देते हैं । ऐसा वक्त आता है जब कवि अकेला होता है । उस समय वह अपने को तुच्छ समझौतों से अलगाना चाहता है । जब जनता जागती है तो वह हितों और हकां के लिये लोक युद्ध की चुनौती देती हैं । यानी वह किसी सेना के बल पर न लड़कर स्वयं को संगठित कर लड़ती है । उसके साथ श्रमिक भी होते हैं ।
कई बार बिजली की रोशनी तो दूर लालटेन की हल्की टिमटिमाहट भी मयस्सर नहीं होती ।
ब्लैक आउट में दराजों से छन कर आने वाली रोषनी को भी पर्दे खींचकर छिपाना पड़ता है ।
मैं जनतंत्र का नागरिक हूँ । जो कविता में नहीं कह पात उसे गद्य में कहूँगा । हमारी समस्याओं हल चुंगयों की खाली भैंसा गाढि़यों में नहीं है ।
मेहतरों को समाजिक प्रतिष्ठा सिर्फ कागजों में मिलती है । पर अब वे बहुत सजग हैं । जानते हैं अपना हक वे ले के रहेंगे । फिर समय आने पर उन कागजों को भी गड्ढे में गाढ़ ऊपर से आग जला देते हैं ।
उपजाऊ निमान की सिफ्त है धान की खेती को आगे बढ़ाना !
मेरा घर तुम्हारे नक्षे में अंकित है, हृदय में नहीं ।
13 दिसम्बर 1971
मुझे इन्तज़ार है । रोषनी जाने को है । फिर अँधेरा, अँधेरा ! इस छोटे से कस्बे में अच्छे लैम्प भी नहीं मिलते । दुकानदार जबड़ा फाड़े बैठे हैं । श्रमिकों की गांठ कटती है, रात में युद्ध में ! भी गरीब मरता है, बाढ़, सूखा और महामारी में जैसे ! आँखें अँधेरे को फोड़कर उधर जाती है जहा रोशनी है । ठंड लगातार हड्डफोड़ हो रही है । पेड़ सुन्न हैं । एक सरदार पीला चेहरा लिए मुझे घुमकर देखता है ! जब पूछा तो हँस पड़ा, मुझे बड़ा अजब लगा । देखते देखते अँधेरे में खो गया । पर उसका घूरना और एकदम पीला चेहरा दोनो मुझे विचलित किये हैं ।
बच्चे जिनके बदन पर सिर्फ एक मैंली कुचैली कमीज है- छोटे छोटे ढाबों, चायघरों और होटिलों में गिलास, प्लेटे, थालियाॅ साफ कर रहे हैं । पहले सुखमज करते हैं । बाद में साफ पानी से धोकर कपड़े से पौंछते हैं । उनकी उँगलियाँ ठंड से सिकुड़ गई है । पर चलती हैं तेज तेज । उनके चेहरे पर व्यंग्य हँसी है । वे मुझे चाय पीते देखकर निगाह नीचे करते हैं । जानते हैं जेब में पैसे है - बदन पर ऊनी लबादे ।
उनकी नाक फिचफिचाती है ।
जब बर्तन साफ इकर लिये तो एक पत्थर के कोयलो की भट्टी धधका रहा है । मैंने जब नाम पूछा तो पहले षरमाया फिर तपक से बोला, ‘मोहन’! डसे युद्ध का एहसास नहीं है । बिल्कुल फुरसत नहीं जो बातों को सुने । उसे देर रारत तक इसी तरह बर्तन मलते मलते मलते गड़ी-मुड़ी सो जाना है ।
अब मैं चला ! लिहाफ गद्दों में भरक कर सोऊँगा, लजीज खाना खाकर ।
वे जो ऊसर में खड़े हैं हाथ बाँधे फावड़े चलाकर आये हैं । कविता से श्रमक क्या संबंध? भाषा का क्रियाशील से क्या जुड़ाव ? दोनों को गति और ताप क्रिया से ही मिलते है ।
मैं घुमने निकला हूँ । बकेला हूँ । फसल है दोनों तरफ । सरसों फूली है । बल्कि अब उसमे फलियां छटने को हैं ।
जब पास आया तो लगा कि वे थोड़ी दूर पर एक बाँध की दरार मूँदकर आये हैं, फिर दूसरे आदेश के लिए प्रस्तुत हैं । यहाँ छाँह कहाँ । पल भर सुस्ताने को खड़े हो गये हैं । इन्हें क्या पता कचचा लोहा और कोयला धरती की उर्वरकोख में छिपा है ।
लगता है आगे खेत गलत ढंग से विभाजित है । इतने छोटे छोटे टुकड़ों में बाँटने की क्या जरूरत-जितनी धरती छोटे टुंकड़ों में बटेगी उतने ही धनी धनपति होंगे । और गरीब गरीब । खेतिहर खेत विहिन । श्रमिक बेकार !
बहुत सी ज़मीन यूं ही ठलवा पड़ी है । कुछ पर बुषुमार है जो उसे दूसरों से कराते हैं । बहुत भूमि हीन होकर गाँव छोड़ भाग गये - ! न्याय कहाँ हैं ? भूमि सुधार आज तक नहीं हो पाये ।
चक्कलस समय को खाती है । मेरी रचनात्मक उर्जा को भी ! वे जो कारखानों की पारियों से छूट कर आये हैं उनके चेहरों पर थकान है । फिर ठहाका मारते हैं । सन्नाटा टूटता है । क्रियाषी जीवन जीने की ताक है और उससे सोच गतिषील और पैना होता है । इन्हीं लोगों के हाथ की बनी चीज़े बाजार में आती है जिन पर लोग भारी मुनाफा कमाकर व्यापारी मोटे होते हैं । मुझसे कोई कान में कह रहा है -
अब ये करो और चूको मत
अब इसे बदल दो
अच्छी शक्ल देने को
अभी और सूर्ख होने दो
ये कतरने उधर फेंक दो,
देखो, ध्यान से कि
नट बोल्ट ठीक से नहीं कसे गये ।
ये उन्ही के ताकतवर हाथ है
जो वे कचरे को उठाकर
एक तरफ़ फैकते हैं
और माल गाड़ी के डिब्बे
तैयार हो जाते हैं ।
15 दिसम्बर 1971
पहाड़ तोड़ना और पत्थर को पीसना - ये काम श्रमिकों के मजबूत और सधे हाथ करते हैं - कवितायें नहीं । जंगलों से लकड़ी काटनाप- पहाड़ों पर रास्ता बनाना यह काम कंधे उचकाने वाले - रंगीन मिजाज लोग नहीं करते ! उन लोगों को ताकतवर होने दो जो मुझे जिन्दा रहने का जरूरत की चीजों को निर्मित करते हैं- उन तरीकों को सोचो जो हमें अपने पांव पर खड़ा होना सिखा सकें ।
सिर और सोच की हिफाजब करना बहुत जरूरी है । ये दोनों चीज़ें बहुत नाजुक हैं और मुझे लोगों से भिन्न और अलग बनाती हे ।
ये ताँगे वाले अपनी सुविधा की परवाह ने कर अपने पेट की चिंता करते हैं । अच्छी गिजा, अपने काम में मुस्तैदी से खून बनने में इजाफा होता है । अच्छी से मतलब जिसे मैं सहजता से पचा सकूँ । सेहत पहली चीज़ है । मै। अस्वस्थ होकर कोई रचनात्मक काम स्वतः स्फूर्तता से नहीं कर पाता !
मुझे तो अच्छा भोजन मयस्सर है । पर हजारों लाखों तंगदरत हैं । जिन के चेहरे पर पीलापन देख रहा हॅू वह कुदरती नहीं है । खून की कमी से ऐसा हुआ है । जलवायु की तासीर जानने को हर वक्त धरती के संपर्क में रहना जरूरी है ।
अच्छे बीजों की तलाष में किसान बहुत ज्यादा वक्त जाया नहीं करता ! हट्टा कट्टा इंसान निडर भी हो जरूरी नहीं । खोदा पहाड़, निकली चुहिया ! वाली कहावतों में बड़ी मार्मिक ध्वनि होती है - गहन अनुभाविक सत्य !
जितना धीरज रख रहा हॅू उतने ही अच्छे खनिज भण्डारों का पता लगता जा रहा है । चट्टानें मुझे प्रेरित करती हैं । पर झरनों से ताकत मिलती है । बिना चट्टानों के झरने का वजूद क्या ?
कई बार अपने को अँधेरे में छिपाकर महफूज महसूस करता हूँ ।
इतना उजाला भी किस काम का जो डर लगने लगे । मध्यम रोषनी में खूबसूरत चेहरे की खूबसूरती और बढ़ जाती है ।
बाचाल और बातों के कुलावे मारने वाले लोग इन दिनों खुष हैं । बातों से भी पेट भरने लगा है । देश का आर्थिक संकट पाल में सड़ गये आम की तरह है जो अपने चैंप से दूसरों को भी सड़ा देगा !
भाषा का इस्तेमाल एक हद तक किया जाता है ।
भण्डारों में ऊपर तक बोरिया चुनी होने पर भी गल्ला नसीब नहीं । सड़ भले जाये । पर इन्सान को नसीब न हो ?
पर वे बोलते नहीं, बस इशा\रा करते हैं । अच्छे प्रतीक क्रियाषील जीवन से चुने जाते हैं । कविता में सामान्य शब्द भी प्रतीक बनता है यदि उसमेंमेताफोरिकल भंगिमा है । लफ्फाजी जीवन और रचना दोनों में लचर चीज़ है । यह हमारे व्यक्तित्व को क्षीण बल बनाती है । इच्छाशक्ति को तोड़ती है । नक्कालों से दूर रहें तो बेहतर है ।
अन्याय के विरूद्ध श्रमिक और छोटे किसान जब संगठित होंगे तब नयी संवेदना का बीज फूटेगा ।
17 दिसम्बर 1971
जो मिट्टी कमाते हैं उन्ही के हाथों में बल्लम और फरसे होते है । मुझे उनसे डर लगता है पर ऊपर से रौब मारता हूँ ।
आज जो कविता लिखी जा रही है वह उनसे दूर हैं । मेरा सौंदर्यबोध उनके सामने सिमिटा सकुचा खड़ा है ! उनके दुस्साहसिक कार्यकलाप इन कविताओ में चित्रित नहीं ! दरअसल उसके लिए बड़ा काव्यमन चाहिये । उनमंे साहस है । कुव्वत है-अटूट धैर्य है । उनसे झड़पें होती है । शासन तंत्र अन्दर अन्दर डरता है । खून खराबा ! इस दिखावटी भाषा में ये सब कैसे कह पाऊँगा । डरता हॅूँ कहीं पाँव कीचड़ में न सन जाये । च्नतम चवमजतल का हिमायती होता जा रहा हूँ ।
जनतुत्र की कविता यह नहीं है । मुझे दरअसल पउचनतम चवमतजल लिखनी चाहिये । मुझे गढ़ लीखे, बेहड़ और पहाड़ चढ़ने होंगे । घने वनों से गुजरना होगा ।
जो नफासती शब्द मैं इस्तेमाल करता हूँ वे इनके जिस्मानी मोड़ों से नहीं जन्में । परकीय , फूल, हवा, आकाश , चिडि़या में सब उनके लामबंद होने को नहीरं बताती ! पूरी पूरी बरसात लोग अपने सिर पर झेलते है । पूरी सर्दी नंगे पाँव कटती है ।
इनके हाथ पहाड़ काटते हैं । लोहा भी पकाते हैं । नंगे बदन ऋतुओं को सहने के लिये इनकी खाल मजबूत ढाल का काम करती है ।
एक दिन गिरधर की लठिया हाथ में लेकर देखी । उसका वनज मैंने हाथ में महसूस किया । दिन भर प्षुओं को चराता है । घना और अखड्ड जहाँ चाहे निकल जाता है । है तो पतला दुबला पर ललकारत बड़ी तीखी है । हर प्षु उसकी आवाज पहचानता है ।
मैंने कभी उसे खिरनी घाट पर देखा । कभी गोपालगढ़ और कभी पुरोहित मुहल्ले में । चेहरा धूप में पककर तँबई हो गया है ।
यह मेरा चरित्र है । नया काव्यनायक । घने की मिट्टी अलग से बोलती है । काली मिट्टी है । चिकनाहट लिये । हमारे बदायूँ में इसे ‘चीका’ मिट्टी कहते हैं । इसकी अजब तासीर है । पर क्या बात है कि यहाँ आम के कुल छः पेड़ हैं ! बोर देखने को आँखें तरसती है । मैं आम, जामुन, अमरूद और फालसे जैसे फलों के बीच पला बड़ा हुआ । यहाँ देखे बबूर, बेटिया, खडि़हार, करील, हींस, पापड़ी, कदम्ब.....वन के वन हैं ।
ग़रीब लोगों के बच्चे कहाँ पढ़ पाते हैं ! थोड़े संभले कि छोटे छोटे झाबे ले लेते हैं । छोटी छोटी संदूकचियाँ और पालिष की डिब्बियाँ ।
18 दिसम्बर 1971
यह इलाका ब्रज का है । लोग जब ब्रज भाषा बोलते हैं तो जैसे कविता रची जाती हो । यह रीति कालीन कवियों की ब्रज भाषा नहीं है बल्कि सूर की भाषा के बहुत करीब की भाषा है ।
सुबह सुबह स्त्रीयाँ गोबर लेने को भैंस का नाम पुकारती है । जिसने पहले देखा पुकार वही उसेक लेगी । कैसा अनुषासन है । संकेत भर से स्वामित्व तय होता है । फिर उस पर कोई नज़र तक नहीं डालता । यह नैकिता संस्कारों से पैदा होती है । उसे हमने मानवीय जीवन की व्यवहारिक गरिमा से पाया है ।
मैं जहाँ से गुजरा पत्थर से फुके कोयलों के ढेर दिखाई दिये । बच्चें के झुण्ड निकलते हैं । छोटी छोटी उपयोगी चीजें कचरे के अम्बार से बीत लाते हैं । जो हम छूते नहीं वे उसमें से रत्न खोजते हैं । उनकी आँखें तेज है जो उपयोगी चीजों को फौरन पहचानती है । उँगलियाँ बहुत ही क्रियाषील -उनका विवेक व्यवहार है । परिस्थितियों ने उन्हें कठिनाईयाँ तो दी पर जीवन जीने के लिये विवेक भी ं। वे जानते हैं कि उनके लिए फिलहाल इस सड़े गले समाज में कोई सामान्य जगह नहीं है ।
उनके लिए स्कूल कहाँ है ? अस्पताल कहाँ है ? हालात ऐसे हैं कि अपराधी बनने को हम विवष है !
इलाका बिल्कुल वीरान है । दूर दूर तक सन्नाटा । छितराई विषखपरी खरपतवार को देखती है । कुकुभाँगरा खड़ा है । कुकुरमुत्ता एक निहायत ही कमजोर प्रजाती है । लोग उसे उखाड़कर उसकी सब्जी बना के खा जाते हैं । पर निराला ने उसे अमर कर दिया ।
कविता में मनुष्य जीवन के साथ वस्तुयें भी जीवित रहती है । कुकुभँागरा बहुत ही कडि़यल और मजबूत खरपतवार है । वह न तो मारने से मरती है । न उगाने से उगती है । प्रकृति के नियामों की तरह वह धरती के साथ है । कितनी ही आँखें चुराओ इस धरती पर कुकुरभाँगरा तो दिखेगा ही ।
कहते हैं इसे काढ़ा बनाकर पीने से कुकरखांसी चली जाती है । एक दिन अब्दुल्ला से जंगल में घूमते हुये भेंट हो गई । वह हट्टा कट्टा दुस्त दुरूस्त युवक है । रंग साँवला, आँखें बड़ी पर कुछ बेरूखी सी । भ्रम पैदा करती है कि अबदुल्ला बड़ा अंहकारी है । पर ऐसा कतई नहीं है । जब बात करता है तो बिल्कुल कच्ची ब्रज बोलता है । ऊपर का होठ थोड़ा कटा हुआ है । एक आँख कुछ बैठी सी । पर वह उसे महसूस नहीं होने देता । पढ़ा लिखा नहीं है । दर्जा चार पास किया है गाँव के स्कूल से ।
उसका एक दल है । उसमें पाँच छः जने हैं । ये लोग बहुत पहले मरे पषुओं की हड्डियाँ और पंजर बीनते हैं । उन्हें इकट्ठा करके ट्क में भरते हैं । ये सब मिलकर जंगल मथते खँगालते रहते हैं । अबदुल्ला की आँखें लाल है । होठ पर एक दाँत चढ़ा हुआ है । नाक भिंची है । उसकी खाल सदा खुष्क दिखाई देती है । एक चैखाना तहमद पहने रहता है । वह तेल में चिकटा है । लगता है तेल लगाकर कसरत करता है । उसके गले में छोटी सी सोने की गड़ेली पड़ी है ं। कमीज में चाँदी के बटन टके हैं । भारी भारी मुंडा जूता पहनता है ।
बड़ा वफादार आदमी है । मालिक उस पर पूरा भरौसा करता है ।
अबदुल्ला को जब जब देखा उससे दो चार बातें जरूर की । मैं ‘दिनकर प्रेस’ जाता । वहाॅ से ‘ओर’ छपता था । वहीं अबदुल्ला और उसके दल के लोग रहते थे । जब वह अपने अनुभव बताता तो लगता जिन्दगी के ताजा चित्र सामने मुर्त हो रहे हैं ।
उन लोगों का सारा सामान और बारदाना बरामदे के एक कोने में पड़ा रहता । कनस्तरों के कुदों में लगी लकडि़या...छोटे छोटे डिब्बे, पोटलियाँ, चिथड़े और अधजली लकडि़यों का चूरा ये सब बेतरतीब खाली जगह में भरा रहता ।
भले ही वे खुद कितने ही गंन्दे रहे, गन्दगी में रहें-पर जो श्रम वें करते हैं उससे अजब पवित्रता का भाव झलकता है । श्रम कभी गंदा नहीं होता कदाचित इसी अर्थ में शरीर गंदा होने पर हमारी आत्मा गंदी नहीं होती ।
19 दिसम्बर 1971
संसार विपुल है । जीवन प्रचुर ! कोई भी नियम इसे बाँच कर नहीं बाँध पाता । कविता में वह हर बार बंधकर भी छूट जाता है । भाषा ने संससा, जीवन और प्रकुति को पुनः सर्जित करने के लिए ही खेजी है । अक्षर शब्दों की नसे हैं - उन्ही में उर्जा का रस बहता है । शब्द बाह्म जगत के ध्वनि संकेत । अगर मेरा इरादा वस्तु स्थिति में हस्तक्षेप करने का है तो शब्द मेरा साथ देगा । इसी लिये ह रवह रचना जो सामान्य जन की अथक क्रियाषीलता से प्रेरित है वह वस्तु स्थिति में सार्थक हस्तक्षेप है । अर्थात् वह मुझे वहाँ नहीं रहने देती जहाँ मैं रहना चाहता हूँ।
इन दिनों कवितायें नमक, मिर्च, हल्दी से सटी खड़ी होती है । रसायन बनने से पहले जो रूप् रस का था वह अब नहीं रहा । बीज नष्ट होकर ही अंकुर बना है । रूपान्तरण की प्रक्रिया कभी रूकती नहीं । वह स्थगित होस कती है । अवद्ध हो सकती है ।
ये पौधे मुंह झपकाये खड़े मेरी ओर देखते हैं । घास कूड़े कबाड़ में दब गई है । गोबर के चिन्ह दिखाई दिये घरो के दरावाजों पर । बिटौरां पर चढ़ी घीया, तोरई और कद्दू की बेलें हैं । इन मेंड़ों, मुडेरों पर बचरी और कट्टैया एक साथ उगती है । दोनों में कोई बैर नहीं - जबकि खसलत बिल्कुल अलग और भिन्न है ।
मैं इन से सीखूँ !
मैं जब गाँव के पास से गुजरा तो भूसे की बोगियाँ देखीं । उनके बुर्जो पर काले तले की हडि़या औधी धरी है । अभी अभी एक नव युवती अपने केश खोले भैरों पर खीर चढ़ाकर गई है उसे कुत्ते खा रहे हैं । कहते हैं भैरों कुत्तों का स्वामी है ।
भैरों की गठिया है श्मशान के पास । वहा बड़े बड़े बालों वाला स्वामी हर युवती को कनिया कर देखता है । बिना मागे भभूत का टीका लगाता है । आँखों में उसके रसिकता झलकती है । नवयुवतियाँ उसको बड़ा आदर देती है । गोद के बच्चों को भभूत चटाता है । उसके माथे पर बड़ा सिन्दूरी टीका लगा है ।
एक दिन सुना उसे एक बलात्कार के जुर्म में पुलिस पकड़ ले गई ।
उसका झबरा कुत्ता अब यों ही मारा घूमता है ।
वे लोग डँग के गाँव से चलकर रातो रात इस कस्बे के अस्पताल में आये हैं । किसी का सिर फूटा है । किसी के पैरों की हड्डियाँ टूटी है । गाँवे में जबरदस्त बलवा हुआ । दो आदमियों की मौत हुयी । उनकी लाषें रखी हुयी है । हुजूम जूड़ा है ।
पुलिस लेन देन की फिराक में है । मरखना बैल खड़ा खड़ा सिर झौड़ता है । गाड़ी में जुतते ही मुतान हिलाता है ं। जाड़े की रातों में गाँव के लोग अलाव लगाते हैं । यह वह जगह है जहाँ एक दूसरे अपना मन खोलते हैं । चकल्लस होती है ।
20 दिसम्बर 1971
कभी कभी हिटलर का नाम आता है । कभी स्टालिन का । कभी कभी मलिका विक्टोरिया का । कई बूढ़े और अनुभव तपे लोगों ने कहा ‘इस से अंग्रेज अच्छे थे ।’ फिर कुछ बोले, ‘हमारे जमीदार अच्छे थे ।’ दरअसल वर्तमान का दुख हमें अपने अतीत में ले जाता है चाहे वह कितना ही बुरा क्यों न हो । ये वे लोग हैं जिन्हें हरबार लाकतंत्र में रामराज के हरे बाग दिखाये जाते हैं । पर मिलते हैं सूखे पत्ते । ईट पत्थर ! उन्हें पता नहीं कि हमारा साम्राज्यवादी अतीत कितना बुरा रहा है ।
कारण बहुत है - पर इस सहज टिप्पणी से आज की व्यवस्था के प्रति गहरा असंतोष तो झलकता ही है । यानी हमें रोटी पानी, सुरक्षा चाहिये बातों का लोकतंत्र नहीं ।
मेरे पास खड़े किसान ने बुदबुदाया, ‘आज इस बीहड़ में कोई धीर बँधाने वाला नहीं है ।’ कानी चिरैया भी नहीं ! सब आपा धापी में लगे हैं । अपने अपने घर मरते हैं । किसान मजूर में तो मरे !’ कुछ पंक्तियाँ कौधी -
अपने हाथ पाँव की हिफाजत को खड़े हैं
उम्मीद के सहारे
बड़ी बड़ी चोटों को
सहे खड़े हैं -
अपने पेट की खातिर
भारी भारी सामान
होने को खड़े हैं -
क्या खड़े रहना ही
हमारी तकदीर है ।
महामारियाँ कह कर नहीं आती । यहाँ हर बार सूखा है । अकाल है । भुखमरी है । छल है । कपट है । बेइमानी है । सिर कटना बहुत मामूली बात है - यहाँ कत्लेआम अनहोनी बात नहीं है ।
लोकतंत्र अभी कच्चा है । आजादी अभी अधूरी है । अभी संघर्ष शेष है । लड़ाई बराबर लड़नी है । किसी भी क्रांति की प्रक्रिया सतत है ।
गाँव के गाँव उजड़ गये । उजाड़ दिये । लोगों के खेत छीन लिये गये । या उन्हे इस हालत में ला दिया गया िकवे उन्हें छोड़कर भाग जाये । बड़े बड़े भूस्वामियों ने कटजा किया हुआ है । सोचता हॅू -
वे पथ कहाँ है
जिन के दोनों तरफ
पकी फसल लहराती थी
वे सदाबहार नदियाँ
जिनमें नहा कर
मन फूल की तरह खिला था । अब वे -
पतली चीर दिखाई देती है
मैली कुचैली
जैसे अस्पताल से
पट्टियाँ फेंक दी गई हो ।
मैं उन उपजाऊ तटों को
कहाँ खोजूं ! कहाँ कहाँ -
मुक्ति मिलने से पहले
यह युद्ध नई जि़न्दगी की आमद है -
जहाँ तहाँ लोगों ने
समुद सोख बेल को बाहर खींचकर
पानी बचाया है -
पूरे जाड़े चले खाई की गंदगी का खलात खलाते ।
लोग थक गये है । चिकनी चुपड़ी भाषा बोलने वाले लोग जब घास मण्डी में जाते हैं तो उन्हे कोफ्त होती है । उनकी भाषा सकुचाती है । उनके किताबी मुहावरे बगलें झाँकते हैं । जहाँ भी खड़े होकर सुनो घसेरों की जुबान से आॅच की झल्ल फूटती है । श्रम से जुड़ी भाषा में बड़ी शक्ति होती है ।
फूँस फाँस जलकर स्वाह....राख में वे अपना बचा कुचा सामान खोज रहे हैं । खेती बाड़ी में तपा षरीर काम देता है । क्या कवि को भी ऐसे नहीं तपना पड़ता । कविता बड़ी कठिनाईयों में पैदा कीि गई उपज है । मुझे बिवाई फटे पाँव और ठेकें पड़े हाथ दिखाई दिये ।
यह पूरा जनपद फसलों से अन्नमय है । सरसो झबराई खड़ी है । महावट के इंतजार में हैं किसान । सैराबी चाहिये । फिर नई निकोर निखरी धूप । ओ कवि .....तुम्हारे बहुत से नेक इरादो पर फफूँद लगने का कारण है ठेेठ निकम्मापन !
अफसरी छौकने से कविता नहीं आती ! धूर्त कवि नहीं हो सकता । हमें अपने ज्ञान को निखारते रहना चाहिये । जब चित्त भूमि में बहुत सारी खरपतवार उग आती है तो रचना क्षीणबल होती है । ये खिले अनाम पौदे अंगुल अंगुल धरती से ऊपर उठ कर जैसे गोद में आने को हुमसते हैं । उसी मिट्टी का मैं हूँ । उसी के ये करोड़ो साहसी जन जिन्होने यह सुन्दर संसार रचा है । बड़े बड़े टीले ढहा दिये । पुराने गुम्बद तोड़ डाले । मैंने उन्हें साॅझ के धुँधलके में मोटी मोटी रोटियाॅ प्याज और दरौटी चटनी से खाते देखा ।
धूप में जो रंग काला हुआ है वह पक्का है । किसी मुसीबत में साहस जा न खोये वह सच्चा योद्धा है । वही कवि जन संघर्षों को कह पात है जिसने तुच्छताओंसे पुक्तिपाली हो । सुख के मोटे मोटे गद्दों ने मेरी रीढ़ कमजोर की है । शब्दों की दुनियाँ में वहीं जिन्दा रहेगा जिसने धरती को जी जान से कमाया हो । एक रूपक को जाने कहाँ कहाँ भटकना पड़ा है । जब तक कविता में ध्वनि नहीं बेअसर है ।
दुरूह कविता हमारे उलझे मन को और उलझाती है ।
कविता :प्रभात त्रीपाठी
1 वजूद
पत्थर भी हो सकता था
घास भी
आका”ा में चमचमाता सूर्य
और जमीन पर घिसटता पांव
कुछ भी हो सकता था
वजूद का अर्थ
अÛर चेतना की रफ्तार में
उमड़ते शब्दों के भीतर
गिरते इंसान की कथा
लिख रहे हो
तो दुख के अनगिनत रूपाकारो को
समझने की कोशीश जरूर करो
पर याद रखो
,क पल ही होता है
आदमी के पास
उसके सोच विचार को तहस नहस करते
एक पल में
बच्चों पर गीरते बमों की बौछार हो
या उनके मासून खेल का सहज संसार
दर्ज करने की सीमाओं में ही,
गाती है खुशी निर्विकार
या चीखता है दर्द बारम्बार
बूढ़े की मरमरनासन्न चीख के बीचोबीच
उभरें जब कल्पना के असंभव चित्र
तब प्रेम और मृत्यु के अजब संÛम में
तुम गुहारते हो उसे
तुम गरियाते हो उसे
वही सिर्फ वही होता है
तुम्हारे आखरी अंधेरे गवाह
2 इस असंग सुनसान में
श ब्द सोचता है
काश ! वह चित्र होता
और चित्र ?
वह क्या सोचता है ?
सबको देख रहा है
सुन रहा है सबके शब्द
द्रश्य की तमाम हरी पीली वस्तुएं
ओर सात सुरों का खेल है
यह चित्र
उसे पेड़ नहीं होना था
और इसे नदी
जमीन पर वह नहीं रहता
आसमान पर यह
पर संभव है सब कुछ
चित्र में
जैसे शब्द में
चित्र के सोचने में से आ रही थी वह आवाज़
आकाश के स्याह से झमाझम सफेद को
धार.ा करती वसुन्धरा की कोख
फिर हरी हो रही थी
उस पुनर्नवा की आँखों में विषाद था
और पलक झपकते वहीं से खिलखिलाती थी मस्ती
अब इस चित्र का रंग
इस असंग़ सुनसान में
बोझिल उमस से भरी
अधरात का समय है बेनींद ।
3 क्या मैं पेड़ होता
जैसे किसी झर झर झरते
झरने के किनारे के समय में
टासमान को अपनी आँखों में समोता
खड़ा हो कोई
टपने पत्ते पत्ते में दर्ज करते
अनगिनत जन्मों का इतिहास
देखता हो
इहकाल की रफ्तार
अविचलित और स्थिर
अपनी जमीन में
वैसे ही देख सकात
अगर मैं अपना समय
तो क्या मैं पेड़ होता ?
4 प्रेम के गर्भ से बाहर
कितनी सारी स्त्रियों के दुख में
निरतंर अपनी यातना को जानती
अपने समय के क्रूर और मजबूर चेहरों को
अपने सहज स्वभाव में पहचानती
जिस स्त्री के प्रेम के गर्भ में
मैं रहा पूरे नौ महीने तक
उसे बाहर आकर देखने का पहला अनुभव
आशकाओं और भयों से भरा
तेज रफ्तार बाहर का भगता हुआ समय था ,
निरापद गर्भ के आत्मीय अंधेरे से परे
जिस चेहरे के रू-ब-रू मैं खड़ा था
बेसिलसिला लफ्जों के चरमराते नन्हे पुल के छोर पर
वहाँ दूसरे छोर पर खड़ी उस औरत के वत्सल चेहरे का
आंगिक रचाव क़े टीसते ताजा घाव सा
तड़पता था मुझे
जन्म के बाद
जन्मान्तर के इस अजीबोगरीब संसार में
बेशक वहाँ प्यार था
अनेकार्थी व्यंजनाओं में उन्मुक्त और मगन
जैसे सा{ाात बचपन खोज रहा हो
माँ के स्तनों से आती जिजीविशा की पुकार
जैसे हर चीज में हो खिलौने का सुन्दर आकार
जैसे चटक और पसन्नरंगों के विस्तार में विस्तिम नेत्र देखते हों
वनस्पतियों पशुओं मनुश्यों और उनके घरों के
सगुण रूपाकार
पर टीसता था कुछ, टीसने से ज्यादा डरता था
उसकी आँखों की नि”छल तन्मयता का आकास्मिक पड़ाव
जैसे कि मैंने कहा
एक घाव था
जन्म जन्मान्तरों से विविध रूपों में परिचित
यज जख्म
मुमकिन है मेरा अपना भरम हो
मेरे ही अज्ञान या ज्ञान के उलझ पुलझ गये
जल में फँसी मछली की तड़प गवाह हो
शायद मेरा यह बयान
जो कि अंन्ततः है तो कथा
बून्द में समुद्र देखते अनजान बचपन की
पर वही अपने डर में मुझे दिखाती थी
एसी बहुत सारी सुखी सफल समर्द्ध औरतें
बहुत सारे सुसंस्कृत मर्द
बदहवास आपाधापी में बेदम दौड़ते वह स्त्री
यहां तक आकर वे अभी खड़े हैं
उसे चारों तरफ से घेरकर उसे ललचाते हु, उसे ले जाते हु,
इस मकान से उस मकान तक
इस दुकान से उस दुकान तक
इस सुनसान से उस सुनसान तक
और कभी यह कि वह दुख भी
एक से दूसरे, दसरे से तीरे और अनन्त शहरों में
लगभग हर किसी को हम शक्ल की तरह देखती
भूलती जा रही है
दुख का वह नन्हा पौधा
जिसे निरंतर सींचते के संकल्प से
हुई थी शुरूआत जीवनकथा की
पूरे नौ महीने बाद गर्म से बाहर आते ही
किसी बच्चे का सोचने लग जाना
महज असामान्य ही नही ,क अद्भुत ?ाटना है
दहशत और वहशत को को दूसरे में मिलाती
इस घटना के बारे में
जो अखबार की कुछ नहीं छापते
उन्हीं सूचनाओं के वेश्विक बाजार की ओर
बढ़ते उसके कदमों को उसकी पीठ को, उसके छितरे सघन केशों को
छलछल आँखों से ताकता मैं जो कुछ सोच रहा हूँ
हो सकता हे, वह आदिम पुरूशोचित अधिकार सके जन्मी
सहज स्वाभाविक ईश्या हो
पर बार बार आँखों की कोरों तक आती
इस नमी के भीतर
शायद कोई आदमी और है
शायद वही है जो उसे दूर जाते देखता
सिर्फ सोच रहा है अपना डर
अपनी पराजय अपनी असफलता
अपनी अकारथ जिन्दगी की
ढलान के आखिरी छोर पर
होने के निस्सार अनुभवों में मौजूद
अबोध वजूद की व्यथा को
,क चुस्त दुरूस्त चाक चैकस औरत की नई रंÛत में
बिलकुल सगुण साकार
और वहाँ उसे दीख रहा है
बीसवीं से इक्कीसवीं पर पैर रखती सदी के यौवन का
पहला शाट: प्यार
और दूसरा और तीसरा और चैथा और अन्तिम
बाजार
प्रेम के गर्भ में पूरे नौ महीने रहकर
बाहर आने के बाद बाज़ार
याने
क्रेता विक्रेता, नेता अभिनेता, अफसर व्यापारी
सैनिक नागरिक, औरत और मर्दों से भरे
इस समकालीन संसार में
लगभÛ छलछल आंखों में नमी लि,
इस आदमी की प्रेमकथा की यह इबारत, मौत के के पहले की उसकी आखिरी
प्रार्थना
की तरह पढ़ी जा, या न पढ़ी जा,, पर इतनी इल्तजा तो फिर भी है कि
एसी
फिल्में न बनाई जाये जिसमें प्यार के पहले शाट के बाद बाजार के
अनगिनत शाट का
अनन्त सिलसिला सिर्फ इसलि, कायम रहे कि इस दुनिया में आ, हैं तो
हर किसी को
यह हक है बल्कि यह उसका फर्ज बनता है बल्कि इसी में उसकी मनु’यता ळे कि उसे कुछ कर
दिखाना चाहि,, याने उसे वही गाना बजाना चाहि, जो बाजार में उंची से उंची
कीमत पर
बिके, ताकि उसका बारबार और सारा परिवार एक सूखी परिवार की तरह
रह सक और कभी कभार या रोजाना पूजा के वक्त उचार सके: ओम शांति ---!, शांति------! शांति----!
5 शायद
शायद
ब्हुत कम लोग जानते हैं
वह भाशा
जिसमें तराई शब्द का अर्थ हे
तालाब
शायद बहुत कम लोगों ने देखा हो वो तालाब
जिसे चित्र की तरह उताकर
मैं लिखना चाहता हूँ
आत्मा में घटता चमत्कार
शायद मंदिर का वह स्वयंभू लिंग़
असल अधिष्ठान हो देवाधिदेव का
और उनके गण
दिन भर छिपे रहते हों
पीपल और बरगद में
और रात को
उनका दर्शन पाते हों
उनके भक्त
ऊँची डगाल से
काईभरे हरे जल में कूदकर
बतखों की तरह डोलते तैरते
शुरू करते हो अपना खेल
और गरमाता हो उनका रक्त
यौवन के समागम का महोत्सव
शायद मनाता हो
लिंगराज मंदिर के विशाल आंग़न में
शायद वहां इसी नाम को कोई तालाब हो
जिसे अभी तराई कहकर मैंने देखा
काली के पैरोंतल दबे शंकर को
शायद इश्वर को भी कभी कभार
सूझता हो एसा मजाक
जैसे मैंने किया इस पल
शायद आंखों में बेवजह
छलक आते जल को रोकने का
कोई दूसरा रास्ता नहीं था
मेरे पास
शायद रूकने के पहले मेरी सांस
आखिरी बार
करना चाहती है प्यार
देवाधिदेव के सामने
देखती हुई चमत्कार
गीले केश छितरे पीठ पर
आधी झुकी वो लड़की
चढ़ा रही है जल
लिंगराज पर
पत्थर भी हो सकता था
घास भी
आका”ा में चमचमाता सूर्य
और जमीन पर घिसटता पांव
कुछ भी हो सकता था
वजूद का अर्थ
अÛर चेतना की रफ्तार में
उमड़ते शब्दों के भीतर
गिरते इंसान की कथा
लिख रहे हो
तो दुख के अनगिनत रूपाकारो को
समझने की कोशीश जरूर करो
पर याद रखो
,क पल ही होता है
आदमी के पास
उसके सोच विचार को तहस नहस करते
एक पल में
बच्चों पर गीरते बमों की बौछार हो
या उनके मासून खेल का सहज संसार
दर्ज करने की सीमाओं में ही,
गाती है खुशी निर्विकार
या चीखता है दर्द बारम्बार
बूढ़े की मरमरनासन्न चीख के बीचोबीच
उभरें जब कल्पना के असंभव चित्र
तब प्रेम और मृत्यु के अजब संÛम में
तुम गुहारते हो उसे
तुम गरियाते हो उसे
वही सिर्फ वही होता है
तुम्हारे आखरी अंधेरे गवाह
2 इस असंग सुनसान में
श ब्द सोचता है
काश ! वह चित्र होता
और चित्र ?
वह क्या सोचता है ?
सबको देख रहा है
सुन रहा है सबके शब्द
द्रश्य की तमाम हरी पीली वस्तुएं
ओर सात सुरों का खेल है
यह चित्र
उसे पेड़ नहीं होना था
और इसे नदी
जमीन पर वह नहीं रहता
आसमान पर यह
पर संभव है सब कुछ
चित्र में
जैसे शब्द में
चित्र के सोचने में से आ रही थी वह आवाज़
आकाश के स्याह से झमाझम सफेद को
धार.ा करती वसुन्धरा की कोख
फिर हरी हो रही थी
उस पुनर्नवा की आँखों में विषाद था
और पलक झपकते वहीं से खिलखिलाती थी मस्ती
अब इस चित्र का रंग
इस असंग़ सुनसान में
बोझिल उमस से भरी
अधरात का समय है बेनींद ।
3 क्या मैं पेड़ होता
जैसे किसी झर झर झरते
झरने के किनारे के समय में
टासमान को अपनी आँखों में समोता
खड़ा हो कोई
टपने पत्ते पत्ते में दर्ज करते
अनगिनत जन्मों का इतिहास
देखता हो
इहकाल की रफ्तार
अविचलित और स्थिर
अपनी जमीन में
वैसे ही देख सकात
अगर मैं अपना समय
तो क्या मैं पेड़ होता ?
4 प्रेम के गर्भ से बाहर
कितनी सारी स्त्रियों के दुख में
निरतंर अपनी यातना को जानती
अपने समय के क्रूर और मजबूर चेहरों को
अपने सहज स्वभाव में पहचानती
जिस स्त्री के प्रेम के गर्भ में
मैं रहा पूरे नौ महीने तक
उसे बाहर आकर देखने का पहला अनुभव
आशकाओं और भयों से भरा
तेज रफ्तार बाहर का भगता हुआ समय था ,
निरापद गर्भ के आत्मीय अंधेरे से परे
जिस चेहरे के रू-ब-रू मैं खड़ा था
बेसिलसिला लफ्जों के चरमराते नन्हे पुल के छोर पर
वहाँ दूसरे छोर पर खड़ी उस औरत के वत्सल चेहरे का
आंगिक रचाव क़े टीसते ताजा घाव सा
तड़पता था मुझे
जन्म के बाद
जन्मान्तर के इस अजीबोगरीब संसार में
बेशक वहाँ प्यार था
अनेकार्थी व्यंजनाओं में उन्मुक्त और मगन
जैसे सा{ाात बचपन खोज रहा हो
माँ के स्तनों से आती जिजीविशा की पुकार
जैसे हर चीज में हो खिलौने का सुन्दर आकार
जैसे चटक और पसन्नरंगों के विस्तार में विस्तिम नेत्र देखते हों
वनस्पतियों पशुओं मनुश्यों और उनके घरों के
सगुण रूपाकार
पर टीसता था कुछ, टीसने से ज्यादा डरता था
उसकी आँखों की नि”छल तन्मयता का आकास्मिक पड़ाव
जैसे कि मैंने कहा
एक घाव था
जन्म जन्मान्तरों से विविध रूपों में परिचित
यज जख्म
मुमकिन है मेरा अपना भरम हो
मेरे ही अज्ञान या ज्ञान के उलझ पुलझ गये
जल में फँसी मछली की तड़प गवाह हो
शायद मेरा यह बयान
जो कि अंन्ततः है तो कथा
बून्द में समुद्र देखते अनजान बचपन की
पर वही अपने डर में मुझे दिखाती थी
एसी बहुत सारी सुखी सफल समर्द्ध औरतें
बहुत सारे सुसंस्कृत मर्द
बदहवास आपाधापी में बेदम दौड़ते वह स्त्री
यहां तक आकर वे अभी खड़े हैं
उसे चारों तरफ से घेरकर उसे ललचाते हु, उसे ले जाते हु,
इस मकान से उस मकान तक
इस दुकान से उस दुकान तक
इस सुनसान से उस सुनसान तक
और कभी यह कि वह दुख भी
एक से दूसरे, दसरे से तीरे और अनन्त शहरों में
लगभग हर किसी को हम शक्ल की तरह देखती
भूलती जा रही है
दुख का वह नन्हा पौधा
जिसे निरंतर सींचते के संकल्प से
हुई थी शुरूआत जीवनकथा की
पूरे नौ महीने बाद गर्म से बाहर आते ही
किसी बच्चे का सोचने लग जाना
महज असामान्य ही नही ,क अद्भुत ?ाटना है
दहशत और वहशत को को दूसरे में मिलाती
इस घटना के बारे में
जो अखबार की कुछ नहीं छापते
उन्हीं सूचनाओं के वेश्विक बाजार की ओर
बढ़ते उसके कदमों को उसकी पीठ को, उसके छितरे सघन केशों को
छलछल आँखों से ताकता मैं जो कुछ सोच रहा हूँ
हो सकता हे, वह आदिम पुरूशोचित अधिकार सके जन्मी
सहज स्वाभाविक ईश्या हो
पर बार बार आँखों की कोरों तक आती
इस नमी के भीतर
शायद कोई आदमी और है
शायद वही है जो उसे दूर जाते देखता
सिर्फ सोच रहा है अपना डर
अपनी पराजय अपनी असफलता
अपनी अकारथ जिन्दगी की
ढलान के आखिरी छोर पर
होने के निस्सार अनुभवों में मौजूद
अबोध वजूद की व्यथा को
,क चुस्त दुरूस्त चाक चैकस औरत की नई रंÛत में
बिलकुल सगुण साकार
और वहाँ उसे दीख रहा है
बीसवीं से इक्कीसवीं पर पैर रखती सदी के यौवन का
पहला शाट: प्यार
और दूसरा और तीसरा और चैथा और अन्तिम
बाजार
प्रेम के गर्भ में पूरे नौ महीने रहकर
बाहर आने के बाद बाज़ार
याने
क्रेता विक्रेता, नेता अभिनेता, अफसर व्यापारी
सैनिक नागरिक, औरत और मर्दों से भरे
इस समकालीन संसार में
लगभÛ छलछल आंखों में नमी लि,
इस आदमी की प्रेमकथा की यह इबारत, मौत के के पहले की उसकी आखिरी
प्रार्थना
की तरह पढ़ी जा, या न पढ़ी जा,, पर इतनी इल्तजा तो फिर भी है कि
एसी
फिल्में न बनाई जाये जिसमें प्यार के पहले शाट के बाद बाजार के
अनगिनत शाट का
अनन्त सिलसिला सिर्फ इसलि, कायम रहे कि इस दुनिया में आ, हैं तो
हर किसी को
यह हक है बल्कि यह उसका फर्ज बनता है बल्कि इसी में उसकी मनु’यता ळे कि उसे कुछ कर
दिखाना चाहि,, याने उसे वही गाना बजाना चाहि, जो बाजार में उंची से उंची
कीमत पर
बिके, ताकि उसका बारबार और सारा परिवार एक सूखी परिवार की तरह
रह सक और कभी कभार या रोजाना पूजा के वक्त उचार सके: ओम शांति ---!, शांति------! शांति----!
5 शायद
शायद
ब्हुत कम लोग जानते हैं
वह भाशा
जिसमें तराई शब्द का अर्थ हे
तालाब
शायद बहुत कम लोगों ने देखा हो वो तालाब
जिसे चित्र की तरह उताकर
मैं लिखना चाहता हूँ
आत्मा में घटता चमत्कार
शायद मंदिर का वह स्वयंभू लिंग़
असल अधिष्ठान हो देवाधिदेव का
और उनके गण
दिन भर छिपे रहते हों
पीपल और बरगद में
और रात को
उनका दर्शन पाते हों
उनके भक्त
ऊँची डगाल से
काईभरे हरे जल में कूदकर
बतखों की तरह डोलते तैरते
शुरू करते हो अपना खेल
और गरमाता हो उनका रक्त
यौवन के समागम का महोत्सव
शायद मनाता हो
लिंगराज मंदिर के विशाल आंग़न में
शायद वहां इसी नाम को कोई तालाब हो
जिसे अभी तराई कहकर मैंने देखा
काली के पैरोंतल दबे शंकर को
शायद इश्वर को भी कभी कभार
सूझता हो एसा मजाक
जैसे मैंने किया इस पल
शायद आंखों में बेवजह
छलक आते जल को रोकने का
कोई दूसरा रास्ता नहीं था
मेरे पास
शायद रूकने के पहले मेरी सांस
आखिरी बार
करना चाहती है प्यार
देवाधिदेव के सामने
देखती हुई चमत्कार
गीले केश छितरे पीठ पर
आधी झुकी वो लड़की
चढ़ा रही है जल
लिंगराज पर
पुस्तक समीक्षा : सम्बन्धों की पड़ताल: केयर ऑफ़
स्वात घाटी : रमेश
खत्री
‘केयर आॅफ स्वात घाटी’ कथाकार मनीषा कुलश्रेष्ठ का चैथा कहानी संग्रह है । इसके अलावा उनके दो उपन्यास भी प्रकाशित हो चुके हैं । यह कहानी संग्रह बोधिप्रकाशन , जयपुर से पुस्तक पर्व के दूसरे बंध का हिस्सा बना है । जिसमें उन्होंने महिला लेखिकाओं की दस पुस्तकों को प्रकाशित किया है । इसमें उनकी सात कहानियाँ संग्रहित है जो उनके लेखन की दिशा को तय करती है । और साथ ही उन भावनाओं को उकेरती है जो मानव मन में गहरे से पैठे हुए है ।
कहानीकार का कहानी कहने का अंदाज अलग किस्म का है । जिसके साथ आसानी से बहा जा सकता है । संग्रह की कहानियों में जहाँ एक और नारी के मन की थाह लेने की कोषिष की गई है तो वहीं दूसरी ओर पुरूष के दंभ को भी हवा दी है । इन कहानियों में बहता जीवन विविध तरह की भंगिमाए रचता जान पड़ता है जो हमारे इर्द गिर्द पसरा हुआ ही है । संग्रह की कहानी ‘खरपतवार’ में अन्र्तमन की कई परतों को उतारने का प्रयास कहानीकार ने किया है । परिवार में कामकाजी पत्नी की हैसियत तले दबे एक पुरूष की मनोदशा को केन्द्रीत कर कहानी का ताना बाना बुना गया है । और अपनेपन की छवि के लिए छटपटाते व्यक्ति की जीजिविषा को भी उकेरने में कामयाब हुर्ह है । जबकि कहानीकार स्वयं स्त्री है इसलिये स्त्री की मनोदषा को अच्छी तरह से समझती है, ‘तुम सनकी पिता और आत्मकेन्द्रीत माँ की संतान हो । मैने सोचा कि मैं तुम्हारे भीतर बाहर सब ठीक कर लूंगी । मैंने तुम्हारे हर आराम का ख्याल रखा, अपनी थका देने वाली नौकरी के बावजूद । मैं असफल रही । तुम्हारा कुछ नहीं हो सकता ।’ वह नींद की गोली के असर में भी कुछ कुछ सुन पा रहा था ।’ एक बोल्ड और कामकाजी स्त्री द्वारा अपने घर घुस्सू पति को इस तरह से उन्मूक्त छोड़ देने के कारण ही इस तरह की कहानी का जन्म होता है ।
‘केयर ऑफ़ स्वात घाटी’ संग्रह की पहली और शीर्षक कहानी है । यह कहानी बड़ी की सशक्त है । इसमें एक नारी की विभिन्न किरदारों को बहुत ही बारीकी से उकेरा गया है । जिससे उसके जीवन के कई शेड्स उभरकर हमारे सम्मुख खुलते है । कहानी की नायिका मंच पर गार्गी का अभिनय करते हुए काफी विद्वान और विद्रोही नारी के रूप में नज़र आती है, ‘लो मैं ने डाल लिया दुषाला अपनी यौवनपुष्ट देह पर, कहो तो इस सुन्दर मुख पर भी हवनकुण्ड की राख मल लूं और कुरूप कर लूं । यह जान लो तुम और पिता से भी कह दो कि मेरी यह देह मेरे ज्ञान और प्रतिभा की कारा नहीं बन सकती....नहीं बन सकती ।’ किन्तु वही घर पर किसी भीगी बिल्ली की तरह दिखाई देती है और ठीक उसी दिन वह अपने पति से न केवल डांट खाती है अपितु उसके चेहरे पर चोट के निषान भी उभर आते हैं । तब उसका निर्देषक कहता है, ‘पन्द्रह बरस हुए होंगे मुझे थियेटर करते हुए तुम लोगों के पास अब बहाने भी खत्म हो चले हैं । मेरे नाटकों की गार्गीयाँ, आम्रपालियाँ, वसंतसेनाएं, वासवदत्ताएं, देवयानियाँ...शमिष्ठाएं...यूं ही चेहरों पर अपनों के विरोध के हिंसक निषान लेकर थिएटर आती रही हैं । बहाने भी अमूमन यही सब, मसलन बाथरूम में फिसल गई थी । बच्चे ने खिलौना-कार से मार दिया गलती से । टैक्सी या बस के दरवाजे से टकरा गई । तुम पहली तो नहीं हो सुगन्धा !’ और इसी सब के तहत समाज में नारी की दषा और दिषा पर गहन चिंतन भी किया गया और पाया कि आज नारी का पता ठिकाना क्या है, ‘मैं गार्गी केयर ऑफ़ याज्ञवल्क्य । मैं दुष्चरित्र अहिल्या, केयर ऑफ़ गौतम ऋषि । मैं भवरीदेवी, मैं रूपकंवर, केयर ऑफ़ लोक पंचायत, केयर ऑफ़ ओनर किलिंग । केयर ऑफ़ चेस्टिटी बेल्ट । पब में पीटी जाने वाली लड़की हूं, केयर ऑफ़ शिवसेना । नाजनीन फरहदी हूं.....केयर ऑफ़ तेहरान जेल । मैं सरेआम कोड़े खाने वाली वो कमसिन लड़की...केयर ऑफ़ स्वात घाटी ।’हमारे समाज की बारीक पकड़ को खोलती कहानी मन और मस्तिष्क पर गहरा असर डालती है और देर तक सोचने को विवष करती है । उस व्यक्ति के बारे में जो जीवन का अहम किरदार है और जिसके बगेर एक कदम भी चलना संभव नहीं । उसी की दारूण दषा पर मन विचलित हो उठता है । हालंाकि अपवाद हर जगह होता है । किन्तु कहानी की पक्षधरता के साथ पाठक बहता चला जाता है ।
‘कालिन्दी’ भी कोमल भावनाओं की धरती पर उकेरी गई वह कली है जो खिल कर देर तक आकर्षित करती है और अपने साथ बांधे रहती है । इसके रंग भी काफी चटक है । कहानी दो भागों में विभक्त है जो नारी मन के विभाजन को भी इंगित करती है । प्रथम भाग में पुत्र के रूप में पुरूष की अन्तःलीला दृष्टव्य है तो दूसरे भाग में माँ के रूप में एक नारी की विवषता और ममत्व विवरणीत है । कहानी वास्तविकता की धरती पर खड़ी की गई वह इमारत है जो अपनी बुलंदी को छूती है और ललकारती है । आत्मकथनात्म शैली में रची गई जीवन की बिसात पर पात्र अपने अपने दर्द बयान करते जाते हैं । मन के उद्गारों को व्यक्त करते हुए एक दूसरी दुनिया में विचरण करने लगते हैं । यह दुनिया फंतासी नहीं है अपितु सच की परछाई के रूप में खुलती है खिड़कियों की तरह । जिनसे झांकता जीवन हमारी आँखों में चमक पैदा नहीं करता अपितु उन्हें लिसलिसा बना देता है । इस दृष्टि से भी कथाकार का महिला होना शायद सार्थक नज़र आता है, ‘उसकी नुची कुतरी हुई संपूर्णता का अहसास उसे तभी होता था, जब वह नोची या कुतरी जा रही होती थी ं जि़न्दगी के साबुत टुकड़े का नोचे कुतरे जाने का सिलसिला कब शुरू हुआ, यह उसकी याददाष्त में धुंधला पड़ चुका है ।’ कहानी हवा में घुली सुगंध की तरह अन्र्तमन में उतरती चली जाती है ।
समीक्ष्य संग्रह की विषेषता भी यही है कि इसमें संग्रहित कहानियों में भावों की गहन सघनता है । ‘खेद का रेषा’ काफी छोटी कहानी है किन्तु अपने घनत्व के कारण काफी देर तक हमारे साथ बनी रहती है, ‘आज भी आप जिस पुरूष के पास से गुजर जायें, उसका वोल्टमीटर खटाक् से हाई रीडिंग देने लगेगा । इजीप्षियन ममीज की तरह कौन सा लेप लगाकर उम्र का पैंतीसवां साल गुजार लिया । लगती तो पच्चीस की हो ।’ कुल जमा ढाई पेज की कहानी अपने पेनेपन के साथ मोजूद है । इसमें नारी मन के कई वितान नज़र आते हैं और उसका बोथरापन भी किस तरह से एक पुरूष चूहे की तरह धीरे धीरे कुतर कर अपने लिए बिल बना लेता है और उसे पता भी नहीं चलता । इसी तरह से एक अलग तरह की कहानी भी इस संग्रह में विद्यमान है ‘हाईड एण्ड सीक’ इसमें सेनिक जीवन के कई चित्र बिखरे पड़े हैं जो कहानीकार के लिए सहज सुलभ हैं । कथानायक काफी समय के बाद उस स्थान पर पुनः लौटता है जहाँ कभी उसने अपनी ड्यूटी को अंजाम दिया था । और वह स्थान है कष्मीर की वादियों में बसा कोई कस्बा जो आतंकवादियों के डर से थर्राता है, ‘औरतों की सुंदर आँखें इतनी सफेद और उजाड़ थीं कि सपनों तक ने उगना बन्द कर दिया था । वहां हसीन मृग नहीं थे, वहां तो वेदना, पीड़ा, घृणा के झाड़ झंखाड़ थे । घृणा किससे ? आतंकवादियों से, व्यवस्था से, सेना से ? उन्हें कुछ भी स्पष्ट नहीं था ।’ कुल जमा यह कि कथा नायक अनुभव करता है, वहाँ के बाशींदे व्यवस्था और सेना दोनों से ही बराबर की नफरत करते हैं । यह जानकर उसे तकलिफ होती है । लेकिन थोड़ा ही आगे चलने पर उसे दरगाह में लोगों का हुजुम दिखाई देता है जो अपनी मन्नतें मांगने आये हैं । जब कथानायक उस पवित्र दरगाह में जाकर देखता है तो दंग रह जाता है । दरअस्ल वह उन कुत्तों की मजारें थी जो कभी उसी की बटालियन में साषा और रोवर नाम के थे और जो विस्फोटकों को पकड़ने में सेनिकों की सहायता करते थे । महज आठ वर्षों के अंतराल ने ही उन कुत्तों की मजार को दरवेष की मजार में तब्दील कर दिया । और उस स्थान को पवित्र स्थल में भी तब्दिल कर दिया । समय जब किसी पर पर्त दर पर्त चड़ता है तो कई लबादे अपने आप तनते चले जाते हैं ।
‘केयर आॅफ स्वात घाटी’ कथाकार मनीषा कुलश्रेष्ठ का चैथा कहानी संग्रह है । इसके अलावा उनके दो उपन्यास भी प्रकाशित हो चुके हैं । यह कहानी संग्रह बोधिप्रकाशन , जयपुर से पुस्तक पर्व के दूसरे बंध का हिस्सा बना है । जिसमें उन्होंने महिला लेखिकाओं की दस पुस्तकों को प्रकाशित किया है । इसमें उनकी सात कहानियाँ संग्रहित है जो उनके लेखन की दिशा को तय करती है । और साथ ही उन भावनाओं को उकेरती है जो मानव मन में गहरे से पैठे हुए है ।
कहानीकार का कहानी कहने का अंदाज अलग किस्म का है । जिसके साथ आसानी से बहा जा सकता है । संग्रह की कहानियों में जहाँ एक और नारी के मन की थाह लेने की कोषिष की गई है तो वहीं दूसरी ओर पुरूष के दंभ को भी हवा दी है । इन कहानियों में बहता जीवन विविध तरह की भंगिमाए रचता जान पड़ता है जो हमारे इर्द गिर्द पसरा हुआ ही है । संग्रह की कहानी ‘खरपतवार’ में अन्र्तमन की कई परतों को उतारने का प्रयास कहानीकार ने किया है । परिवार में कामकाजी पत्नी की हैसियत तले दबे एक पुरूष की मनोदशा को केन्द्रीत कर कहानी का ताना बाना बुना गया है । और अपनेपन की छवि के लिए छटपटाते व्यक्ति की जीजिविषा को भी उकेरने में कामयाब हुर्ह है । जबकि कहानीकार स्वयं स्त्री है इसलिये स्त्री की मनोदषा को अच्छी तरह से समझती है, ‘तुम सनकी पिता और आत्मकेन्द्रीत माँ की संतान हो । मैने सोचा कि मैं तुम्हारे भीतर बाहर सब ठीक कर लूंगी । मैंने तुम्हारे हर आराम का ख्याल रखा, अपनी थका देने वाली नौकरी के बावजूद । मैं असफल रही । तुम्हारा कुछ नहीं हो सकता ।’ वह नींद की गोली के असर में भी कुछ कुछ सुन पा रहा था ।’ एक बोल्ड और कामकाजी स्त्री द्वारा अपने घर घुस्सू पति को इस तरह से उन्मूक्त छोड़ देने के कारण ही इस तरह की कहानी का जन्म होता है ।
‘केयर ऑफ़ स्वात घाटी’ संग्रह की पहली और शीर्षक कहानी है । यह कहानी बड़ी की सशक्त है । इसमें एक नारी की विभिन्न किरदारों को बहुत ही बारीकी से उकेरा गया है । जिससे उसके जीवन के कई शेड्स उभरकर हमारे सम्मुख खुलते है । कहानी की नायिका मंच पर गार्गी का अभिनय करते हुए काफी विद्वान और विद्रोही नारी के रूप में नज़र आती है, ‘लो मैं ने डाल लिया दुषाला अपनी यौवनपुष्ट देह पर, कहो तो इस सुन्दर मुख पर भी हवनकुण्ड की राख मल लूं और कुरूप कर लूं । यह जान लो तुम और पिता से भी कह दो कि मेरी यह देह मेरे ज्ञान और प्रतिभा की कारा नहीं बन सकती....नहीं बन सकती ।’ किन्तु वही घर पर किसी भीगी बिल्ली की तरह दिखाई देती है और ठीक उसी दिन वह अपने पति से न केवल डांट खाती है अपितु उसके चेहरे पर चोट के निषान भी उभर आते हैं । तब उसका निर्देषक कहता है, ‘पन्द्रह बरस हुए होंगे मुझे थियेटर करते हुए तुम लोगों के पास अब बहाने भी खत्म हो चले हैं । मेरे नाटकों की गार्गीयाँ, आम्रपालियाँ, वसंतसेनाएं, वासवदत्ताएं, देवयानियाँ...शमिष्ठाएं...यूं ही चेहरों पर अपनों के विरोध के हिंसक निषान लेकर थिएटर आती रही हैं । बहाने भी अमूमन यही सब, मसलन बाथरूम में फिसल गई थी । बच्चे ने खिलौना-कार से मार दिया गलती से । टैक्सी या बस के दरवाजे से टकरा गई । तुम पहली तो नहीं हो सुगन्धा !’ और इसी सब के तहत समाज में नारी की दषा और दिषा पर गहन चिंतन भी किया गया और पाया कि आज नारी का पता ठिकाना क्या है, ‘मैं गार्गी केयर ऑफ़ याज्ञवल्क्य । मैं दुष्चरित्र अहिल्या, केयर ऑफ़ गौतम ऋषि । मैं भवरीदेवी, मैं रूपकंवर, केयर ऑफ़ लोक पंचायत, केयर ऑफ़ ओनर किलिंग । केयर ऑफ़ चेस्टिटी बेल्ट । पब में पीटी जाने वाली लड़की हूं, केयर ऑफ़ शिवसेना । नाजनीन फरहदी हूं.....केयर ऑफ़ तेहरान जेल । मैं सरेआम कोड़े खाने वाली वो कमसिन लड़की...केयर ऑफ़ स्वात घाटी ।’हमारे समाज की बारीक पकड़ को खोलती कहानी मन और मस्तिष्क पर गहरा असर डालती है और देर तक सोचने को विवष करती है । उस व्यक्ति के बारे में जो जीवन का अहम किरदार है और जिसके बगेर एक कदम भी चलना संभव नहीं । उसी की दारूण दषा पर मन विचलित हो उठता है । हालंाकि अपवाद हर जगह होता है । किन्तु कहानी की पक्षधरता के साथ पाठक बहता चला जाता है ।
‘कालिन्दी’ भी कोमल भावनाओं की धरती पर उकेरी गई वह कली है जो खिल कर देर तक आकर्षित करती है और अपने साथ बांधे रहती है । इसके रंग भी काफी चटक है । कहानी दो भागों में विभक्त है जो नारी मन के विभाजन को भी इंगित करती है । प्रथम भाग में पुत्र के रूप में पुरूष की अन्तःलीला दृष्टव्य है तो दूसरे भाग में माँ के रूप में एक नारी की विवषता और ममत्व विवरणीत है । कहानी वास्तविकता की धरती पर खड़ी की गई वह इमारत है जो अपनी बुलंदी को छूती है और ललकारती है । आत्मकथनात्म शैली में रची गई जीवन की बिसात पर पात्र अपने अपने दर्द बयान करते जाते हैं । मन के उद्गारों को व्यक्त करते हुए एक दूसरी दुनिया में विचरण करने लगते हैं । यह दुनिया फंतासी नहीं है अपितु सच की परछाई के रूप में खुलती है खिड़कियों की तरह । जिनसे झांकता जीवन हमारी आँखों में चमक पैदा नहीं करता अपितु उन्हें लिसलिसा बना देता है । इस दृष्टि से भी कथाकार का महिला होना शायद सार्थक नज़र आता है, ‘उसकी नुची कुतरी हुई संपूर्णता का अहसास उसे तभी होता था, जब वह नोची या कुतरी जा रही होती थी ं जि़न्दगी के साबुत टुकड़े का नोचे कुतरे जाने का सिलसिला कब शुरू हुआ, यह उसकी याददाष्त में धुंधला पड़ चुका है ।’ कहानी हवा में घुली सुगंध की तरह अन्र्तमन में उतरती चली जाती है ।
समीक्ष्य संग्रह की विषेषता भी यही है कि इसमें संग्रहित कहानियों में भावों की गहन सघनता है । ‘खेद का रेषा’ काफी छोटी कहानी है किन्तु अपने घनत्व के कारण काफी देर तक हमारे साथ बनी रहती है, ‘आज भी आप जिस पुरूष के पास से गुजर जायें, उसका वोल्टमीटर खटाक् से हाई रीडिंग देने लगेगा । इजीप्षियन ममीज की तरह कौन सा लेप लगाकर उम्र का पैंतीसवां साल गुजार लिया । लगती तो पच्चीस की हो ।’ कुल जमा ढाई पेज की कहानी अपने पेनेपन के साथ मोजूद है । इसमें नारी मन के कई वितान नज़र आते हैं और उसका बोथरापन भी किस तरह से एक पुरूष चूहे की तरह धीरे धीरे कुतर कर अपने लिए बिल बना लेता है और उसे पता भी नहीं चलता । इसी तरह से एक अलग तरह की कहानी भी इस संग्रह में विद्यमान है ‘हाईड एण्ड सीक’ इसमें सेनिक जीवन के कई चित्र बिखरे पड़े हैं जो कहानीकार के लिए सहज सुलभ हैं । कथानायक काफी समय के बाद उस स्थान पर पुनः लौटता है जहाँ कभी उसने अपनी ड्यूटी को अंजाम दिया था । और वह स्थान है कष्मीर की वादियों में बसा कोई कस्बा जो आतंकवादियों के डर से थर्राता है, ‘औरतों की सुंदर आँखें इतनी सफेद और उजाड़ थीं कि सपनों तक ने उगना बन्द कर दिया था । वहां हसीन मृग नहीं थे, वहां तो वेदना, पीड़ा, घृणा के झाड़ झंखाड़ थे । घृणा किससे ? आतंकवादियों से, व्यवस्था से, सेना से ? उन्हें कुछ भी स्पष्ट नहीं था ।’ कुल जमा यह कि कथा नायक अनुभव करता है, वहाँ के बाशींदे व्यवस्था और सेना दोनों से ही बराबर की नफरत करते हैं । यह जानकर उसे तकलिफ होती है । लेकिन थोड़ा ही आगे चलने पर उसे दरगाह में लोगों का हुजुम दिखाई देता है जो अपनी मन्नतें मांगने आये हैं । जब कथानायक उस पवित्र दरगाह में जाकर देखता है तो दंग रह जाता है । दरअस्ल वह उन कुत्तों की मजारें थी जो कभी उसी की बटालियन में साषा और रोवर नाम के थे और जो विस्फोटकों को पकड़ने में सेनिकों की सहायता करते थे । महज आठ वर्षों के अंतराल ने ही उन कुत्तों की मजार को दरवेष की मजार में तब्दील कर दिया । और उस स्थान को पवित्र स्थल में भी तब्दिल कर दिया । समय जब किसी पर पर्त दर पर्त चड़ता है तो कई लबादे अपने आप तनते चले जाते हैं ।
आदमी ता
उम्र अन्दर
और बाहरी
दुनिया से
भिड़ता रहता
है इन
दोनों दुनिया
के बीच
वह कहीं
अपनी दुनिया
बसाने की
कवायत करता
है ।
संग्रह की
एक कहानी
‘एडोनिस का
रक्त और
लिली के
फूल’ इसी
कशमकश की कहानी है जो
दो पुरूषों
और एक
स्त्री की
मनः दशा
को उजागर
करती हुई
हमारे सम्मुख
खुलती है
। हालांकि
यह कहानी
भी सेन्य
जीवन के
अनुभवों को
रेजा रेजा
खोलती है
और मन
में उतरती
है ।
कथा नायक
मिलट्री अस्पताल में भर्ती है
और वहां
से युद्ध
क्षेत्र में
जाने के
लिए छटपटा
रहा है
। और
अस्पताल की
नर्स उसकी
इसी छटपटाहट
के दौरान
उसे अपने
घर ले
जाती है
और वहीं
पर उसकी
मुलाकात उसके
प्रेमी मेजर तुषार सक्सेना से
होती है
। आत्मीयता
के विरल
पलों में
कहानी के
पात्र और
पाठक गोते
लगाने लगते
है, ‘इफ
यू वांट
लाइफ आॅफ
एक्षन, गो
फॉर वार एंड फाल इन
लव ।’
अंदर और
बाहर के
पाटों के
बीच फसे
हुए अनाज
की तरह
समय लगातार
पीसता रहता
है और
जो कपड़छन
सम्मुख आता
है वही
जीवन का
सत है,
‘एक सैनिक
के पास
खोने को
दो ही
तो चीज़ें
होती है,
पे्रम और
जान ।
वन इन
द वार,
लोस्ट इन
द लव
।’ जिन्दगी
और समय
कई इषारे
भी करते
हैं ।
मन की
चेतना, मूल्यों
में विवषता,
अकेलापन, दुष्चितांए
और घुटन
के बीच
से होकर
गुजरता रास्ता
कई बार
ऐसे सवाल
खड़े करता
कि जिससे
पारा पाना
न केवल
चुनौति होता
है अपितु
समय की
मांग भी,
‘वह फुसफुसाई-
‘यू नो
लव इज
माय सोलफूड
एण्ड आय’म बैगर
।’....‘क्या
एक साथ
दो पुरूषों
से कोई
स्त्री पे्रम
कर सकती
है ?’ और
फिर निथरकर
आता है,
‘सैनिक और
पे्रमी में
कोई फर्क
नहीं होता
। प्रेमी
और सैनिक
दोनों सोते
हुए या
नषे में
डूबे दुष्मन
का फायदा
उठाते हैं....धोखा देकर
लक्ष्य तक
पहुंचना और
गुप्त और
आकस्मिक हमला
करना एक
सैनिक का
मिषन होता
है, ठीक
उसी तरह
जैसे मार्स
से आए
प्रेमी टाॅर्च
का इषारा
करते हैं
और वीनस
से उतरी
देवियां स्कार्फ
लहराती हैं
।’ मानो
रिष्तों की
सुगंध हवा
में होले
होले घुल
रही हो
और कोमल
तंतुओं में
बुना गया
हो को
झीना परदा
जो मन
पर पड़ा
है आवरण
बनकर, ‘नैतिकता,
संयम, अंहिसा
ऐस बर्बर
माहौल में
अपने मायने
खो देते
हैं ।
कलाएं, संगीत,
और साहित्य
भी अमन
के दिनों
के षगल
हैं ।
इन विध्वंसक
पलों में
बस मूल
प्रवृतियां काम करती है । हत्या और
बलात्कार तक
का असल
अर्थ बदल
जाता है
। मरने
जाने से
पहले अपने
बीज बिखेर
जाना ।
ज्यादा से
ज्यादा....दूर से दूर....दूसरे
के मूल
और बीज
को नष्ट
करते जाना
।’ समय
के बहाव
में कब
पे्रमी पराया
हो जाता
है और
पराया अपना
बन जाता
है ता
उम्र के
लिए खुशबू
बनकर ।
कहना न
होगा, मनीषा
कुलश्रेष्ठ की इन कहानियों में
मानव मन
की गहन
पड़ताल करने
की कोषिष
की गई
है ।
वह भी
स्त्री के
हृदय से,
उसकी भाषा
और सजगता
से बने
चित्रों को
देखते ही
बनता है
। इनके
साथ बहने
को मन
भी करता
है और
ठहर जाने
को भी
। ये
ही इन
कहानियों की
ताकत है
लेकिन इनमें
प्रतिबिम्बित जीवन नारी मन की
भी थाह
लेता है
और पुरूष
मन की
भी। यह
एक तरह
से खुदको
तलाषने की
कवायत भी
है और
समय की
नब्ज पर
हाथ धरने
की भी
।
ओडिया कहानी : बलात्कृता :सरोजिनी
साहू
क्या सभी आकस्मिक घटनाएँ पूर्व निर्धारित होती है? अगर कोई आकस्मिक घटना घटती
है तो अचानक अपने आप यूँ ही घट जाती है; जिसका कार्यकरण से कोई
सम्बन्ध है?
बहुत ही ज्यादा आस्तिक नहीं थी सुसी, न बहुत ज्यादा नास्तिक थी
वह. कभी-कभी तो ऐसा लगता था कि ये सब बातें मन को सांत्वना देने के लिए केवल कुछ
मनगढ़ंत दार्शनिक मुहावरें जैसे है.
सुबह से बहुत लोगों का ताँता लगने लगा था घर में. एक के बाद
एक लोग पहुँच रहे थे या तो कौतुहल-वश देखने के लिए या फिर अपनी सहानुभूति प्रकट
करने के लिए. घर पूरी तरह से अस्त-व्यस्त था. जीवन तो और भी अस्त-व्यस्त था! दस
दिन हो गए थे, इधर-उधर घुमने-फिरने में, आज ही ये लोग अपने घर लौटे
थे. रास्ते भर यही सोच-सोचकर आ रहे थे, घर पहुंचकर शांति से गहरी
नींद में सो जायेंगे. रात के तीन बजे उनकी ट्रेन अपने स्टेशन पर आनेवाली थी.
इसलिए मोबाईल फ़ोन में 'अलार्म' सेट करने के बाद भी,आँखों में नींद का
नामोनिशान नहीं था. पलकें एक मिनट के लिए भी नहीं झपकी थी. थोडी-थोडी देर बाद नींद
टूट जाती थी. ट्रेन से उतरकर घर लौटकर देखा था, कि घर अब और कोई
आश्रय-स्थल नहीं रहा था.
सुबह से ही घर में लोग जुटने लगे थे. कभी-कभी तीन-चार मिलकर
आ रहे थे तो कभी-कभी कोई अकेला ही. सभी को शुरू से उस बात का वर्णन करना पड़ता था, कि यह घटना कैसे घटी
होगी.यहाँ तक कि डेमोंस्ट्रेशन करके भी दिखाना पड़ता था. सब कुछ देखने व सुन लेने
के बाद, वे लोग यही कहते थे कि आप लोगों को इतना बड़ा खतरा नहीं उठाना चाहिए था. अगर
कोई एक आदमी भी घर में रुक जाता तो, शायद आज यह घटना नहीं घटती
. ऐसा प्रतीत होता था जैसे कि अपराधी को हर हालत में अपराध करने का पूरा-पूरा हक़
है. और सुसी के परिवार वालों की भूल है कि उन्होंने कोई सावधानी नहीं बरती.
इन्हीं 'सावधानी' व 'सतर्कता' की बातें सुनने से सुसी को
लगता था, कि बारिश के लिए छतरी, सांप के लिए लाठी, अँधेरे के लिए टॉर्च का प्रयोग कर जैसे उसकी सारी जिंदगी बीत जायेगी! ऐसा
कभी होता है क्या? चारों-दिशायें, चारों-कोनें, ऊपर-नीचे देख-देखकर साबुत जिन्दगी जीना संभव है?
:" आप इंश्योरेंस करवाए थे
क्या?"
:" इंश्योरेंस, नहीं, नहीं."
:" करवाना चाहिए था ना!"
सुसी और क्या जबाव देती?इस संसार में सब कुछ क्षणभंगुर और अस्थायी
है. जो आज है,कल
वह नहीं रहेगा. किस-किस चीज का इंश्योरेंस करवाएगी वह?और किस-किस का नहीं ! घर, गाड़ी, जीवन, आँखें, कान, नाक, ह्रदय, यकृत और वृक्क? इंश्योरेंस कर देने के बाद, 'पाने और खोने' का खेल बंद हो जायेगा?किसी भी रास्ते से तब भी आ
पहुँचेगी दुःख और यंत्रणा, तक्षक सांप की तरह!
:"कितना गया?"
:" क्या -क्या गया ?
"
धीरे-धीरे, कुछ -कुछ याद कर पा रही थी
सुसी . एक के बाद एक चीजें याद आ रही थी उसको . क्या बोल पाती वह ? आते समय , जिस हालत में उसने अपने घर
को देखा था बस उसी बात को दुहरा रही थी सभी के सामने .
उस दिन जब उन्होंने अपने घर की खिड़की के टूटे हुए शीशे के
छेद में झाँककर देखा , तो दिखाई पड़ी थी अन्धेरें आँगन में चांदनी की तरह फैली हुई रोशनी. आश्चर्य से
सुसी ने पूछा था ," अरे ! बेबी के कमरे की लाइट कैसे जल रही है ?" जब कभी वे लोग बाहर जाते
थे , तो घर की लाइट बंद करना और ताला लगाने का काम अजितेश का होता था . इसलिए यह
प्रश्न अजितेश के लिए था . " आप क्या बेबी के कमरे की लाइट बुझाना भूल गए
थे ?"गाडी से सूटकेस व अन्य सामान उतार रहा था अजितेश. कहने लगा था ,"मैंने तो स्विच ऑफ किया था
." बेबी बोली थी :-" पापा , आप भूल गए होगे . याद
कीजिये जाते समय लोड-शेडिंग हुआ था ना ? ."
ग्रिल का ताला खोल दी थी सुसी . इसके बाद वह मुख्य -द्वार
का ताल खोलने लगी थी . ताला खोलकर ,धक्का देने लगी थी .पर जितना भी धक्का दे पर
दरवाजा नहीं खुल रहा था . "अरे ! देखो , "चिल्लाकर बोली थी सुसी,"पता नहीं क्यों ,दरवाजा नहीं खुल रहा है .
लगता है किसी ने भीतर से बंद किया है ? कौन है अंदर ?
" .सुसी
का दिल धड़कने लगा था . वह कांपने लगी थी . " दरवाजा क्यों नहीं खुल रहा
है ? " भागकर आया था अजितेश , पीछे -पीछे वह ड्राईवर भी
. सुसी ग्रिल के दरवाजे के पास आकर ,टूटे शीशे से बने छेद में से झाँककर देखने
लगी वह दृश्य . बड़ा ही ह्रदय विदारक था वह दृश्य! उसकी अलमीरा चित्त सोयी
पड़ी थी. दोनों तरफ बाजू फैलाते हुए. खुले पड़े थे अलमीरा के दोनों पट. सुसी की
छाती धक्-धक् कांपने लगी थी जोर जोर से.रुआंसी होकर बोली थी,-"हे,देखो!"
:" ऐसा क्यों कर रही हो?" बौखलाकर अजितेश बोला था.
इसके बाद उसने बड़े ही धैर्य के साथ पडौसियों को जगाया था. ड्राईवर और पडौसियों को
साथ लेकर पीछे वाले दरवाजे की तरफ गया था अजितेश. पीछे का दरवाजा खुला था. पर किसी
ने बड़ी सावधानी के साथ, उस दरवाजा को चौखट से सटा दिया था. दूर से ऐसा लग रहा था जैसे दरवाजा वास्तव
में बंद है.
ड्राईवर कहने लगा-"चलिए,सर! पुलिस स्टेशन चलेंगे." पडौसी
सहानुभूति जता रहे थे. कह रहे थे,-" दो-चार दिन पहले, आधी रात को, धड-धड की आवाजें आ रही थी
आपके घर की तरफ से. हम तो सोच रहे थे कि शायद कोई पेड़ काट रहा होगा."
अजितेश ड्राईवर को लेकर पुलिस स्टेशन जाते समय यह कहते हुए
गया था-" किसी भी चीजों को इधर-उधर मत करना. छूना भी मत. थाने में एफ.आई.आर
देकर आ रहा हूँ." अजितेश के जाने के बाद पडौसी भी आपस में चलो चलो कहते हुए
अपने घर को लौट गये.
सुसी ने देखा था कि उसका पूरा घर बिखरा-बिखरा , अस्त-व्यस्त पडा था. जो
चीज जहाँ होनी चाहिए थी, वहां पर नहीं थी. किसी ने सभी तकियों को फर्श पर बिछा कर, उसके उपर सुला दिया था
उसकी अलमीरा को. पास में मूक-दर्शक बनकर खड़ी हुई थी बेबी की वह अलमीरा. जमीन पर
बिखरी हुई थी बाज़ार से खरीदी हुई इमिटेशन ज्वैलरी जैसे कान के झुमके,बालियाँ और गले का
हार.यहाँ तक कि, भगवान के पूजा-स्थल को भी किसी ने छेड़ दिया था.
सुसी ने सभी कमरों में जाकर देखा था. टीवी अपनी जगह पर
ज्यों का त्यों था, कंप्यूटर भी वैसे का वैसे ही पड़ा था. माइक्रो-ओवेन रसोई घर में झपकी लगाकर
सोयी हुई थी. और बाकी सभी वस्तुयें अपनी-अपनी जगह पर सुरक्षित थी. पर चोर ने
नोकिया का पुराना मोबाइल सेट और एक पुराने कैमरा को अनुपयोगी समझकर बेबी के बिस्तर
में फेंक दिया था.
परन्तु जब सुसी ने बेड रूम के बाहर का पर्दा हटाकर देखा, तो वह आर्श्चय-चकित रह गयी
यह देखकर कि उस रूम का ताला ज्यों का त्यों लगा हुआ था.अरे! किसीने उस कक्षा को
छुआ तक नहीं, उसे ज्यों का त्यों अक्षत छोड़ दिया.
बेबी ने आवाज लगायी, "मम्मी, देखो,देखो."
"क्या हुआ," बेबी के कमरे में घुसते
हुए सुसी ने पूछा.
"जिस चोर ने तुम्हारी
अलमीरा को तोडा, उसने मेरी अलमीरा को क्यों नहीं तोडा?"
आस-पास ही थी दोनों अलमीरा, बेबी के कमरे में. एक सुसी
की अलमीरा, तो दूसरी बेबी की.बेबी की अलमीरा में बेबी की हरेक चीज तथा कपडा रखा जाता था.
सुसी की अलमीरा में लॉकर को छोड़ बची हुई जगह में साडी का इतना अधिक्य था कि और
साडी रखने से उसे अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करना पड़ता था.
देखते ही देखते सुबह हो गयी.ड्राईवर और अजितेश, पुलिस स्टेशन में थानेदार
को न पाकर , उसके घर चले गए थे.थानेदार की किडनी में स्टोन था. वह वेल्लोर से कुछ दिन हुए
लौटा था. "मैं सुबह नौ बजे से पहले नहीं आ पाउँगा " बड़े ही कटु
आवाज में बोला था थानेदार, " आप लोग जाइये, सब कुछ सजा कर रख दीजिये, मैं नौ बजे तक पहुँचता
हूँ."
ड्राईवर की सहायता से नीचे मूर्छित पड़ी अलमीरा को उठाकर
खडा किया था अजितेश ने. अब, दोनों अलमीरा पास पास खड़ी हुई थीं.
ड्राईवर ने जाने की इजाज़त मांगी,
" तो, मैं जा रहा हूँ ,सर." अजितेश को
थानेदार के ऊपर पहले से ही काफी असंतोष था, और ड्राईवर से कहने लगा,"ठीक है, तुम जाओ, और रूककर करोगे भी क्या?" ड्राईवर रात दो बजे से
प्रतीक्षा कर रहा था स्टेशन पर. अजितेश का अनुमति पाते ही वह तुरंत रवाना हो गया.
किस रस्ते से चोरी हुई होगी, छान-बीन करने के लिए सुसी
और अजितेश इधर-उधर देखने लगे. पता चला कि बाथरूम के रोशन दान में लगा हुआ शीशा टूट
कर नीचे गिरा हुआ था. चोर जरुर उसी इसी रास्ते से होकर अंदर घुसा होगा, जिसका वह प्रमाण छोड़कर
गया कोमोड़ के ऊपर रखा हुआ था फूलदान. आरी-पत्ती की मदद से सब ताले टूटे हुए थे.
सूटकेस, एयर बैग, तब तक ड्राइंग रूम में रखा
जा चुका था. इतनी देर तक हाथ-मुहं धोने की भी फुरसत नहीं थी सुसी की. सवेरे-सवेरे
टहलते हुए लोग बाहर चारदीवारी का दरवाजा खोलकर घर के भीतर आ गये थे. पता नहीं,इतनी सुबह-सुबह इस घटना की
जानकारी लोगों को कैसे मिल गयी?
:" अरे,ये सब कैसे हो गया?"
:" आप लोग कहाँ गये थे?"
:" चार दिन पहले, मोर्निंग-वाक में जाते समय
मैंने देखा था की आपके कमरे की एक लाइट जल रही थी. मैंने सोचा कि आप लोग बंद करना
भूल गये होंगे."
:" दस दिन के लिए बाहर गये थे? किसी को तो बताकर जाना
चाहिए था."
:" आपको पता नहीं है, ये जो जगह है, यहाँ चोरों की भरमार
है."
उस समय तक पूरा शरीर थक कर चूर-चूर हो चूका था. एक, उपर से लम्बी यात्रा की
थकान; दूसरी, रात भर की अनिद्रा. ऐसा लग रहा था मानो शरीर का पुर्जा-पुर्जा ढीला हो गया हो.
लेकिन लोगों का आना-जाना जारी था. जल्दी-जल्दी, घर साफ़ कर पहले जैसी
साफ-सुथरी अवस्था में लाने की कोशिश कर रही थी सुसी.
उसने हाथ घुमा कर भीतर से देखा था कि लॉकर के भीतर फूटी
कौडी भी नहीं थी और लॉकर बाहर से टूटकर टेढा हो गया था. सोना चांदी के गहने और अब
कहाँ होंगे? घर सजाते-सजाते, बाद में सुसी को यह भी पता चला कि पीतल का एक बड़ा शो-पीस, कांसे की लक्ष्मी की
मूर्ति, चांदी का कोणार्क-चक्र भी शो-केस में से गायब हैं.
यह सब देखकर बेबी को तो मानो रोना आ गया हो. अजितेश डांटते
हुए बोला था," रो क्यों रही हो? ऐसा क्या हो गया है?"
:" मम्मी, देख रही हो, मेरे कान के दो जोड़ी झुमके
भी चोर ले गया. चोर मर क्यों नहीं गया? मैं उसको, श्राप देती हूँ कि उसको
सात जन्मों तक कोई खाना नहीं मिलेगा?"
:" चुप हो जा, पागल जैसे क्यों हो रही हो?"
सुसी डांटने लगी थी. बेबी को कान के झुमकों के लिए रोते
देखकर सुसी को याद आने लगा था अपने सारे गहनों के बारे में.
:" तुम्हारी सोने की एक
चेन , मेरा मगल सूत्र, दो चूड़ियाँ इतना ही तो घर में था न?" पूछने लगी थी सुसी बेबी
से.
:"और मेरी अंगूठी?" पूछने लगी थी बेबी.
:" हाँ, हाँ, वह अंगूठी भी चली
गयी."
:" पापा की गोल्डन पट्टे वाली
घड़ी?"
:" ठीक बोल रही हो, वह भी."
:" और याद करो तो बेबी और
किस-किस चीज की चोरी हुई होगी?"
:" आप के सोने का हार, उसको आपने कहाँ रखा था?"
:" इमिटेशन डिब्बे में ही तो
था. क्रिस्टल के साथ गूँथकर रखा हुआ था." सुसी बेबी के नकली गहनों के सब
डिब्बे खोल-कर देखने लगी थी.
:" नहीं, नहीं, यहाँ तो कहीं भी नहीं
है." बेबी कह रही थी.
:" एक और बात, अगर आपको पता चल जायेगा तो
आपका मन बहुत दुखी हो जायेगा, इसलिए मैं आपको नहीं बता
रही हूँ."
सुसी की आँखों में आंसू देखने से जैसे उसको ख़ुशी मिलेगी, उसी लहजे में चिढाते हुए
बोली थी बेबी, " बोलूं?"
:" ज्यादा नाटक मत कर, गुस्सा मत दिला.बोल रही
हूँ,ऐसे
भी मुझे अच्छा नहीं लग रहा है. तुम्हारे कह देने से और क्या ज्यादा हो जायेगा?"
:" वह बहुमूल्य पत्थरों से
जडित चौकोर पेंडेंट, जो आपके बचपन की स्मृति थी, कहाँ गया ?
"
बेबी ठीक बोल रही थी,पुराना पेंडेंट चेन से कटकर बाहर निकल आ रहा
था,इसीलिए
चेन से निकाल कर अलग से रख दी थी सुसी. क्या , किसी ज़माने की एक अनमोल
धरोहर थी वह? जब वह हाई-स्कूल में पढ़ती थी तब माँ उसके लिए बनवाई थी बहुमूल्य पत्थर जड़ित
अंगूठी, कान के झूमके तथा पेंडेंट के साथ एक सोने की चेन. अब तो माँ भी मर चुकी है., और वह सोनार भी. उस समय तो
वह सोनार जवान था. अगर उसको एक अच्छा शिल्पी कहें , तो कोई अतिशयोक्ति नहीं
होगी. नए-नए डिजाईन के चित्र बनाकर, नई-नई डिजाईन के गहनें
गढ़ना उसकी एक अजीज अभिरुचि हुआ करती थी. छोटे-छोटे छब्बीस नग, बीच में एक बड़ा सा सफ़ेद
नग लगा हुआ चौकोर आकार का था वह पेंडेंट. सबसे ज्यादा सुन्दर था वह. सभी बहनें
बराबर शिकायत करती रहती थीं उस सोनार ने उनके लिए इतनी सुन्दर डिजाईन क्यों नहीं
बनाई? कितनी सारी यादें जुड़ी हुई थी उस पेंडेंट से. इतने दिनों तक पेंडेंट था उसके
साथ. माँ ने अपनी बचत किये हुए पैसों से बनवाई थी उसको. उसकी याद आते ही माँ की
बहुत याद आने लगी थी. जब माँ जिन्दा थी, वह उसके महत्त्व को नहीं
समझ पाई थी . अभी समझ में आ रहा था कि किस प्रकार एक मध्यम-वर्गीय परिवार की माँ
अपने जीवन में पैसा-पैसा जोड़कर बच्चों के लिए बहुत कुछ कर ली थी. आखिर, उसे भी चोर ले गया ?
:" आप दुखी हो गयी हो क्या?माँ, मेरी भी तो चेन और कान की
बालियाँ चोरी हो गयी है."
:" बेबी,तुम्हारी माँ तो अभी जिंदा
है.तुम्हारे लिए फिर से बनवा देगी. पर, वह पेंडेंट तो मेरे शरीर
पर बहुत दिनों तक साथ-साथ था, इसलिए लगाव हो गया था, जैसे कि शरीर का कोई अंग
हो."
बेबी फिर एक बार किसी गवांर औरत की भांति चोर को गाली देना
शुरू कर दी थी.
:"तू ज्यादा बक-बक मत कर, बहुत काम पडा हुआ है, उसमें मेरा हाथ बटा."
कहते हुए बाहर से लाये हुए सूटकेस को खोली थी सुसी.
एक घंटे के बाद अजितेश लौट कर आ गया था.साथ में पुलिस वाले
और मटन कि थैली.ऐसे समय में मटन देख कर सुसी का मन आश्चर्य और विरक्ति भाव से भर
गयी थी. पुलिस के सामने अजितेश को कुछ भी न बोलते हुए, चुपचाप मटन की थैली को
भीतर रख दी थी सुसी.
बाथरूम के रोशनदान के पास जाकर थानेदार अनुमान लगाने लगा था
कि एक फुट चौडे रास्ते से तो केवल सात-आठ साल का लड़का ही पार हो सकता है. लेकिन
आठ साल का लड़का आरी-पत्ती से सब ताले कैसे खोल पायेगा? इतने बड़े अलमीरा को कैसे
सुला पायेगा? ऐसी बहुत सारी अनर्गल बकवास करने के बाद अजितेश, सुसी और बेबी का पूरा नाम, उम्र आदि लिखकर वापस चला
गया था. जाते समय यह कहते हुए गया था, अगर मेरी तक़दीर में लिखा
होगा, तो आपको आपका सामान वापस मिल जायेगा.
'थानेदार की तक़दीर?' पहले पहले तो कुछ भी समझ
नहीं पाई थी सुसी.तभी अजितेश झुंझलाकर बोला,-"पहले जाओ, गेट पर ताला लगाकर आओ, जल्दी-जल्दी खाना
बनाओ ,फिर
खाना खाकर सोया जाय."
:" जल्दी-जल्दी कैसे खाना
पकाऊंगी? क्या सोचकर अपने साथ मटन लेकर आ गए? लोग देखेंगे, तो क्या कहेंगे> इधर तो इनके घर में चोरी
हुई है, और उधर ये असभ्य लोग मटन खाकर ख़ुशी मना रहे हैं."
:" लोगों का और कुछ काम नहीं
है, जो तुम्हारे घर में क्या प़क रहा है देखने के लिए आएंगे?"
तपाक से बेबी बोल उठी,:" पापा, मुझे आश्चर्य हो रहा है, आपको तनिक भी दुख नहीं लगा?"
अजितेश सुलझे हुए शब्दों में कहने लगा,:"जो गया, सो गया. क्या इन चीजों के
लिए हम अपना जीवन जीना छोड़ देंगे? मेरी बड़ी दीदी की शादी के
पहले दिन, चोर घर में सेंध मारकर शादी के सभी सामान लेकर फरार हो गया. सवेरे-सवेरे जब
लोगों ने देखा, तो जोर-जोर से रोना धोना शुरू कर दिए. परन्तु मेरे पिताजी तो ऐसे बैठे थे जैसे
उन पर कोई फर्क नहीं पडा हो,एकदम निर्विकार. भोज का सामान फिर से ख़रीदा
गया. तथा स्व-जातीय बंधु-बांधवों के सामने वर के पिता को हाथ जोड़कर उन्होंने
निवेदन किया था कि एक हफ्ते के अन्दर दहेज़ का सभी सामान खरीदकर पहुंचा देंगे.
प्रेशर-कुकर की सिटी बज रही थी. भांप से मीट पकने की खुशबू
भी चारों तरफ फैलने लगी थी. फिर एक बार, ' कालिंग-बेल' बजने लगी थी. कौन आ गया इस
दोपहर के समय? रसोई घर से सुसी चिल्लाई,-" बेबी, दरवाजा खोलो तो."
: " माँ, आंटी लोग आये है?" बेबी ने कहा था.
संकोचवश जड़वत हो गयी थी सुसी.कालोनी के सात-आठ औरतें. इधर
रसोई घरसे मटन पकने की सुवास चारों तरफ फ़ैल रही थी. कोशिश करने से भी वह छुपा
नहीं पायेगी. देखो,कितना
पराधीन है इंसान? अपनी मर्जी से वह जी भी नहीं सकता.
फिर एकबार दिखाना पडा सबको वह टूटी हुई अलमीरा को खोलकर.
:"हाँ, देख रहे हैं न?"
:"अन्दर का लॉकर भी."
:"हाँ, उसको तो पीट-पीटकर टेढ़ा
कर दिए हैं."
फिर एकबार बाथरूम का टूटा हुआ रोशनदान, फिर एकबार शो-केस की वह
खाली जगह,फिर
एकबार कितना गया की रट. फट से बेबी बोली,:" ६ जोड़ी कान के झुमके, मेरी चेन, माँ का मंगल
सूत्र---"
": इतना सारा सामान आप घर में
छोड़कर बाहर चले गए थे? फिर भी मोटा-मोटी कितने का होगा?"
": सत्तर या अस्सी हजार के
आस-पास ."
:" लाख बोलिए न, जो रेट बढ़ा है आजकल सोने
का.चोर के लिए छोड़कर गए थे जैसे. चोर की तो चांदनी हो गयी."
फिर एक बार प्रेशर-कुकर की सिटी बजने लगी. अब सुसी का चेहरा
गंभीर होने लगा. ये औरतें जा क्यों नहीं रही हैं? दोपहर में भी इनका कोई
काम-धन्धा नहीं है क्या? घूम-घूमकर सारे कोनों को देख रही हैं. घर की बहुत सारी जगहों पर मकडी के जाले
झूल रहे थे, धूल-धन्गड़ जमा था.ये सब उनकी नजरों में आयेगा. और जब ये घर से बाहर जायेंगे, तो इन्हीं बातों की चर्चा
भी करेंगे. फिर, उपर से आ रही थी पके हुए मटन की महक.धीरे-धीरे सुसी उनसे हट कर चुप-चाप रहने
लगी.ये सब औरतें गप हांक रही थीं. कब,किसके घर कैसे चोरी हुई. इन्हीं सब बातों को
लेकर वे रम गयी थीं.
अजितेश कंप्यूटर के सामने बैठे-बैठे खों-खों कर खांसने लगा
था .नहीं तो पता नहीं, कितनी देर तक वे औरतें बातें करती?
उस समय तक सुसी को ज्यादा दुःख नहीं हुआ था. लोग आ रहे थे, देख रहे थे, सहानुभूति जता रहे थे.
सबको टूटी-फूटी अलमीरा, चोर के घुसने का रास्ता दिखा रही थी. पर जब सुसी पूजा करने गयी, तो मानो उसके धीरज का बांध
टूट गया हो.भगवन की छोटी-छोटी मूर्तियाँ, अपने-अपने निश्चित स्थान
से गिरी हुई थीं. डिब्बे में से प्रसाद नीचे गिर गया था . धुप, अगरबत्ती, सब बिखरा हुआ था इधर उधर.
सिंदूर की डिब्बिया भी गिरी हुई थी. होम की लकड़ियां भी बिखरी हुई थी
इधर-उधर.चोर उपवास-व्रत वाली किताबों की पोटली खोलकर लगभग तीस चांदी के सिक्कों को
भी ले गया था.कितने सालों से धन-तेरस पर खरीद कर इकट्ठी की थी सुसी ने. एक ही झटके
में सारी स्मृतियाँ विलीन सी हो गयी.
भगवान की मूर्ति को किसी गंदे हाथों ने जरुर छुआ होगा.उनकी
अनुपस्थिति में चोर ने जरुर इधर-उधर स्पर्श किया होगा. मन के अन्दर से उठते हुए
विचार, तुरन्त ही असहायता में बदल गए हो जैसे. सुसी के घर में और कुछ छुपी हुई चीज
बाकी नहीं थी.चोर को तो जैसे हरेक जगह का पता चल गया था. उसका घर अब उसे घर जैसा
नहीं लगा.फटे-पुराने कपड़ों से लेकर, कीमती सिल्क की साड़ी कहाँ
रखती थी सुसी, मानो चोर को सब मालूम हो गया था. दीवार की छोटी से छोटी दरार से लेकर घर की
बड़ी से बड़ी, गुप्त से गुप्त जगह की जानकारी भी थी चोर के पास.
तुरन्त ही सुसी को याद आ गया टूटे हुए शीशे के अन्दर से
दिखा हुआ अलमीरा का वह ह्रदय-विदारक दृश्य. ऐसे चित्त सोयी पड़ी थी वह अलमीरा,जैसे किसी ने उसे जमीन पर
लिटाकर जबरदस्ती उसके साथ बलात्कार कर दिया हो. खुले हुए दोनों पट ऐसे लग रहे थे, मानो उस नारी ने अपनी
कमजोर बाहें विवश होकर फैला दी हो. पूरे शरीर पर दाग ही दाग., मानो शैतान के नाखूनों से
लहू-लुहान होकर हवश का शिकार बन गयी हो. रंग की परत हटकर प्राइमर तो ऐसे दिख रहा था
मानो लाल-लाल खून के धब्बे दिख रहे हो. दुखी मन से सुसी की छाती भर आयी थी . फिर
अपने-आपको संभालते हुए बोली थी ,-"अरे, सुन रहे हो?"
खाने का इंतज़ार करते-करते नींद से बोझिल सा हो रहा था
अजितेश. सुसी की आवाज सुनकर नींद में ही बड़बड़ाने लगा,:
" क्या
हुआ ?"
क्या बोल पाती सूसी? उसके अन्दर तो फूट रही थी
एक अजीब से अनुभव की ज्वालामुखी! कैसे बखान कर पायेगी किसी को?चुप हो गयी थी सुसी.
:" क्या हो गया? क्यों बुला रही थी?"
फिर से अजितेश ने पूछा, "जल्दी पूजा खत्म करो, मुझे जोरों की नींद लग रही
है. खाना खाते ही सो जाऊंगा."
भगवान की मूर्तियाँ अब उसे अछूत लगने लगी थीं. चोर ने उन
सबको बच्चों के खिलौनों के भांति लुढ़का दिया था. उसके कठोर, गंदे हाथों ने स्पर्श किया
होगा उन मूर्तियों को . उसने संक्षिप्त में ही सारी पूजा समाप्त कर दी.
खाना परोसते समय और एक बार अनमने ढंग से बोलने लगी थी सुसी,:"सुन रहे हो ?"
:" क्या हुआ ?" इस बार गुस्से से बोला था
अजितेश,"क्या बोलना है , बोल क्यों नहीं रही हो ? एक घंटा हो गया
सिर्फ 'सुनते
हो' 'सुनते हो' बोल रही हो."
:" मुझे कुछ अच्छा नहीं लग
रहा है." बोली थी सुसी.
:" कौन सी बड़ी बात है? यह तो स्वाभाविक है. चोरी
हुई है, मन को तो जरुर ख़राब लग रहा होगा."
:" नहीं ऐसी बात नहीं,:
:" फिर , क्या बात है?"
:" मुझे ऐसा लग रहा है हमारे
घर का कुछ भी गोपनीय नहीं बचा है. किसी ने अपने गंदे हाथ से सब कुछ छू लिया है.
ऐसा कुछ बचा नहीं जो अन-देखा हो"
अजितेश आश्चर्य-चकित हो कर देखने लगा था सुसी को. ऐसा लग
रहा था ,जैसे
सुसी के सभी दुखों का बाँध ढहकर भी अजितेश के ह्रदय को छू नहीं पा रहा हो.
(अनुवाद : दिनेश कुमार माली)