Tuesday, June 15, 2010

साहित्यदर्शन डोट कॉम का अप्रेल अंक

बाज़ारवाद के सम्मुख एक पहल

आज जब हम लोक लुभावन नारों के साथ बाज़ार के बीचों बीच खड़े हैं और हमारे आप पास लोभवृति का बाहुल्य फैलता जा रहा है जिससे हमारे समाज में एक ऐसी सभ्यता का निर्माण हो रहा है जिसे महाकवि निराला ने ‘पर स्वहारिणी’ सभ्यता कहा था । यह पर स्वहारिणी सभ्यता वर्तमान के भूमंडलीकरण के दौर में आम आदमी की मौलिक स्वतंत्रताओं का लगातार अपहरण करती जा रही है । इससे हम किस तरह से निजात पाएं यह भी हमें ही सोचना होगा ।
घोर बाज़ारीकरण के इस दौर में भाई मायामृग ने क़माल दिखाया और पुस्तक पर्व में रूप में देश के प्रकाशकों को एक नई दिशा देने का प्रयास किया । विगत दिनों पुस्तक पर्व के तहत पहले सेट का विमोचन जयपुर में हुआ इसमें कविता, कहानी और विविध रचनाओं की दस पुस्तकें मात्र सौ रूपयों में उपलब्ध करवाई गई यानि कि एक पुस्तक का मूल्य मात्र दस रूपये । जो संभवतः एक सिगरेट के पैकेट से भी कम है । कविता पुस्तकों में, जहांँ उजाले की रेखा खिंची है दृनंद चतुर्वेदी, भीगे डेनों वाला गरूणदृ विजेन्द्र, आकाश की जात बता भइयादृ चन्द्रकांत देवताले, प्रपंच सार सुबोधिनीदृ हेमन्त शेष की हैं तो कहानियों में, आठ कहानियाँदृ महिप सिंह, गुटनाइट इंडियादृ प्रमोद कुमार शर्मा, घग्घर नदी के टापूदृ सुरेन्द्र सुन्दरम् हैं और विविध के अन्तर्गत कुछ इधर की कुछ उधर की(संस्मरण) डा. हेतु भारद्वाज, जब समय दोहरा रहा हो इतिहास (विविध) नासिरा शर्मा और तारिख की खंजड़ी (डायरी) डा. सत्यनारायण की पुस्तकें है । इस उम्दा साहित्य के प्रथम सेट को हर कोई अपने संग्रह में रखना चाहेगा । साहित्यदर्शन परिवार भाई मायामृग को इस महत्वपूर्ण उपलब्धि पर साघुवाद देता है और उनकी आगामी योजना की सफलता कामना करता है ।
इस अंक में हैं स्व. मंजू अरूण की कविताएं, संतोष श्रीवास्तव की कहानी नागफनियों के बीच और शमशेर बहादुर सिंह की डायरी के पन्ने जो आपको जरूर पसन्द आयेंगे ।
रमेश खत्री
http://www.sahityadarshan.com/Sahitya.aspx

डायरी :शमशेर बहादुर सिंह : डायरी के पन्ने

स्कूल की क्लासे ड्रामे के पात्रों की सूरत में अपनी जरूरी तरतीब और मुकाम से खड़ी हो जाए, और सबक, जो कि ड्रामा है, खेला जाए चाहे सबक भाषा और साहित्य का हो, चाहे भूगोल और इतिहास का, चाहे गणित के विभिन्न रूपों में से किसी का, चाहे विज्ञान का, चाहे कला, चाहे राजनीति या अर्थशास्त्र का, चाहे धर्म का ।
हैं तो हमारे नेताओं के पास साधन फिल्म, बैले, नाच, ‘जादू’ के भी तमाशे और क्या चाहिए ; क्यों नहीं उठा देते दुनिया के अवाम का स्तर, क्यों नहीं उसके दिलों दिमाग में बसा देते ‘नयी दुनिया’ का सच्चा रूपः क्यों नहीं खुराफ़ात से उनका दिल फेर देते, उन्हें अच्छा इन्सान बना देते ?
मगर बनाए कौन ? बनाने वाला तो कलाकार होना चाहिए ।
कलाकार तो ज़हर के घूंट पी कर ज़िन्दा रहता हैः आज वही कुछ वह दूसरों को भी पीने के लिए दे सकता है, और कुछ नहीं ।

18/2/1963

जो शख्स बेवकूफ हो, ‘मूर्ख’ हो, ‘निरीह’ हो....उससे मोहब्बत करना क्या वाकई मुमकिन है ? क्या यह सही नहीं कि उसके लिए सिर्फ हमदर्दी या एक दीदी की या मां की ममता रखना ही ज्यादा सहज होगा ?
जिय पर विश्वास मामूली मामूली कार्यों के सिलसिजे में भी न रखा जा सके, उसके साथ महोब्बत का जज़्बा.....रखना.....!?
रियायत
रियायत करना भी एक चीज़ है ।
मैं कि महज एक पृष्ठभूमि हूं, एक ‘तकिया’ - सूफियों का सा ? कुछ नहीं हूं ।
- तो फिर मेरी नज़्में भी कुछ नहीं है ।
ऐसे आदमी की नज़्में क्यो होंगी ?
एसा आदमी क्या !!

22/2/1963

और ‘फे......’ ने अपने इदारिया (सम्पादकीय) में तमामतर मेरे खत का एक हिस्सा क्यों डाल दिया और कहीं उसका एतराफ (स्वीकृति) भी नहीं ः किसी सूरत नहीं ?
क्या ऐसा नहीं किया जा सकता था ? कि आप इदारिया के नीचे ब्रेकेट में ये चन्द अल्फाज जोड़ देते, ‘एक आधुनिक हिन्दी कवि के पत्र से ’ !
इदारिया, अर्थात आमुख पृष्ठ ही नहीं ; एक और स्वतंत्र रचना भी, ‘डायरी का एक पृष्ठ@उ.प.’ , लगता है बिल्कुल जैसे मेरे शब्द हों- बिलकुल मेरे शब्द ।
यह क्या माजरा है । कहीं मुझे ढूंढना होगा क्या अपनी डायरी में इसका मूल ?
और क्या इसीलिए मेरे पास यह अंक नहीं आया अभी तक....। इस विलम्ब के पीछे यह ‘मुजरिम की कचोट.... तो नहीं ?’
अजब बात है । है, ना ?

http://www.sahityadarshan.com/Diary.aspx


कविता : मंजु अरूण

एक औरत

एक औरत
चाहे तो बन सकती है
फूल, लता, तरू और
समय पड़े तो जंगल भी

एक औरत
चाहे तो बन सकती है
नदी, निर्झर, ताल और
समय पड़े तो आंधी बरसात भी

एक औरत
चाहे तो बन सकती है
धरती, आकाश, पाताल और
समय पड़े तो पूरा ब्रह्मांड भी

एक औरत
चाहे तो बन सकती है
दूर्गा, चण्डी, ज्वाला और
समय पड़े तो महाकाली, महाविकराली भी

एक औरत
मगर लाख चाहे तब भी
बन नहीं पाती कभी एक पुरूष
एक पूर्ण पुरूष

http://www.sahityadarshan.com/Poems.aspx

पुनर्पाठ के दौरान लिए गए नोट्स : रमेश खत्री : अज्ञेय की कथा नारी

समाज में ऐसे व्यक्तियों की कमी नहीं है, जो अपनी अभिलाषाओं को जो किसी कारण साकार न हो सही हो उसे कल्पना जगत में साकार करने का प्रयास करते हैं । शायद इसीलिये उनका स्वभाव अन्र्तमुखी हो जाता है । वे भले बहिर्मुखी होने का प्रयास भी करते हो पर अपने आपको ऐसा बना पाने में समर्थ नहीं हो पाते । अज्ञेय ने भी ऐसे ही नारी चरित्रों को अपने उपन्यासों के प्रश्रय दिया, जिनके अचेतन मन में दमित अभिलाषाओं की ज्वाला धधकती रहती है । वे इस ज्वाला का शमन करना चाहती हैं और करती भी हैं ।
नारी और तद्विषयक समस्याएं अज्ञेय के प्रायः सभी उपन्यासों में प्रमुख रूप से चित्रित हुई है । उन्होंने नारी के अन्र्तमन में झांकने का और उसकी अन्तःपरतों को उघाड़ने का प्रयास किया है । इसी के तादात्म में युगीन संदर्भ में नारी संबंधी नैतिकता.अनैतिकता, प्रेम.विवाह, यौन.स्वातंत्र्य आदि प्रश्नों को उठाकर नए नारी मूल्यों की स्थापना की जो उसके जीवन की सार्थकता, उसके व्यक्तित्व विकास, उसकी पूर्णता, आत्म.तुष्टि में सहायक बने । उनकी नारी पत्नीत्व की अपेक्षा नारीत्व, विवाह की अपेक्षा प्रेम और समाज की अपेक्षा व्यक्ति की महŸाा को मानते हुए परम्परागत सामाजिक मान मर्यादाओं की स्पष्ट रूप से अवहेलना करती है ।
अज्ञेय के साहित्य में नारी पूर्ण स्वतंत्रता की हिमायती दिखायी देती है । अज्ञेय नारी को मात्र नारी ही मानते हैं उसे नाते रिश्ते में समेटने को वे कतई तैयार नहीं । उनपके कथा साहित्य में नारी का व्यक्तित्व और अस्तित्व ही प्रमुख है, उन्होंने युगीन चेतना से संपृक्त ऐसी सजग और प्रबृद्ध नारी का अवतारणा की जो सतत नारीत्व की प्राप्ति मेकं संलग्न रहती है । नारी के व्यक्तित्व विकास में बाधक समाज सम्मत गतानुगति नैतिकमान मूल्य, परम्पराएं, धारणाएं और विधि निषेध उनकी दृष्टि में मूल्यहीन हैं । समाज व्यक्ति के निजी जीवन का निर्णायक नहीं है, इसलिए समाज का हस्तक्षेप अवांछनिय है । इससे उसके व्यक्तित्व विकास में बाधा पड़ती है । ‘शेखरः एक जीवनी’ में रेखा के माध्यम से वे कहते हैं, ‘मेरे कर्म का, सामाजिक व्यवहार का नियमन समाज करे, ठीक है, मेरे अंतरंग जीवन का दृनहीं । वह मेरा है । मेरा यानि हर व्यक्ति का निजी ।’
नेमीचन्द्र जैन का कहना है, ‘रेखा जैसी नारी हिन्दी कथा साहित्य में दूसरी नहीं है, वह हमारे आज के समाज के ‘अमानवीय नीति विधान के विरूद्ध तीखे किन्तु ऊपर से शान्त विद्रोह की मुर्ति है ।’ रेखा को पुरूष से कटुता मिली और समाज के नीति विधान से कष्ट ।’
दरअस्ल, अज्ञेय की स्त्री पुरूष में अपनी सार्थकता खोजती है, यथा -
‘एक बार मैंने मान से कहा था, क्या मेरे लिए लिख सकते हो.....यह दावा नहीं था कि मैं तुम्हारे जीवन का अर्थ और इति हूँ । अपने को अंत मानने का दुःसाहस मैंने नहीं किया......।’ (नदी के द्वीप)
‘मेरे लिए यह समूचा श्रीमतीत्व मिथ्या है, कि मैं तुम्हारी हूँ केवल तुम्हारी, तुम्हारी ही हुई हूँ....तुम्हीं मेरे गर्व हो, तुम्हारे ही स्पर्श से ‘सबल मम देह मन वीणा तन बाजे....।’ (नदी के द्वीव)
‘किसी तरह, कुछ भी करके, अपने को उत्सर्ग करके आपके ये घाव भर सकती तो अपने जीवन को सफल मानती ।’ (गौरा.नदी के द्वीप)
उपरोक्त दृष्टान्तों से स्पष्ट है कि अज्ञेय की नारी प्रकल्पना उसे पूर्ण स्वतंत्रता से मंडित नहीं करती । उसमें पुरूष मोह है, जो स्त्री को सदैव आश्रित (मानसिक संसार में तो अवश्य) देखना चाहता है । इतना अवश्य है, अज्ञेय ने नारी को ‘नैतिक रूढ़ियों’ के बंधन से, परम्परागत संस्कारों की बाध्यता से अवश्य मुक्त किया है । उनके रचना संसार में स्त्रीयाँ ‘साइमन द बुआ’ की शब्दावली में ‘सत्त आस्था में जीने वाली ही हैं , उनकी चरितार्थता का केन्द्र पुरूष ही है, पर हाँ इतना जरूर है िकवे भारतीय समाज की स्त्री को स्वतंत्रता के निकट लाते हैं और देशकाल की अग्रगामी चेतना को प्रकट करते हैं ।


http://www.sahityadarshan.com/Lekh.aspx

कहानी :संतोष श्रीवास्तव : नागफनियों के बीच

न जाने वह कौन सा संक्रंाति काल था जब कुमुद की मेडिकल की पढ़ाई समाप्त हुई थी और अमेरिका से कार्तिक भैया ने उसके और मां के लिये विजा, पासपोर्ट और हवाई टिकटों का इंतजान कर दिया था । बरसों से इंतजार करती मां का चेहरा दमक उठा था, ‘देर से ही सही अब हम नहीं रहेंगे यहां....वहां तुम अपना क्लीनिक खोलना और सुख और ‘शान्ति से भरी जिन्गदी जीना.....बहुत सहा हमने....बहुत ज्यादा...’
वह कहना चाहती थी, ‘क्यों मां तुम मुझे सागर में बूंद भर बनाना चाहती हो । क्यों चाहती हो कि मैं अपने टैलेंट को, अपने हुनर को यूं जाया कर दूं.....पर असमंजस में कुछ कह नहीं पाई ।’ इधर तो सब खत्म हो ही चुका है। पिछले महीने भैया ने आकर मकान बेचने की लिखा पढ़ी भी कर ली है, घर का फालतू सामान भी बेच दिया है। थोड़ा जरूरी सामान वो अपने सााि ले गये.....थोड़ा मां को लाने को कहा, ‘और जो बचे सब बेच कर आना, उधर इस सबकी जरूरत नहीं ।’
जरूरत होगी भी क्यों ? ये सब तो पापा के समय का वह आउट डेटेड सामन है जो अमेरिका जैसे भौतिक समृद्धिशाली महादेश में खपेगा नहीं । वह क्या जानती नहीं कि ‘वहां अपार्टमेंट होते हैं, वॉल टू वॉल कार्पेटिंग होती है । दीवारों पर तीज त्योंहारों परिचय देता रंग रोगन नहीं बल्कि पेपर चिपका होता है । तरह तरह कीआधुनिक सुविधाएं, कपड़े और बर्तन धोने की मशीन, माइक्रोवेव, बड़ा फ्रिज, कुकिंग रेंज, सोड़ा बनाने की मशीन, बॉटल खोलने की मशीन....इनके बीच फंसा आदमी भी एक मशीन.....नलों से निकल कर पानी की धार नीचे न जाकर ऊपर जाती है, लैफ्ट हैंड ड्ाइविंग है, घरेलू नौकर ढूंढे नहीं मिलेंगे, ‘भैया आखि क्यों तुम इतने प्रभावित हो वहां से ?’
‘क्या मां मीरा बाई पैदा करी है तुमने । लोग उस देश के सपने देखते देखते जिन्दगी गुजार देते हैं और इसे आसानी से मिल रहा है तो इतने नखरे !’
भैया के कड़वे वचन उसे कुरेदते नहीं बल्कि तरह आता है, भैया की सोच पर, मां की लालसा पर...कैसी आसान से पापा के बाद घर सहित उनकी सारी गृहस्थी बेच डाली है । पर मां का भी दोष नहीं । एक तो वे महत्वाकांक्षी महिला रहीं है, जो वे करना चाहती थी कर नहीं पाई । असफलता हमेशा उनका आंचन थामे रही, दूसरे पापा असमय चले गये और उनके जाने के बाद वे असहाय निरूपाय हो गई हैं । किसी ने उनकी पढ़ा नहीं बांटी, सब रो धोकर तेरह दिनों में लौट गये और चुप्पी साध ली जबकि जिन्दगी भर पापा की और से न तो कभी जायदाद में हिस्सा मांगा गया न किसी तरह की कोई सहायता । बल्कि पापा ही बुआओं की शादी में रूपया लेकर गये । चाचाओं की लिए भी नौकरी वगैरह की भागदौड़ की । पापा की सीमित गृहस्थी लेकिन असीमित आपसी लगाव । घर का हर कमरा हंयी, ठिठोली, प्यार, मनुहार से भरा होता । रात के खाने के समय का एक बड़ा हिस्सा उन चारो के ज्ञान को आपस में बांटने वाला होता । उस हिस्से से ही बड़ी शक्ति पाई है उसने हर तरह की परिस्थितियों से मुकाबला करने की, जझते रहने की । समय को हमेशा चुनौती माना उसने और इस तरह बड़ी उर्जा अर्जित करती रही वह । स्वभाव पापा का पाया...फकीरी...हर तरह से निर्लिप्त, लेकिन कार्तिक भैया हूबहू मां पर...इच्छा आकांक्षाओं का अंत नहीं । यह मानकर चलना कि यहां उनके टैलेंट की सही कीमत नहीं आंकी जायेगी सो विदेश प्रस्थान । ठीक उन्हीं क्षणों में वभी भी ठान बैठी कि मैडिकल की पढ़ाई के बाद यहीं अपने देश में...किसी पिछड़े इलाके में जाकर अपनी पढ़ाई को सार्थक करेगी । लेकिन यह बात उसने सभी से गुप्त रखी । हालांकि उसके फकीराना स्वभाव से परिचित मां अक्सर टहोका मारती, ‘न जाने कहां की संन्यासिनी आ गई हमारे घर में’ तो पापा हंसकर कहते, ‘तुम्हीं बहुत प्रभावित रहीं इस्कॉन से....और जाओ हरे रामा हरे कृष्णा मंदिर जहां मिस लारा भी ललिता बनकर गेरूआ साड़ी ब्लाउज पहने पीले बटुवे में अपना हाथा घुसाये हरे कृष्णा, हरे कृष्णा जपती हैं ।’


http://www.sahityadarshan.com/Story.aspx

पुस्तक समीक्षा : रमेश खत्री : एक अच्छा गाईड : राजस्थान में भ्रमण


राज्यों के पुर्नगठन की उहापोह में राजस्थान देश के सबसे बड़े भूभाग वाला राज्य बन गया, इसमें जहॉ एक ओर सांस्कृतिक विभिन्नता मिलती है तो वहीं दूसरी ओर बातचीत के लहजे में भाषा के स्तर पर काफी अंतर दिखाई पड़ता है कबीर के कथन - ‘‘ कोस कोस पर पानी बदले चार कोस पर बानी ’’ को साकार करते हुए इस प्रदेश ने राष्ट्ीय स्तर पर ही नहीं अपितु अन्र्तराष्ट्ीय स्तर भी अपनी विषेश पहचान बना ली है, देश के सबसे बड़े राज्य राजस्थान के विशाल भूभाग की भौगोलिक विविधता अदभूत है, जहॉ एक तरफ सूदुर पश्चिम मेंे रेत के धोरों का साम्राज्य पसरा पड़ा ह,ै जिसमें रेत के टीबों के बीच से निकलता अस्त होता सूर्य मन को मोह लेता ह,ै तो वहीं दूसरी ओर अरावली की पर्वत श्रृंखला राजस्थान के मस्तक का ताज है, किन्तुं दक्षिण का भाग प्राकृतिक दृश्यों से सराबोर है, हरी भरी पहाड़ियां, उन्नत शिखर, प्रपात, नदियों के संगम मनोहारी दृश्य उत्पन्न करते हैं । राज्य का पूर्वी भाग पहाड़ी, मैदानी इलाका है जिसका अपना अलग ऐतिहासिक महत्व है । कुल मिलाकर राजस्थान पर्यटन की दृष्टि से अपनी अलग ही पहचान रखता है ‘‘अतिथि देवो भव’’ और ‘‘पधारों म्हारा देस’’ की परम्परा का निर्वहन करता राजस्थान पर्यटन के मानचित्र में उभरता सितारा ही नहीं वरन एक प्रचण्ड सूर्य है । पर्यटन की दृष्टि को ध्यान में रखकर विगत दिनों वांड्.मय प्रकाशन जयपुर से बालकृष्ण राव द्वारा विरचित पुस्तक ‘‘राजस्थान में भ्रमण’’ प्रकाशित हुई ।

दरअस्ल राजस्थान में भ्रमण का विशाल क्षैत्र है, यहॉं की भूमि का एक एक कण गौरवमयी गाथाओं, शौर्यमयी कृत्यों, कलात्मक शिल्पों का अनुपम संग्रह है । यहॉं का सांस्कृतिक परिवेश जिनमंे स्थानीय मेलें, उत्सव, समारोह मन पर विशेष छाप छोड़ते हैं । यहॉं की मिट्टी में अपनेपन की गंध समाहित है इसी कारण देसी विदेशी पर्यटक आकर्षित होता चला आता है ।

समीक्ष्य पुस्तक ‘‘राजस्थान में भ्रमण’’ बालकृष्ण राव की पर्यटन पर पहली ही पुस्तक है, इससे पहले उनकी ‘‘भारतीय संस्कृति के संदर्भ कोष’’ प्रकाशित हुई थी । राव ने समीक्ष्य पुस्तक में हिन्दी मेंे पर्यटन संबंधी इतनी अच्छी जानकारी उपलब्ध करवा कर पाठकों की राजस्थान के प्रति गहरी दिलचस्पी जागृत करने की कोशिश की है ।
राजस्थान वस्तुतः रंग रंगीला प्रदेश है, यहॉ की सांस्कृतिक गरिमा देश में ही नही वरन् विदेशों में भी अपना परचम फेलाये हुए है, यहॉ का इतिहास चाहे वह जयपुर हो, जैैसलमरे, कोटा, बूंदी, धौलपुर, भरतपुर, या फिर चितौड़गढ़ या उदयुपर का हो स्वणिम अक्षरों में लिखा हुआ है, यहॉ की धरती वीर प्रसूता के नाम से प्रसिद्ध है । यहॉं के बहादुरों ने इतिहास को रचा ही नहीं वरन उसे नयी दिशा भी प्रदान की, राजस्थान के कलाकारों ने अन्र्राष्ट्ीय स्तर पर पहचान बनाई चाहे ग्रेमी अवार्ड विजेता प. विश्वमोहन भट्ट हो या फिर कालबेलिया नतृकी गुलाबो, लंगा बधुओं की कला का जोहर भी कम नहीं है । बीकानेर, जैसलमेर के कलात्मक झरोखें और जालियां जिन पर की गई कलात्मक नक्काशी देखते ही बनती है । यहॉं का बंधेज, लहरिया, चूंदड़ी, सांगानेर और बगरू प्रिंट वस्त्र उद्योग में अपनी पहचान बनाकर अन्र्राष्ट्ीय स्तर पर फेशन की दुनिया मे अपनी छाप छोड़ चुके हैं । यहॉ के कलाकारों द्वारा संगमरमर के पत्थरों पर की गई सुंदर नक्काशी देखते ही बनती हैै, राजस्थान में शताब्दियों पूर्व बने किले जिनमें भटनेर, सिवाना, शेरगढ़, गागरोन, जयगढ़, मेहरानगढ़ अपनी शौर्यगाथाओं के साथ पर्यटकोंं को आमत्रिंत करते हैं । समीक्ष्य पुस्तक में लेखक ने 13 अध्यायों में महत्वपूर्ण जानकारी समेटने की कोशिश की जिसमें वें सफल भी हुए, यहॉं का सांस्कृतिक परिवेश, पूजा स्थल, लोक देवता, संत, लोक मनोरंजन, लोकनाट्य, किले, वन्यजीव अभ्यारण- पक्षीविहार, हस्तशिल्प, होटल रेस्टोरेंट, एतिहासिक पर्यटन स्थल इत्यादि की विस्तृत जानकारी उपलब्ध करवाने का प्रयास किया है । राज्य के कुल 32 ज़िलों की ज़िलेवार ऐतिहासिक सांस्कृतिक जानकारी उपलब्ध करवाने का जो प्रयास लेखक ने किया वह उल्लेखनीय है ।


http://www.sahityadarshan.com/Books.aspx

1 comment:

  1. प्रिय रमेश खत्री जी
    आपका एक पोस्‍टकार्ड नया पथ के संपादक के नाम मिला। नया पथ पत्रिका पहले से ही वेबसाइट पर उपलब्‍ध है, आप उसे जनवादी लेखक संघ के वेबसाइट, www.jlsindia.org पर पढ् सकते हैं, होमपेज पर बांयीं ओर नया पथ मैगजीन का बटन है, उसे क्‍लिक करते ही मौजूदा अंक खुल जायेगा, आर्काइव में पुराने अंक मौजूद हैं।
    भवदीय
    चंचल चौहान
    संपादक

    ReplyDelete