अपनी बात मार्च 10
नैपथ्यलीला
विगत दिनों, जयपुर में साहित्य के नाम पर एक बड़ा तमाशा हुआ, जिसे कई मल्टी नेशनल कम्पनियों ने प्रायोजिय किया और साहित्य को एक ब्राण्ड की तरह प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया । इसी तरह के तमाषें यहा पर पिछले चार वर्षों से होते आ रहे हैं किन्तु इस साल इस तमाशे को राज्य की सरकार ने मान्यता प्रदान करते हुए मल्टी नेशनल कम्पनियों के बीच अपनी उपस्थिति दर्ज करवा दी । इस तमाशे की मुख्य प्रायोजक संस्था को राजस्थान की विभिन्न अकादमियों के बजट में कटोती कर उस राशी को जो कुल जमा दस करोड़ रूपये है इस संस्था को हंस्तातंरित कर दी । जिसके परिणाम स्वरूप कई अकादमियों को अपने आगे के कार्यक्रमों को निरस्त करना पड़ा । अखबारों में छपे आधिकारिक बयानों के आधार पर इस संस्था को इसलिये राषि हस्तातंरित की गई क्यों कि यह संस्था विदेशी पैसा लाने की क्षमता रखती है । आधिकारिक तौर पर तो यह भी कहा गया, ‘साहित्य उत्सव से जयपुर के पर्यटन को बढ़ावा मिलेगा, इसकी ब्राडिंग होगी ।’ आमीन ।
इसी तरह विगत दिनों दिल्ली की एक अकादमी के पुरूस्कारों को सेमसंग ने रविन्द्रनाथ टैगोर के नाम से हथिया लिया । विष्णु जी ने इस पर गहरी चिंता जाहिर की किन्तु.....वही ढाक के तीन पात ।
कुछ भी हो इतना तो सत्य है कॉरपोरेट कम्पनियां साहित्य, संस्कृति में अपना भविष्य तलाश रही है और यहां उन्हें काफी पोटेषिंल नजर आ रहा है।
बहरहाल, कॉरपोरेट जगत का फैलता जाल किस तरह से हमें अपने षिंकजे में कसता जा रहा है दृष्टव्य है।
रमेश खत्री
दूधनाथ सिंह : डायरी : क्रूरता का पड़ोसी कौन है ?
एक बजे रात ।
बनारस. कार से । पूर्णिमा थी । बादलों के बीच से झांकता हुआ चंद्रमा । ठण्डी हवा के झोंके । मैं अपना हाथ बाहर निकाल कर बार बार हवा में हथेली फैला देता हूं , हवा हथेली पर थपेड़े मारती है । कार क्या है, खटारा है । खड़ खड़, भड़ भड़ की आवाज होती है । सड़क भी खराब । पीछे डा. देवराज, विजयदेव नारायण साही, रामनारायण शुक्ल (कहानीकार नहीं) और मैं । आगे ड्ाइवर के पास काशीनाथ सिंह और शुकदेव सिंह । यह रामनारायण शुक्ल बड़े ‘वल्गर’ ढंग से माक्र्सवाद के बारे में बाते करता है । पता नहीं साही और डा. देवराज उससे बहस में क्यों उलझे हैं । मैं लगातार बाहर देखता चल रहा हूं । यह रा.शु. माक्र्सवाद में अभी नौसिखिया है ।
आगे से बार बार ट्कें आती हैं और कार की गति धीमी हो जाती है । सामने से आती बैलगाड़ियों में बंधे बैलों की आंखें दूर से ही कार की हेड लाईट में बड़े विचित्र ढंग से चमकती हैं । मुझे कुंवर नारायण का वह बिम्ब याद आता है, ‘अंधेरे की सुरंग में दौड़ती हुई ।’ ‘अंधेरे’ की जगह शायद ‘रोशनी’ है क्या ? अंधेरा नहीं है । बादलों के भीतर से छन कर आती उजास है । पेड़ हैं अनेक ‘शक्लें बनाते हुए । हर पेड़ का अपना व्यक्तित्व है । कोई एक दूसरे की तरह नहीं । और सड़क के पास आती, फिर दूर जाती गंगा की चैड़ी धारा है । हर जगह वही मेरे बचपन की देहाती शान्ति है । घर, गाय.गोरू चारपाइओं पर सोये लोग । गांव....खेतों में हिराई भेड़ों के झुंड । और सर्राटे के साथ भागता हुआ मैं ।
डा.गंगाधर पुष्कर :कविता
चलो साथी
चलो साथी ! दर्द की बस्ती में
मस्ती के गीत गाये
भूले भटकों को राह दिखाएं
आतंक के सौदागरों से
वतन को बचायें
धुएं धुएं से इस आलम में
उम्मीदों के चिराग जलाएं ।
चलो साथी तेज धूप में
गुलमोहर सा खिल जाएं
बदले समीकरण में
अपने ही बने हैं कौरव
आओ अर्जून बन तीर चलायें
चाहतों की पाबंदी लगी है
संवेदनाओं का ज्वार लायें
ममता की बगिया को खिलायें ।
चलो साथी ! परिवार की पतंग को
सांसों की डोर से उड़ायें
उम्र के साथ बड़ा होना लाजिमी है
बड़े होने के फर्ज को बडप्पन से निभायें
जीवन को झुलसा री गर्म हवायें
सावन की घटा बन छायें । ,
चलो साथी । नव जागरण के गीत गायें
आत्ममुग्ध जन को आईना दिखायें
गैरों को अपनाए ! रूठों को मनायें
परिंदों सा चहचहायें
बंजर में फूल खिलायें ।
खुदगर्ज जमाने में
थरथराने लगा है तन मन
लड़खड़ाने लगी है धड़कन
दिमाग को नहीं, दिल को गुदगुदायें
स्नेहिल स्पर्श दें
रोते हुए अबोध को हंसाएं !
दिलों का आयतन कम हुआ है इन दिनों
चलो साथी ! दिलों को फैलाकर बसायें ।
रमेश खत्री : पुर्नपाठ के दौरान लिए गये नोट्स : शेखर के बहाने अज्ञेय की पड़ताल
‘शेखरः एक जीवनी (अज्ञेय का) हिन्दी का प्रथम उपन्यास है, जिसमें शिशु मानस के सपनों को, फ्रायड के शब्दों में ‘आनंद प्रधान’ जीवन की झांकियों को, उसके कुतुहल और जिज्ञासाओं को, उसकी स्वाभाविक प्रवृतियों पर समाज तथा माता पिता के व्यवहार या यों कहिये ‘रियलिटि प्रिंसिपल’ के संपर्क में उत्पन्न दमन को, मानसिक ग्रंथियों को तथा उसके जीवन व्यापी प्रभाव को कला क्षेत्र में लाने का प्रयास किया गया है । इसमें ‘आत्म’ और ‘अन्य’ के रिश्तों की समस्या को पैदा करके अज्ञेय ने ‘अस्तित्व’ के वृहद प्रश्न को भी खड़ा करने का प्रयास किया है । अज्ञेय की अनुभूति, बोध, कल्पना, अभिव्यक्ति इस समस्या को तलाशती है और आकार देती है । दरअस्ल यह समस्या उनका पूर्वाग्रह भी है, उद्विग्ता कारण भी और उनके सृजनात्मक पुरूषार्थ का उत्प्रेरक भी ।
साहित्य अस्तित्व का रणक्षेत्र न होकर, अस्तित्व के सहोदर रूप में उभरता है, इस अर्थ में ‘शेखर एक जीवनी’ उनकी अपनी आत्म परिभाषा के माध्यम से उपन्यास मात्र को भी परिभाषित करने का प्रयत्न करता है । यह उस बिन्दु से आरंभ होता है जहां पर जीवन का लगभग अंत हो चुका होता है । ‘शेखर’ अपनी सुनिश्चित आसन्न मृत्यु के दरवाजे पर खड़ा अपने विगत जीवन का ‘प्रत्यवलोकन’ करते हुए जीवन रच रहा है । इसीलिये यह ‘जीवन’ के अन्त और ‘जीवनी’ के आरंभ का बिन्दु है । इसे हम दूसरे शब्दों में ‘मृत्यु’ और ‘जीवनी’ दोनों का आरंभ बिन्दु भी कह सकते हैं ।
वास्तव में ‘शेखरःएक जीवनी’ एक उपन्यास है या कि जीवनी का ही एक छद्म रूप । स्वयं अज्ञेय ने भी बहुत जोरदार ढंग से इसके आत्म जीवनी होने का प्रत्याख्यान किया है । यहां पर कई बातें विचारणीय है मसलन नाम को ही लें ‘शेखर’ का पूरा नाम है ‘चन्द्रशेखर हरिदत्त पंडित’ और ‘अज्ञेय’ का ‘सचिदानन्द हीरानंद वात्स्यायन’ । शेखर के पिता पुरातत्वज्ञ हैं, और ‘अज्ञेय’ के पिता भी पुरातत्वज्ञ और पुरा लेखों के शोधक थे । अज्ञेय के पिताजी को अपनी नौकरी के सिलसिले में देश के एक कोने से दूसरे कोने में जाना पड़ता था, तो वहीं शेखर के पिता का तबादला भी कश्मीर, लाहौर, लखनऊ, सारनाथ, पटना आदि स्थानों पर होता रहता है । इस तरह हम देखते हैं ‘शेखर’ और ‘अज्ञेय’ के देशाटन की परिस्थितियां आपस में काफी मेल खाती है । इसी तरह से अज्ञेय भी सशक्त क्रांति मेंे हिस्सा लेते हैं और शेखर भी । जेल दोनो जाते हैं । दोनों का ढील ढोल और चरित्र बहुत कुछ समान है । ‘आत्मनेपद’ में अज्ञेय लिखते हैं, ‘वे बचपन से ही दुश्मन को शिकस्त देने के लिए अपने सिर का शस्त्रवत प्रयोग करते रहे हैं ।’ (आत्मनेपद 189) तो वहीं उपन्यास में ‘शेखर भी एक स्थान पर ऐसा ही करता है । (भाग 1@55)
निश्चल :व्यंग्य : जब मच्छर ने स्वतंत्रता का अर्थ समझाया
स्वतंत्रता दिनव की पूर्व संध्या पर एक मच्छर मरे गाल पर बैठकर मेरा खून चूस रहा था । उसकी बदकिस्मती कि मैंने उसकी टांग पकड़ ली और कहा क्यूं बे, शरम नहीं आती, मेरा खून तो वैसे भी चुसा चुसाया है, उसमें तुझे भी चैन नहीं । अरे नाशपीटे तुझे नेता, अभिनेता, भिखारी, मदारी, सेठ, साहूकार नहीं मिले सो कमबख्त एक लिखने पढ़ने वाले का खून चूस रहा है । जानता नहीं अभी एक आधुनिक मुक्त छंद सुनाकर तुझे जीवन के बंध से मुक्त कर दूंगा । मच्छर मुक्त छंद कविता के नाम से ही कंपकंपाने लगा और बोला, ‘सारी सर, आप चाहो तो वैसे ही मुझे मार डालो पर कविता सुनाकर.....न....न...न...।’ मैंने कहा, ‘ठीक है पर मैं तुझे मारूंगा जरूर ।’ वो बोला, ‘मेरा कसूर क्या है ?’ मैनंे कहा, ‘अबे घोचू, कसूर पूछता है । अबे मेरे गाप पर तू खून चूसेगा तो क्या मैं तुझे दूसरे गाल पर बिठाउंगा । अपना खून चुसाउंगा !’ वो घबराकर बोला, ‘पर सर कल आप स्वतंत्रता दिवस मनाने वाले हैं और आज आप मेरी स्वंतत्रता पर अटैक कर रहे हैं । ये तो घोर अन्याय है ।’ मैं भी ताव मेंे आ गया, मैंने कहा, ‘अबे स्वतंत्रता तो ठीक है, पर वो हम इण्डियन मनुष्यों की है तुम मच्छरों की नहीं । पर तुम नासपीटे फिर भी सब जगह घुसे फिरते हो ।’
कृष्णा अवस्थी : कहानी : तिनके का सहारा
यह समाचार जंगल की आग की भांति सब ओर फेल गया कि शीला की मां ने पिछले दिनों शादी कर ली । यह सब अविश्वसनीय लगा । पर जब उस गांव की स्थानीय महिलाओं ने इस बात की पुष्टी की तो मैं चुप हो गई सोचा हो सकता है यह सब सच ही हो ।
बच्चों की हाजरी लगाते जब‘शीला का नाम पुकारा तो सबने कहा, ‘जी ! वह आज छुट्टी पर है ।’ उसकी मां ने‘शादी कर ली है । आज वह मकान बदल रहे हैं, नए घर जाएंगे, ‘एक बालिका उत्साह से बोली ।’
मन में आया कि इस कहानी की जह में जाकर सारी बातों का पता लगया जाए । कई दिनों से सुशीला की मां दिखी नहीं थी, अगर यही सत्य है तो उसने ऐसा किया क्यों ? क्या विवशता ही होगी ?
एक दिन वह स्वयं ही धूम केतु सी कहीं से प्रकट हो गई । मैंने उसे कुरेदना उचित नहीं समझा उसने स्वयं ही प्रसंग आरम्भी कर दिया । उसकी एक बेटी‘शीला कक्षा पांच में व लड़का असीम चैथी कक्षा में था । दोनों पढ़ने में अच्छे थे । शनिवार को बाल सभा में ‘शीला ने अपनी गोरखा भाषा में जो कहानी सुनाई थी उसकी वह भाव भंगिमा व अपरिचित से बोल गुद गुदा गए थे । एक बार ‘राधा न बोले, न बोले, न बोले रे ’ इस भजन पर राधा कृष्ण बन कर सभी को मोह लिया था ।
बहिन जी यह दो बच्चें हैं इनकें सर्टीफिकेट मैं ले आई हूं । यह है जंग बहादुर तथा यह लड़की है अमिता ।
‘बच्चों ! मैडम को नमस्ते करो ।’
स्कुचाते हुए दोनों ने हाथ जोड़ दिए, ‘नया परिवेश उन्हें सहज होने में कुछ समय तो लगेगा ही।’ मैंने सोचा ।
‘दोनों का ेअब यहीं पढ़ना है, इन्हें दाखिल कर लें ।’ अच्छा अब मैं चलती हूं । छुटका घर में ही छोड़ा है पड़ोसन को बिठा कर आई हूं उसके पास ।
‘शीला की मां सांवले रंग की थी । नैन नक्श बहुत सुन्दर जैसे बड़े कौशल से तराशे हों । वह बड़ी आकर्षक थी लाल साड़ी में हरे ब्लाउज में ही प्रायः दिखाई देती थी । कल तक वह दो बच्चों की मां थी व आज पांच बच्चों की मां बन गई थी ।
डसका पति नौकरी की तलाश में घर से जो गया फिर वही का ही हो कर रह गया । सुनने में आया कि ओर विवाह कर लिया है । अब इनकी कभी सुध नहीं लेता जा कर कभी फूटी कौड़ी तक नहीं भेजी । बड़ी कठीनाई से ‘शीला असिम की पढ़ाई उसने जारी रखी कुछ उधार भी हो गया दुकानदारों ने कहा पहले पिछला हिसाब ठीक करो तभी ओर देंगे । उन्होंने उधार देना भी बंद कर दिया वह जानते थे कि इसके पास पैसे आएंगे कहां से ? कभी कभी तो बच्चें प्रायः भूखे ही सो जाते थे पर कभी किसी से बात तक नहीं की फिर भी पढ़ाई में सबको पछाड़ देते ।
Saturday, May 8, 2010
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