Thursday, April 22, 2010

खुद को समझने का समय

वर्तमान समय के उलझावो, तनावों के साथ ही युवा पीढ़ी के मानस में पनप रही है बाजारवाद की नव कोंपले पूर्ण रूप से पल्लवित और पुष्पित हो चुकी है । आज उनके मन बाजार ठाठे मारकर हंसता नजर आता है । बरसों की पष्चिमी मेहनत मानों रंग लाने लगी हो । बेढंग और निर्मम समय की छीछालेदर करता प्रोढ़ अपने आपको इस भीड़ में अकेला महसूस कर रहा है । वर्तमान पीढ़ी जहां एक ओर संत्रास, एकाकीपन, ऊब, भावनात्मक खोखलेपर को भोग रही है तो वहीं दूसरी ओर उसके मन में अदृष्य भय कुलांचे मारता है और इसी के वषीभूत वह दिन रात एक किये हुए है, रेस के घोड़ों की तरह । हर कोई एक दूसरे से आगे निकल जाने की होड़ में भागे जा रहा है । इस दोड़ ने वर्तमान समाज में एक नई सुगबुगाहट को जन्म दिया है और नतीजन परिवार विश्रृखलित और विखंडित होते जा रहे है ।
कहते हैं भाषा भावों की संवाहक होती है । निज भाषा में ही कोमल
भावों का सही सम्प्रेषण किया जा सकता है किन्तु यदि किसीको उसकी जमीन से काटना है तो उससे उसकी भाषा छीन लो । एक सोची समझी रणनीति के तहत हमारी युवा पीढ़ी से उसकी जबान छिनी गई और उसके मामने केरियरिज्म का एक ऐसा सुनहला जाल बुना गया, जिसमें सब कुछ गड्मड् हो गया । और हमारे हाथ में बचा धुंध और धुंआ जिसके पार दिखता है तो केवल और केवल बाजार दिखता है ।
अन्तर्राष्ट्यि राजनीति का कपट हमारे सम्मुख ठोठे मारकर हंस रहा है और हम उसके सम्मुख बौने और नपुंसक साबित हो रहे हैं । लेकिन विचारों की सुगबुहाट समय सापेक्ष है और वह लगभग षुरू हो चुकी है, जिसके आलोक में दूर तक देखा जा सकता है । एक नई सुबह को संवारने में लगी युवतम फोज सारे छल छदमों को तोड़कर अपनी रचनात्मकता से बांझ हुए विचारों में नवस्फुरण पैदा करेगी । यही विष्वास हर सवाल का जवाब होगा और हर कसौटी पर खरा उतरेगा ।

रमेष खत्री

भीमसेन त्यागी : डायरी : आत्ममंथन
19 सितम्बर, 1986

अभी अभी नई तारीख षुरू हुई है । मैं इसके इंतजार में था, बल्कि घात में । जैसे षिकारी अपने षिकार की घात में रहता है । षिकारी कौन है और कौन षिकार ? षिकारी और षिकार भी खुद मैं ही । अपने को हताहत करने और विजय दर्प से सुस्कुराने की यह कुटिल चेष्टा पिछले इक्यावन साल से चल रही है । आज मेरा जन्म दिन है और मैं इसे मरण दिवस की तरह मनाने के लिए विवष हूं । कल सुबह अलका से साथ मोहन के यहां गया था । लगभग पूरे दिन वहीं रहे । भाभी से ढेर सारी बातें हुईं । बोलीं, कल तो आपका जन्मदिन है, भाई साहब ?
‘कैसा जन्मदिन, भाभी’ मेरे मुंह से सहज ढंग से निकला, ‘अब तो मरण दिवस का इंतजार है ।’
भाभी ने कोई उपहार नहीं दिया और वह बहुत दुखी हो गई । लेकिन इसमें दुखी होने की क्या बात ! जन्म जितना सत्य है, उतना ही मरण । वह मुक्ति का माध्यम है । मरण न होता तो जीवन कितनी बड़ी सजा, कितना बड़ा बोझ बन जाता ? उस बोझ से मुक्ति का एक मात्र एक मात्र उपाय मरण है । फिर उसके लिए षोक क्यों ? लेकिन ष्षोक तो फिर भी ष्षोक होता है । वस्तुतः शोक मरण एवं मृत्यु प्राप्ति के लिए नहीं, भावनाओं तथा सुख सुविधा के उन सूत्रों के लिए है, जो उस व्यक्ति के साथ जुड़े थे और अब झटका खाकर टूट गए ।
पिछले दो वर्षों में जो कुछ हुआ, उसने जिंदगी की सार्थकता पर न जाने कितने प्रष्न चिन्ह लगाए और उनके उत्तर में न जाने तिना लावा भीतर ही भीतर उमड़ता रहा । इस मंथन में जीवन उसकी कोमलता, सौंदर्य एवं सुगंध के साथ साथ मृत्यु उसकी वक्रता, तीखापन और विरूपता भी मथी जा रही है । और यूं , जिंदगी और मृत्यु के बीच का फासला सिमटता निबटता रहा । आज मेरे लिए मृत्यु उतनी अजनबी नहीं है, जितने कुछ वर्ष पहले हुआ करती थी ।
लगता है, जिंदगी की पूरी बिसात ही उलट गई । तमाम मोहरे खिंड मिंड गए हैं । जैसी कोई भयानक भूचाल आया हो और कुछ ही क्षणों में ही पूरे भूमंडल को अस्त व्यस्त कर गया हो । मेरे भीतर और बाहर, सब कुछ टूटा और बिखरा पड़ा है । लाख कोशिश करता हूं, इसे समेटने की जितनी कोषिष करता उतना ज्यादा बिखराव । आखिर इस रेगिस्तान का कहीं अंत है ?
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रमेष खत्री : पुर्नपाठ के दौरान लिए गये नोट्स : वे दिन

साहित्य समय की सीमा को लांघकर भविष्य की ओर उर्ध्वमुखी होता है । किसी भी रचना के आइने में रचिता की दृष्टि तथा पात्रों में उसकी झलक दिखाई देती है । ‘वे दिन’ निर्मल वर्मा का पथम उपन्यास है । यह क्रिसमस के दिनों की गाथा समेटकर हमारे सभ्मुख ऐसे पात्रों को लाता है, जिनका वर्तमान युद्धोत्तरकालीन अतीत की विभीषिका पूर्ण स्थितियों के कारण अवसाद, भय तथा एकान्तिक हो चुका है । यहां पर अतीत की भयानका पात्रों को वर्तमान में भी भयग्रस्त किये हुए है, परिणामतः वे मानवीय संबंधों के संदर्भ में मात्र व्यक्तिवादी प्रवृति का ही प्रदर्षन करते हैं ।
दरअस्ल निर्मल वर्मा के इस उपन्यास में बदलते मानवीय रिष्तों, युग की विसंगतियों और अकेलेपन से उद्भूत विषेष मनोवृति के नये आयाम दृष्यमान हैं । इस उपन्यास के लगभग समस्त पात्र ही अपने अकेलेपन की मनोवृति से जूझकर आगे बढ़ते हैं । कथानक मैं का दुर्भाग्य यह है कि इस अकेलेपन के कारण उसके जीवन में ऐसी रिक्तता आ गयी है, जिसकी पूर्ति किसी भी प्रकार संभव नहीं है । इसी कारण उसे जीवन एकदम बेमतलब लगने लगता है । अपने अकेलेपन से पीड़ित होकर श्रीमती रायना से उस रीतेपन का वह भरना चाहता है । कभी वर्तमान में और फिर बाद में अतीत की जुगाली करके । श्रीमती रायना भी अकेली ही है, वह कभी अपने पति जाक के साथ प्राग आयीं थी । अब दोनों अलग हो गये हैं । पुत्र मीता को दोनों बांट लेते हैं । पिछले साल छुट्टियों में वह जाक के संग था । उसी के साथ युगोस्लाविया गया था । अब पिछले कुछ महिनों से रायना के साथ रह रहा है । टी.टी. अपने अकेलेपन में बहुत ऐग्रेसिव हो जाता है । उसकी मां बहुत अकेली है । बढ़िया बात यह है कि इस उपन्यास का हर पात्र दूसरे के लिए अंधेरा है ।

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कुमार अम्बुज : कविता

अतिक्रमण

अतिक्रमण के समाज में जीवित रहने के लिए
सबसे पहले दूसरे के हिस्से की जगह चाहिए
फिर दूसरे के हिस्से की स्वतंत्रता

अनंत है अतिक्रमण के विचार की परिधि
इसलिए फिर दूसरे के हिस्से का जीवन भी चाहिए
वासनाएं नए क्षेत्रों में करती है घुसपैठ
सिद्धांत और सुभाषित बदलने लगते हैं हथियारों में

समुद्र की तरफ
अंतरिक्ष की तरफ
पालात की तरफ
दसों दिषाओं में लालसाएं मारती हैं झपट्टा

फिर मारने की चीज के बारे में लंबे प्रचार के बाद
तय कर दिया जाता है कि वह जचाने के चीज है
जैसे जिसके पास अस्त्र है वही अमर है

फिर मनुष्य ही करते हैं
मनुष्यों पर अतिक्रमण
घेरते हुए खुद को वस्तुओं से
आसक्ति की चाषनी में वे पागते चले जाते हैं
एक नया संसार
जिसमें मानवीय दिखाता हुआ हर उपक्रम
किसी नयी वस्तु को ले सकने का सामर्थ्य बताता है
कितना दबाया हुआ है
दूसरे के जीवन का रकबा
और पृष्ठभूमि में से झांकती है कितनी वस्तुएं
इन बातों से ही फिर बनने लगती है
समाज में आदमी की आदरणीय पहचान ।


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रमेश खत्री : पुस्तक समीक्षा : ‘‘तटबंधों के सैलानी’’’

हम सदियों से सांस्कृतिक विखण्डन को सहते आये हैं, इसी के चलते विगत कुछ वर्षों से दलित विमर्ष और स्त्री विमर्ष का झंण्डा बुलंद करता साहित्य प्रकट होने लगा जिसने हमारी सोच को एक अलग दिषा में मोड़ने की कोषिष की नतीजतन हमारे वर्तमान जीवन में काफी उथल पुथल शुरू हो गई । हमारा समाज(परिवार) विखण्डन के कगार पर पहुँच गया और हम लगातार प्रगतिषील बने रहने का तमगा लिये दर दर भटकने को विवष हो गये । निंसदेह हमने एक नया बाज़ारवाद हमारे बीच पैदा किया किन्तु इस दौड़ में हमारे संबंधों का महिन ताना बाना अपने आपमें उलझता चला गया और हमें पता ही नहीं चला । इक्कीसवीं सदी के आते आते सामाजिक विखण्डन के स्पष्ट चित्र हमारे सम्मुख प्रकट होने लगे, अब आज की युवा पीढ़ी सामाजिक रिष्तों को इतना तवज्जो नहीं देती जितना कि अपने केरियर को । आज हर आदमी व्यक्तिवाद से ग्रसित हो केयरिस्ट हो गया है । कुछ इसी तरह के सवालों से जुझता अजित गुप्ता का उपन्यास ‘सैलाबी तटबंध’ विगत दिनों राधाकृष्ण पब्लिकेषन दिल्ली से प्रकाषित हुआ । अजित गुप्ता का यह पहला ही उपन्यास है किन्तु इसने साहित्य के दरवाज़े पर अनचाहे ही दस्तक दे दी है ।
समीक्ष्य उपन्यास ढाई सदी बाद यानि कि सन् 2151 की जीवन स्थितियों का काल्पनिक संसार हमारे सम्मुख रचता है और इस ढाई सदी के बाद भी मात्र सामाजिक विखण्डन के अलावा कुछ भी नज़र नहीं आता । चारों तरफ टूटन और एकान्तिक जीवन पसरा नज़र आता है । जिस तरह की फैन्टेसी ‘सैलाबी तटबंध’ रचना चाहता है वह शायद पूरी तरह से साकार नहीं हो पाती क्योंकि लेखिका ने इस काल्पनिक तेईसवीं सदी में भी केवल आदमी की आदिम उच्छृंखला को ही महत्व दिया न कि उस समय के संभावित वातावरण को पैदा करने का प्रयास किया । हालाकिं उन्होने कोषिष जरूर की परन्तु पूरी तरह से उस समय का तकनिकी संसार रच नहीं पाई । उनकी कल्पना मात्र पारिवारिक विघटन पर ही अटक कर रह गई और वें स्त्रीयोचित दृष्टि से देखने को विवष हो गई और यह कृति भी स्त्री विमर्ष के खाते में चली गई ।

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