Saturday, January 16, 2010

दिसम्बर 09

समय को नाथने की कवायत
अपनी बात

आदमी की नीयति इस दुनिया में अपने स्तर पर अपने लिए अच्छे या बुरे समय का चुनाव करने की नही है समय को अपने स्तर पर आत्मसात करने भर की है । महानदार्शनिकों की चिंता का विषय रहा है, `समय को अपने स्तर रांदने का´ । सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक और व्यक्तिगत उथल पुथल के बीच महान व्यक्तियों की सोच हमेश उध्र्वमुखी रहती आई है । समयाघारित परिस्थितियों का भांपकर उन्होंने सोच के नये केन्द्रबिन्दू निर्धारित किये और उस पर चलकर सफलता भी हासिल की फिर चाहे कबीर हो या मीरा, तुलसी हो या सूर सभी ने परिवर्तन की आहट को एक सा अहसास किया और राजनीतिक, धार्मिक और सामाजिक उथल.पुथल में अपने विचारों का ही नहीं वरन् अपने जीवन का भी हव्य किया । कई.कई विचारक तो अपना सर्वस्व होम कर परिवर्तन की आंधी में सड़क पर उतर आये और आमजन के कांधे से कांधा मिलाकर अपनी उपस्थिति दर्ज कराई । इसी सबके चलते एक अच्छे समाज के निर्माण के उनके स्वप्न को बल मिला और उन्होंने अपने जीवन को साकार पाया ।
वर्तमान समय में जिस तरह से समाज में भ्रष्टाचार, रक्तपात, चोरी.डाके, लूट.पाट, कुकर्म और सामाजिक कुरीतियों का बोल.बाला है । ऐसे समय में समाज और लोगों का भला चाहने वाले विचारकों की सख्त आवश्यकता है जो आगे आकर नई दिशा की ओर ईशारा करे और जीवन को सुखमय, शान्तिमय बनाने के रास्तों पर आमजन को न केवल अग्रसित करे अपितु स्वयं उनके साथ कदम से कदम मिलाकर चले ।
वैसे तो ढोंगी बाबाओं से यह संसार अटा पड़ा है जो अपनी अपनी दुकानें सजाये बैठे हैं और मावनता के मंत्र को धारण करने का प्रदशZन करते नहीं अघाते । जबकि उनके जीवन का मुख्य लक्ष्य भौतिक सम्पदा एकत्रित करने के अलावा कुछ नहीं होता । छद्म मावनता का बीज उनके मानस में कुलबुलाता तो है जिसे वे व्यावसायिकता में तब्दील कर लेते हैं ।
वर्तमान वैश्वीकरण और भू मंडलीकर के दौर में विचारों के अबाध विस्तार और समानान्तर विकास के लिए, लोक संस्कृति और उसके अस्तित्व को बचाने के लिए बाजारू चुनौतियों के खिलाफ खड़ा होने की जरूरत अत्यन्त बलवती हो गई है और युवा पीढ़ी को इस राह पर लाने के लिए लोक लुभावनता और रोमान का संज्ञान लोक संस्कृति की विषयवस्तु को हथियार की तरह इस्तेमाल करने की जरूरत आन पड़ी है ।
इस वर्ष के जाते.जाते हमें आकन करना होगा, `हमने इन तीन सौ पैसठ दिनों में अपने लिए कितना समय जाया किया और लोक के लिए कितना उपयोग किया । यदि हम इसमें तालमेल नहीं बैठा पाते तो जीवन को अकारथ ही समझना ।´ बेशक हम सजाये रंगोली आगत के लिए किन्तु जिसने हमारे साथ इतना लम्बा अरसा बिताया उसके आचार व्यवहार को भी कसोटी पर परखने की आवश्यता है, । हमें समय को तो नाथना ही होगा, तभी हम एक सुखद कल की कल्पना कर सकेगें ।
रमेश खत्री

प्रेम कविता :एक कवि की नोट बुक : मेरी दिनांकिता (डायरी) में किसी सूफी कवि की एक कविता लिखी है । पता नहींकब इसे, किस किताब या पत्रिका से उतारा था । कविता के नीचे कवि का नाम भी नहीं है ।
http://www.sahityadarshan.com/Diary.aspx

रमेश खत्री : नदी के द्वीप : कितनी नदी कितने द्वीप : नदी के द्वीप´ अज्ञेय का दूसरा उपन्यास है । स्वातंत्रोत्तर युग के प्रणीत अज्ञेय पर इस उपन्यास में जीवन की यथार्थता को प्रभावशाली ढंग से चित्रित न कर पाने का इल्जाम लगाया जाता रहा है ।
http://www.sahityadarshan.com/Lekh.aspx

संदीप श्रोत्रिय : कविता : बिना थके एक चिड़िया उड़ते http://www.sahityadarshan.com/Poems..aspx

पुस्तक समीक्षा : चिल्लर चिंतन :एसा मानने में
http://www.sahityadarshan.com/Books.aspx

कहानी : सुषमा अग्रवाल : शापिंग काम्पलेक्स शापिंग काम्पलेक्स के सामने आकर एक कार रूकी । लाल रंग की साड़ी पर बाजुकट ब्लाउज पहने, आंखों पर धूप का चश्मा लगाये उस महिला की उम्र ३२-35 वर्ष के लगभग थी । लेकिन चेहरे पर चमक और मेकअप से वह कम उम्र की नजर आ रही थी ।
http://www.sahityadarshan.com/Story.aspx

व्यग्य : संकट में आम आदमी :नंगे आदमी से खुदा डरे अर्थात आम
http://www.sahityadarshan.com/Comment.aspx

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