Friday, December 4, 2009

साहित्य दर्शन अक्टूबर २००९

समय के मर्म पर दस्तक
अपनी बात



आज के इस हाहाकारी दोगले समय में जहां विदेशी पूंजी अपना नंगा नाच दिखा रही है और बाजारवाद अपने परचम फहराता हुआ हमारे बीच के संबंधों लगातार कुतर रहा है । वह हमें धकिया रहा है एक व्यक्ति परिवार की धुरी में जहां हमारी सकारात्मक सोच भी हाशिये पर धकेली जा रही है । साहित्य के विभिन्न आयामों में पसरा पड़ा है गहरा पैथास जिसकी सांय सांय संस्कृति और लोकजीवन को लगातार कुतर रही है । वस्तुत: यह समय संबंधों की धूरी पर लगातार हमले कर रहा है और उन्हें बौना साबित करने के प्रयास में लगा है ।

ठीक इसी समय जब रौंदी जा रही है संबंधों की फसल , किसान आत्महत्याएं करने को विवश है, दैनिक खाद्यान्नों का मूल्य आसमान से बातें कर रहा है और उन्हीं वस्तुओं के उत्पादक सही मूल्य की दरकार करते हुए सड़कों पर उतर आए है । वर्तमान समय ने यह कैसा घिनोना रूप अिख्तयार कर लिया है, समझ से परे है.
आज के इस वैश्वीकरण और भूमंडलीकर के युग में जब हम पूरी धरा को एक गांव में तब्दील करने के ख्वाब देखते हैं तो बाज़ार का मनोविज्ञानिक दबाव हमें हमारी संस्कृति के लोप होने की आशंका से भी आविर्भूत है और हम बिना सोचे समझे बाजार की आवश्यकताओं की भेड़ चाल में झोक दिये जाने को विवश नजर आते हैं । परोसे गये विचार हमारी संस्कृति से तो निकले हैं पर इन्होने पिश्चम का रूख अख्तियार कर लिया है और उनकी ही लोलुप नज़रों ने इसमें भर दी है बाज़ार की चाशनी, इसी चाशनी में ताई यह नवविचारधारा लोक लुभावन मुहावरों के साथ नए लोक को हमारे सामने उकेर रही है ।
दरअसल, यह संज्ञान का विषय है और काफी सोच विचार के बाद इस पर कदम बढ़ाने की जरूरत है, वरन् इसकी फिसलन में गहरे तक रपटते जाने का अंदेशा प्रबल है । हमारी सामूहिकता, समृद्धता और परम्पराओं का ह्वास है । आज हमें सर्वथा नए दृष्टिकोण से सोचना होगा और समय की नब्ज को टटोलकर उसके मर्ज का जायजा लेने की कसमसाहट को अपने अंतस में महसूसना होगा तभी हम एक बेहतर कल युवा पीढ़ी को सौंप पाएंगे, वर्तमान समय की परिक्रमा करते हुए हमें उसके साथ निर्ममता से कदमताल करना होगा तभी इस बेढंग और निर्मम समय का नंगा सच अपनी खाल को उतारकर हमारे सम्मुख मेमना बन पायेगा ।
और अंत अक्टूबर 09 का अंक काफी विलम्ब से दे पाने का हमें खेद है इस बीच कई पाठकों के काल लगातार आते रहे, पर अपनी व्यक्तिगत विवशताओं के चलते समय पर अंक अपलोड नहीं हो पाया सो नहीं ही हो पाया और अब जाकर यह निर्धारित आकार में आपके सम्मुख है, आप अपने विचारों से इसे जरूर नवाजियेगा प्रतीक्षा रहेगी ।
रमेश खत्री.



डायरी : राकेश वत्स - यादों के राजहंस

कहानी : डॉ पूरण सिंह - मेरी माँ बनोगी

कविता : सुदीप बनर्जी - शब गश्त और हर चीज की तरह सर्द है चींटी का

लेख : अनिल मिश्र - वैश्वीकरण के शिकंजे में लोक संस्कृति

पुस्तक समीक्षा : रमेश खत्री
- स्त्रीयोचित गहन अनुभूतियों की कविताएं

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