Monday, August 2, 2010

अतीत की सलीब पर टंगा प्रश्न
अपनी बात अतीत के प्रेत हमेशा वर्तमान को लील जाते हैं । ठीक ऐसा ही इस उन्निदा समय में हुआ आज जब सब कुछ बिकाऊ है, आदमी की आस्था और उसका मस्तिष्क यहाँ तक की उसके अंग प्रत्यंग भी । इन सबका व्यापार तो खुले तौर पर फल फूल ही रहा है और उसमें लगा है दुनिया का उर्वर मस्तिष्क । हम अक्सर देखते आये हैं कि रसूखदार लोगों को बचाने के लिए कितने प्रपंच रचे जाते हैं, पूरी की पूरी व्यवस्था उसके इर्द गिर्द घुमने लगती है आज इसकी परत दर परत उघड़ने लगी है तो तथ्य चैकाने वाले सामने आ रहे हैं । लगभग पच्चीस वष पहले भोपाल जैसे महानगर को गैस के चैम्बर में बदल देने वाली घटना घटित हुई थी और उसं से लेकर आज तक साहित्य में इस घटना को लेकर कोई विशेष तवज्जो नहीं दी गई, जबकि साहित्यकार वामपंथ, जनवादी, सर्वहारा और ऐसे ही न जाने कैसे कैसे जुमलों का प्रयोग करते रहते हैं किन्तु उनके मन मस्तिष्क को इस हृदय विदारक घटना ने तनिक भी झकझोरा नहीं और अब जब इस घटनाक्रम कर पटाक्षेप न्यायिक रूप से भी हो गया तब भी किसी के कान में जू तक नहीं रेंगी । देश में निकलने वाली प्रमुख साहित्यि पत्रिकाएं पूरी तरह से विमुख ही रही । किसी में इससे संबद्ध कोई सामग्री नहीं दिखी । यह चैकाने वाला तथ्य है और दुखद भी ।
बहरहाल, हम अपनी चितांओं के साथ आपके सम्मुख हैं मई 10 का अंक लेकर इसमें है डा. रमेश दवे की कविताए जिन्होंने अभी ही अपने जीवन के 74 वर्ष पूर्ण किये हैं और 75 वें वर्ष में प्रवेश किया है, साथ ही मदन मोहन की कहानी ‘पाताल पानी’ और डा.रामदरश मिश्र की डायरी के अंश ‘दर्द की परछाइयाँ’ हैं साथ ही डा.कमलाकर बुधकर की पुस्तक ‘मैं हरिद्वार बोल रहा हूँ’ की समीक्षा और है ‘अज्ञेय’ के उपन्यासो के मनोवैज्ञानिक विश्लेषण पर एक आलेख आशा है सामग्री आपको पंसद आयेगी ।
रमेश खत्री


डायरी : रामदरश मिश्र : दर्द की परछाईयाँ
15/7/06

पार्क में घुमते घुमते देखा कि लगभग दस साल का एक लड़का कबाड़ का बोरा लिये हुए मंद मंद गति से आ रहा है । जहां कबाड़ी होगा, कुत्ते भूकेंगे ही । दूर से कुछ कुते भूंक रहे थे । लेकिन लड़का उनसे बेखबर चुपचाप चला आ रहा था । पार्क में जब दूसरा चक्कर ले रहा थ तबक देखा वही लड़का सामने के मकान के बाहर की सीढ़ियों पर सो गया है । पास में कबाड़ की बोरी पड़ी हुई है । रोज ही तो देखता हूं कि छोटे छोटे गंदे बच्चे कबाड़ के गंदे बोर उठासे हुए इस गली में उस गली में धूमते रहते हैं, कुते उनके पीछे पीछे भूंकते रहते हैं और वे जैसे कुत्तों के चीखने चिल्लाने के आदी हो गये हैं परस्पर हंसते बोलते चले जाते हैं, कभी कभी अपने बोरे हिलाकर कुत्तों की ओर लपकते हैं तो कुते भाग खड़े होते हैं और कुछ दूर जा कर फिर भूंकना शुरू करते हैं ।
तो वे अपनी उछल कूद में, हंसी मजाक में कितना दर्द छिपाये रहते हैं और गंदे बोरों से लदा हुआ उनका बचपन थोड़ी सी अपनी जिन्दगी जी लेने का उपाय कर लेता है किन्तु आज तो इस बच्चे को देखकर जी दहल गया । अकेला बच्चा न जाने कहां से आ रहा है, कहां जायेगा ? इसके साथ और काई बच्चा क्यों नहीं है ? और वह चलते चलते एकाएक किसी सीढ़ी के पास सो गया । यह डर भी नहीं है कि वहां कोई गाड़ी उसे कुचल जायेगी-कोई आदमी पांव से ठोकर मार देगा या कोईकुता आकर काट लेगा ।
सुबह सुबह चलते चलते वह क्यों सो गया ? क्या रात भर जगा था ? हो सकता है जगा हो । रात को खाना न मिला हो और भूख के मारे नींद न आयी हो । रात भर जागने के कारण सुबह सुबह नींद ने उसे बीच रास्ते धर दबोचा हो । हो सकता हे घर में रोटी को लेकर मां बाप से झगड़ा हुाअ हो, मारपीट हुई हो । या बाप शराबी हो पी पाकर आया हो और किसी बात पर पत्नी को पीटना शुरू कर दिया हो और बच्चे भी इस लपेट में आ गये हों ।
क्या ये बच्चे रोज रोज स्कूल जाते हुए बच्चों को नहीं देखते होंगे, साफ सुथरे कपड़े, साफ सुथरे दमकते शरीर । पीठ पर बोझ यहां ीाी लेकिन बस्ते का जिसमें किताबों के साथ साथ बढ़िया नाश्ता होता है, बढ़िया पानी होता है । चाकलेट होती है ओर सबसे बड़ी बात यह कि उसमें एक सुंदर भविष्य छिपा होता है - पैसा, पद, रूतबा, यश ....। जिन गलियों में ये बच्चे कबाड़ बटोरते हैं उन्हीं में ये स्कूली बच्चे क्रिकेट खेलते हैं ,पंतग उड़ाते हैं, स्कूटर चलाते हैं, मां बाप की अंगुलियां पकड़े हुए घूमते हैं, उत्सवों के दिनों में रंग बिरंगे सामान खरीदते हैं, दुकानों पर खेड़े होकर चाट खाते हैं, फलों के जूस पीते हैं, आइसक्रीम खाते हैं, विडियो गेम खेलते हैं, घरों में टी.वी. देखते हैं । कैसा लगता होगा यह सब देखना उन बच्चों को जो अपना और घरवालों का पेट भरने के लिए अबोध बचपन में ही सड़क पर निराश्रित फेंक दिये जाते हैं । इनकी आंखों में न कोई सुन्दर सच होंता है न सुन्दर सपना । न अपनी जमीन होती है न अपना आसमान । न वर्तमान होता है न भविष्य । बस पेट की भूख होती है और उसे तुष्ट करने के लिए पीठ पर कबाड़ की बड़ी सी बोरी । बस ऐसे ही जिन्दगी चलती रहती है और बीत जाती है । हां बड़े होकर ये भी इस परंपरा को आगे बढ़ाते हैं यानी शादी करते हैं बच्चे पैदा करते हैं और उन्हें कबाड़ की बोरियों के साथ सड़क पर छोड़ देते हैं । कोई आवश्यक नहीं कि उनके हाथ में कबाड़ की बोरियां ही हों, किसी ढाबेके या हलवाई की दुकान के ढेर सारे बरतन भी हो सकते हैं, या कुछ बड़ा होने पर रिक्शे का हैंडिल भी हो सकता है । छोटे से सिर पर किसी छोटे बड़े साहब के घर का भारी भरकम दिन हो सकता है ।


लेख :रमेश खत्री : मनोवैज्ञानिक मूल्य की कसौटी पर अज्ञेय के उपन्यास
प्रेमचन्द के परवर्ती उपन्यास साहित्य को अज्ञेय ने सर्वाधिक प्रभावित किया, उनका मौलिक दृष्टिकोण, शिल्प की नूतनता के कारण ही हिन्दी के कथाकारों में अज्ञेय का विशिष्ट स्थान है ।
पश्चिम के मनोवैज्ञानिक साहित्य से प्रभावित होकर जिस तरह जैनेन्द्र कुमार में हिन्दी उपन्यास को मनोवैज्ञानिक मोड़ दिया और मनोविश्लेषण के आधार पर जोशी ने मनोविश्लेषणवादी पुट से उसे संवारा, उसकी चरम परिणति अज्ञेय के अन्तर चेतनावादी औपन्यासिक रूप में मिलती है ।
दरअस्ल, अज्ञेय के उपन्यासों में मनोविज्ञान, चिंतन और दर्शन का सम्मिश्रण है । यहां पर चिंतन और मानव पर फ्रायडीय मनोविज्ञान का अत्यधिक प्रभाव है । इसके अन्तर्गत मान अर्हृता, भय और यौन भावना को मानव आचरण की संचालिका‘शक्ति के रूप में मानता है । यही मानव आचरण की मूल प्रेरणाएं हैं । यही उसके कर्म, चिंतन और भावना को आन्दोलित (नियन्त्रित) करती है । यदि इनका वह दमन करता है तो उसके जीवन में कुंठा ओर विकृतियां पेदा होती जाती है । इन निष्कर्षों का पाश्चात्य कथा साहित्य पर गहरा प्रभाव पड़ा । इन्ही से प्रभावित होकर अज्ञेय ने यौन भवना का उन्मूक्त और निर्बन्ध चित्रण करके अपने उपन्यास साहित्य में पात्रों की काम कुठाओं, मानसिक विकृतियों, मन में सूक्ष्म से सूक्ष्मतर स्तरों का अंकर और व्यक्तिक्त को परिचालित करने वाले अचेतन मन का विश्लेषण किया । उनके उपन्यास लेखन पर फ्रायड, एडलर, युंग जैसे मनोविज्ञान मनीषियों तथा वर्जीनिया वुल्फ, लारेन्स जेम्स ज्वायस, अल्वेयर कामू, सात्र्र, आन्द्रे, ज़ीद जैसे दार्शनिक कथाकारों के चिंतन और शिल्प का गहरा प्रभाव पड़ा है । अज्ञेय ने मानव मस्तिष्क पर पड़ने वाले संस्कारों और उससे उद्भूत विचारों की तरंगों को शब्दबद्ध करने का प्रयास किया और इसी के आलोक में मानव आचरण की व्याख्या की ।
डा.नगेन्द्र कहते है, ‘अज्ञेय जैसे एक आद्य कलाकार द्वारा फ्रायड कुछ व्यवस्थित ढंग से हिन्दी उपन्यासों में आए ।’ (विचार और विश्लेषण डा.नरेन्द्र 63)
अज्ञेय ने अपने उपन्यास साहित्य में समाज ही व्याप्त समस्याओं और गतिविधियों को स्थान न देकर मानसिक गत्थियों में जकड़े हुए व्यक्ति को ही उपजीव्य बनाया, उन्होंने व्यक्ति के मन के अन्दर झांककर उसके मन की गहराई में छिपी भावनाओं को उजागर किया है, तभी तो डा.नगेनद्र आगे कहते हैं,‘मनोगुंफों की तह में इतना गहरा घुसने वाला कलाकार हिन्दी उपन्यास ने दूसरा पैदा नहीं किया ।’ (विचार और अनुभूतिदृडा.नगेन्द 150)
‘अज्ञेय’व्यक्ति की सत्ता को सर्वोपरि मानते हैं, लेकिन व्यक्ति के लिए समाज की अवहेलना भी नहीं करते, उनका मानना है, व्यक्ति, व्यक्ति भी है और समाज का अंग भी । व्यक्ति नितांत समाज निरपेक्ष न है और न हो सकता है ।....’व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिंब भी, पुतला भी, इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिंब और पुतला है.....क्योंकि जिस परिस्थिति से वह बनता है उन्हीं को बनाता है और बदलता भी चलता है । वह निरा पुतला, निरा जीव नहीं है, वह व्यक्ति है, बुद्धि विवेक सम्पन्न व्यक्ति ।’ (आत्मनेपनददृअज्ञेयदृ71)
इसीलिए अज्ञेय के पात्र समाज से जुड़े हुए है । उनके उपन्यासों में व्यक्ति का सामान्य जीवन प्रायः अनुपस्थित ही है । उन्होंने केवल विशिष्ट व्यक्ति मानस के आन्तरिक संघर्षों को ही स्वर देने का प्रयास किया है । ज़िन्दगी की दैनिक समस्याओं और गतिविधियों की वयंजना नहीं की, वे व्यक्ति के अन्र्तमन को ही जीवन की घटनाओं का घटना स्थल मानते हैं । उन्होंने समाज से जिन विशिष्ट व्यक्ति चरित्रों का चयन किया है, उन पर असाधारणता और असामाजिकता का आरोप अक्सर लगाया जाता रहा है ।

कविता :डा.रमेश दवे
( डा.रमेश दवे के 8 जून 2010 को अपने उम्र के पचत्तरवें वर्ष में पदापर्ण करने के अवसर पर उन्हें हार्दिक शुभकामनाओ के साथ और साथ ही उनके पूर्ण स्वस्थ रहने की कामना के साथ - संपादक )

पेड़


मेरे घर के सामने
पेड़ था एक
छांवदार
काट दिया गया,
टहनी टहनी ले गए मोहल्ले वाले
पेड़ लकड़ियां हो गया,
लकड़ियां बटवारे में बदली
लकड़ियां, लाठियां हो गईं,
लाठियां मोहल्ले में फैली
मोहल्ला, आग हो गया
आग, शहर में फैली
शहर दंगा हो गया
दंगा
देश में फैला
देश नंगा हो गया ।


लोग नहीं जानते

कहा सुकरात ने
ये लोग नहीं जाने
क्यों पिला रहे हैं ज़हर मुझे
ज़्ाहर नहीं मरेगा
मरूँगा मैं !

इंसान ने कहा
ये लोग नहीं जानते
क्यों ठोक रहे हैं कीलों से मुझे
सलीब पर
सलीब नहीं मरेगा
मरूँगा मैं !

मोहम्मद ने कहा
ये लोग नहीं जानते
क्यों मार रहे हैं पत्थर मुझे
पत्थर नहीं मरेगा
मरूँगा मैं

बात सच निकली
मर चुक हैं
सुकरात, ईसा और महोम्मद
जिन्दा रह गये हैं
ज़हर, सलीब और पत्थर


मेरा ईश्वर

जो मांसाहारी
ईश्वर उनका भी
हैं जो शाकाहारी
ईश्वर उनका भी ;
जो मरते भूखे
उनका भी ईश्वर
खा खा कर बन गए
पेट, जिनके तोंद
उनका भी ईश्वर
जो करते मजदूरी
उनका भी ईश्वर
जो कुछ नहीं करते
ईश्वर उनका भी
गोया हिन्दू का ईश्वर
मुसलमान का ईश्वर
गरीब का ईश्वर
अमीर का ईश्वर
सवर्ण का ईश्वर
दलित का ईश्वर
सबके अपने अपने ईश्वर
मेरे पास नहींे था
कोई भी ईश्वर
किसी का भी ईश्वर
मैंने सोचा
होना चाहिए मेरा भी
कम से कम एकाध ईश्वर
आखिर मैंने खोज लिया
अपना ईश्वर
इसी बीच
ज्वालाओं की जीभ लपलपाती
आई एक आंधी
इतना डर गया मेरा ईश्वर
कि इसके पहले
ज्वाला जलाती उसे
उसने कर ली आत्म हत्या !


आत्माएँ आदिवासिन


वे देह थीं
देह का देवत्व
वे आत्माएँ थीं
आत्मा का परम् तत्व !
प्रगल्भ नहीं
प्रणम्य और प्रशस्त मुस्कानें थीं,
विराट के वैभव की दीप्ति रेखाएं
अस्तित्व की अनंत कथाएं
व्योम के कंपन की
मूर्त ध्वनियां
वनपस्तियों की हरितिमा से उपजा
प्रकृत रक्त
वे थीं,
न परियाँ
न अप्सराएँ
न देवियाँ
न दासियाँ
जीवित सृष्टि
वसुन्धरा का पृथ्वी तन
आकाश की शून्य भाषा
आलोक की नयन वाणी
स्मिति की चन्द्र रेखाएँ
सभ्याता की जय पराजय,
संस्कृति की आदि कथाएँ
काव्य की रस ग्रन्थियाँ
नृत्य की पूपुर ध्वनियाँ
संगीत की राग अन्तराएँ
छातियों पर पर्वत उठाती
भू लक्ष्मियाँ
प्रत्यंचा पर चढ़े तीर की नोक
धनुष की तरह देक का वक्र लोच
यौवन के उद्दाम वेग में बहती धाराएं
वृक्ष देख जिन्हें
हो जाते हरे
पुष्प खिल पड़ते अधरों की डाली पर
हो जाती हवा गंध मय चंदन
पसीने से बहती
स्वाभिमान की नदी,
टाते आगंतुक निहारने
हो जातीं संज्ञाएँ अचेत
अनुप्रास हो जाते आछे
सूर्य उगता, डूबता
जिनका त्वचा के महासमुद्र में
बादल उढ़ेल देते चषक अपने
नाच उठती धरती
जैसे बुला रही हो मोरनी
आकाश की तरह पंख फैलाये मोर को,
वे थीं
क्या थीं
वृक्ष की छाल की तरह खुरदुरी
पगथलियों में उतर आया भूगोल
हथेली पर
किलकारी मार रहा इतिहास
वे थीं
जैसे आत्मा पृथ्वी की
आदिवासिन पृथ्वी की
आदिवासी पर्वत की
आदिवासिन वनस्पतियों की
काश होती
हम सबके अन्दर भी
एक एक
आदिवासिन आत्मा


कहानी :मदन मोहन :पाताल पानी
गाँव से शहर के बीच एक दिनचर्या पूरी होती थी । कुछ चीज़ें निश्चित थीं और कुछ अनिश्चित ! पर सभी सामान्य, स्वाभाविक और बेखौफ ! शिवशंकर सीहापरके थे । सीहापार एक गाँव था । शिवशंकर सीहापार से शहर जाते थे । और शहर से सीहापार लौटते थे । जैसे सुबह केसूरज का उगना हो और शाम को डूब जाना । मगर शिवशंकर सुबह पाँच बजे उगते थे और सूरज के डूब जाने के बाद डूबते थे । शिवशंकर को पता नही था, कि उनका कोई सम्बन्ध सूरज के उगने और डूबने से है । मगर था, क्योंकि धूप उन्हें लगती थी, और रात उन्हें दीखती थी ।
सीहापार से होकर सड़क आती थी । सड़क और सीहापार के बीच एक सम्पर्क मार्ग था । सम्पर्क मार्ग के अगल बगल खेत थे । मार्ग पर मिट्टी पटी थी । मिट्टी पर घास उगी थी । घार पर चल कर ट्रेक्टर सड़क पर आता था । ट्रेक्टर के पहियों के नीचे पड़ती घास गायब हो चुकी थी । बाकी घास एक तरतीब में उगी रहती थी । ट्रेक्टर चला जाता था और घास सुरक्षित छूटती जाती थी । सम्पर्क मार्ग पर ईंटें नहीं बिछी थी । शिवशंकर को पता था कि मार्ग पर ईंट बिछेंगी । एक दिन जब वे ‘शहर से लौटेंगे तो ईंटें बिछी होंगी । और घास बिछी ईंटों की दरारों से झाँक रही होगी ।
सड़क से सीहापार के लिए जहां उतरा जाता था, वहां टिन के टुकड़े पर सफेद पेन्ट से लिखा ‘सीहापार’ लटका रहता था । उजली रात में लिखा ‘सीहापार’ दिखाई देता था । अंधेरी रात में अक्षर की जगह सफेद धब्बा दिखायी देता था । जानने वाला जानता था कि दिखता धब्बा ‘सीहापार’ है । नहीं जानने वाला सफेद धब्बे को करीब से देखकर जान जाता था कि यह कोई गांव है । अनपढ़ ही जान पाता था कि यहां कोई गांव है अनजान अनपढ़ को गांव का नाम जानने के लिए पूछना पड़ता था । अपनढ़ को दिन में भी पूछना पड़ता था । शिवशंकर ने होश सम्हालने के बाद, लिखे और लटके ‘सीहापार’ को जब पहली बार देखा था तो उन्हें अपना गांव ही लटका हुआ लगा था । उन्होंने अपने लटके हुए गांव को अचरज से देखा था । फिर धीरे धीरे देखते रहने का अभ्यास होता गया था । पढ़ाई पूरी होने के बाद वह उसी तरह उनकी दिनचर्या में शामिल हो गया था ।
शिवशंकर पढ़े लिखे थे । उन्होंने सत्रहवें साल में इण्टर किया और बीसवे साल में डिप्लोमा । चार साल बेकारी में चले गये थे । शिवशंकर चैबीस साल के थे । मगर उन्हें अपनी उम्र, पढ़ाई की उम्र और बेकारी की उम्र का पता नहीं था । इसकी जानकारी पिता को थी । शिवशंकर की पढ़ाई पिता ने करायी थी । इण्टर में साइंस और गणित में उनके नम्बर अच्छे थे । इसलिए पिता ने उनका दाखिला डिप्लोमा में कराया था । डिप्लोमा करने के बाद शिवशंकर नौकरी ढूंढने लगे थे । वे शहर में नौकरी ढूंढते थे । शहर उन्हें सुंदर लगता था । नौकरी नहीं मिल रही थी, तो भी ‘शहर से उनकी उम्मीदें बंधी हुई थीं । उम्मीदें शहर की सुन्दरता के साथ जुड़ी थीं । उन्हें लगता था जो सुन्दर है, वह सुन्दर चाहता है । नौकरी का मिलना शहर के सुन्दर चाहने के नाते हाता ।
केवल ‘शहर ही नहीं, शिवशंकर को गांव, खेत, खलिहान, फसल, ज़मीन और आकाश भी सुन्दर लगते थे । मां, बाप, भाई, बहन, पत्नी, नाते रिश्ते, गांव और शहर के लोग भी अच्छे लगते थे । नदी, पहाड़, समुद्र, झील और झरने शिवशंकर को रोमांचित करते थे ।सिहपर के पहाड़ उनके गांव सीहापार से दिखलायी पड़ते थे । गांव के ताड़ के पेड़ से वे पहाड़ी की झाड़ियों में विचरते पहाड़ी कुत्तों, बिल्लों और सांपों को देख लेते थे ।


पुस्तक समीक्षा :सुरेश मिश्र : हरिद्वार की आत्म कथा :मैं हरिद्वार बोल रहा हूँ
एक लम्बे अर्से से हिन्दी कविता, पत्रकारिता, अध्याापन एवं फोटोग्राफी से जुड़े डा.कमलकांत बुधकर की ताज़ा तरीन पुस्तक ‘मैं हरिद्वार बोल रहा हूँ’ हिन्दी में किसी शहर की आत्म कहानी सुनवाने वाली शायद यह पहली पुस्तक है, हरिद्वार हज़ारों वर्षों से इस देश के बहु संख्यक हिन्दु समाज के लिए, परिवार में बालक के जन्म से लेकर, घर में किसी की मृत्यु या किसी तीज त्यौंहार पर सबसे पहले याद आने वाला शहर है । यह एक ऐसा ‘शहर है जिस का बचपना तो गुज़रा था एक विरान सुनसान से जंगल में जहाँ किसी शिवालिक की गुड़िया पहाड़ियों के बीच से बल बल करके बहने वाली पवित्र गंगा नदी की धारा होती थी या उसके आस पास कहीं किसी तपस्या में लीन ऋषि मुनि का आश्रम । बाकी सब जंगल ही जंगल होता था । लेकिन, कालान्तर में जिसने अपने पौराणिक एवं ऐतिहासिक घटनाओंे कथा प्रसंगों के केन्द्र के रूप में उभरकर इस महादेश के जन मानलस में अपनी एक खास ध्वनि निर्मित की और उस छवि के सहारे आगे बढ़कर आज वह भारत के मानचित्र पर न केवल देश का एक शीर्ष धार्मिक स्थान है बल्कि अनेक उच्च शैक्षणिक, सांस्कृतिक, औद्योगिक एवं व्यावसायिक गति विधियों/प्रतिष्ठानों का केन्द्र बन कर उभर रहा है । खासकर अपने कुंभ या अद्र्ध कुंभ जैसे अति विराट मानव मेलों के कारण वह पूरे विश्व के लोगों के लिए आकर्षण एवं पर्यटन का बिन्दु बन गया है ।
‘मैं हरिद्वार बोल रहा हूँ’ पुस्तक एक शहर की आतम कहानी के कारण उसके बारे में, अपने पाठकों के समक्ष सूचनाओं का ख़जाना तो खोलती ही है साथ ही ‘मैं’ ‘शैली में लिखी होने से काफी हद तक वह पाठक को अपने साथ बाँध कर रखती है । इसी के साथ लेखक ने बड़ी मेहनत से पुरी पुस्तक हरिद्वार के बीते हुए कल तथा उसके आज के चेहरों को दर्शाते वाले अनेक दुर्लभ चित्रों से सजाया हुआ है । जिससे पुस्तक न केवल पठनीय बल्कि दर्शनीय एवं संग्रहणीय हो गई है ।
हरिद्वार के बारे में लेखक द्वारा दी गई सारी सूचनाएं उसके विस्तृत एवं गहन अध्ययन अनुसंधान की सूचक है और पुस्तक पढ़कर ऐसा लगता है जैसे उसे लिखने से पहले कई वर्षों तक लेख कइस पुस्तक की विषय सामग्री को ही ओढ़ता बिछाता रहा था ।
2010 के कुंभ मेले के अवसर पर प्रकाशित इस पुस्तक ने निश्चह ही हरिद्वार के बारे में जिज्ञासु धार्मिक पर्यटकों को अपनी ओर आकर्षित किया होगा, अलबत्ता ऊँचे मूल्य, नयनाभिराम ‘गेटप’ वाली इस ज्ञान वद्धिका पुस्तक में कहीं कहीं प्रूफ संबंधी गललियाँ रह गई है जिन्हें अब इस पुस्तक के दूसरे जन्म में ही सुधारा जा सकता है ।
कुल मिलाकर, हिन्दी में ऐसा प्रथम प्रयास करने के लिए डा.बुधकर को बधाई दी जानी चाहिए ।

मैं हरिद्वार बोल रहा हूँ /डा.कमलकांत बुधकर/हिन्दी साहित्य निकेतन, बिजनौर/मूल्य 395